Hindi short story about mother from an autobiography. When I was searching for job and needed money for that, my mother gave her gold chain without hesitation
जब मेरी आखें डबडबा आयीं
यह घटना १९६६ की है जब मैं स्थाई नौकरी की तलाश में इधर-उधर भटक रहा था. मैं बेरोजगार नहीं था. मैं गोबिन्दपुर हाई स्कूल में अस्थायी सहायक शिक्षक के पद पर कार्य कर रहा था. उस समय मेरा वेतन सौ रूपये था . मैंने बी. काम. पास कर लिया था और एक अच्छी नौकरी की तलाश में था. हरेक आदमी बेटर प्रोसपेक्ट के लिए प्रयासरत रहता है, इसलिए मैं भी इसी दिशा में दौड-धूप कर रहा था. मैंने कई जगह एप्लाई की , लेकिन कोई संतोषजनक परिणाम नहीं निकला. किसी ने कहा है -” हिम्मते मर्दे, मददे खुदा .” मैंने भी अपना प्रयास जारी रखा . अंततोगत्वा मुझे सफलता मिल ही गई.
मैंने एक बैंक में आवेदन किया था. लिखित परीक्षा हुई जिसमें मैं उत्तीर्ण घोषित किया गया. उस समय कैशियर कम क्लर्क के पद के लिए अंग्रेजी टाइपिंग टेस्ट भी होती थी जिसमें पास होना जरूरी होता था. मैंने टेस्ट दिया ,लेकिन रिजल्ट के बारे में नहीं बताया गया. मेरा एक क्लास फ्रेंड था जो बैंक में अच्छे पद पर कार्य करता था और आर एस पी कालेज में मेरे साथ पढ़ता भी था. मेरी उनसे जान पहचान पहले से थी. मैं काफी चिंतित था कि इस बार भी मौका हाथ से न निकल जाय.
मैंने अपने फ्रेंड से मुलाकात की और इस सम्बन्ध में मदद करने की गुजारिश की. उसने स्पष्ट बता दिया कि एजेंट खाऊमल है , वगैर कुछ लिए काम करनेवाला नहीं. मेरे दोस्त ने अपने साहेब की विवशता का भी जिक्र करने में कोई संकोच नहीं किया. उसने आगे कहा,” दरअसल साहेब की चार-पांच बेटियां हैं. सब की पढ़ाई-लिखाई , रहन-सहन और ऊपर से शादी- विवाह का दहेज, कहाँ से खर्च कर पायेगा, वेतन ही कितना देती है ———-?”
मैं ने सहमते हुए पूछ बैठा ,” मुझे कितना देना होगा ?”
” दो हज़ार. जितनी जल्द दे दोगे , काम हो जायेगा. लेकिन हर हाल में संडे तक दे देना होगा .”
मेरे हाथ में मात्र तीन ही दिन थे और इन्हीं तीन दिनों में राशि की व्यवस्था करनी थी. उस ज़माने में दो हज़ार रकम बहुत होती थी. घर की माली हालत उतनी अच्छी नहीं थी कि किसी से कहे और वह तुरंत निकाल कर मुझे थमा दे. घर का खर्च मुझे चलाना पड़ता था, इसलिए पैसे बचा कर भी नहीं रख पाया था. हित-मित्र या सगे-सम्बन्धी भी दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रहे थे जो दो हज़ार रूपये दे कर मेरी मदद कर सके. मेरा एक दोस्त था जो ठीकेदारी करता था. मैं ने उसे सारी बातें बताई तथा संकट की घड़ी में मदद करने की बात रखी तथा आश्वस्त भी किया कि जल्द ही दो चार महीने में रकम की वापसी कर दी जायेगी.
” आज शुक्रवार है, कल शुबह आओ और पैसे ले जाओ”- उसने कहा.
मैं इत्मीनान से घर चला आया. रात भर सोचता रहा कि यदि वह धोखा दे दे तो क्या होगा. समय भी बहुत कम है. आँखें कब लग गयीं पता भी नहीं चला. मैं हडबड़ा कर उठा और जैसे-तैसे हाथ-मुँह धोकर अपने दोस्त के घर पहुँच गया. उसने बड़े ही आदर व स्नेह के साथ अंदर कमरे में ले गया.
” बैठो दो मिनट,मैं जरा बाथ रूम से आ रहा हूँ.”- मेरे मन में उथल-पुथल मची हुई थी . दुबिधा भी खाए जा रही थी पल-पल. बैठाकर गया, कितनी देर में आएगा, पता नहीं पैसा आज भी देगा या कोई फिर बहाना बना देगा. नहीं ,नहीं ऐसा नहीं करेगा,हाव-भाव से तो पता नहीं चलता. लेकिन —- ? —– का कोई विश्वाश नहीं . मैं उधेड़बुन में फंसा हुआ था. देखा तौलिए में हाथ पोछते , होठों पर मुस्कराहट बिखरते मेरा दोस्त आया और मेरे बगल में आकार बैठ गया. मेरे कंधे पर अपना चिर परिचित हाथ रखकर बड़ी ही सहजता से बोला,
” ऐसा है मास्टर( चूँकि मैं शिक्षक था और उनके घर के बच्चों को पढाया करता था ,इसलिए वह मुझे मास्टर ही कहा करता था ), बिल का पेमेंट होनेवाला था, लेकिन नहीं हुआ. इसलिए नहीं दे पा रहा हूँ. otherwise मत लेना .”
” तो कहीं से भी जोगाड नहीं हो सकता? – मैंने जानना चाहा.
” होता तो तुम्हें इस तरह निराश लौटाता क्या ?”- उसने अपने वचाव में बात रखी.
मैं थका- हारा घर लौट आया. माँ की नज़रों से मैं बच नहीं सका. माँ मेरे उदास चेहरे को पढ़ ली थी. उसने पूछा,” क्या बात है, इधर कुछ दिनों से बड़े परेशान लग रहे हो?”
मैंने माँ से यह बात बताकर उसे नाहक परेशान नहीं करना चाहता था. मैं ने आज माँ को सारी बातें सच-सच बता दी. माँ निचिंत होकर बोली,” कोई चिंता की बात नहीं है, नहा-धोकर आओ. नास्ता बना रहीं हूँ.”
मैं माँ के आदेशानुसार नहा-धोकर नास्ता कर लिया. स्कूल जाने के लिए तैयार हो गया. थोड़ी देर में माँ कमरे से बाहर आयी. पास आकर बोली, ” आज स्कूल नहीं जाना है तुम्हें. यह सोने की सिकड़ी ( Chain )है , लो, सात तोले का है. झरिया में बेच देना, दो हज़ार तो मिल ही जायेगा. अपने सहपाठी को देते आना उधर से. सोचने की बात नहीं है. नौकरी हो जायेगी तो ऐसी सिकड़ी बहुत हो जायेगी.”
मैं तैयार नहीं था इस बात के लिए कि माँ का जेवर बेच कर नौकरी लूं. लेकिन माँ के आगे मैं विवश था. मैंने सिकड़ी सावधानी से पेंट की पॉकेट में रखी. माँ ने इसे एक रूमाल में अच्छी तरह बांधकर दी थी. मैं दीपक बस पकड़कर सीधे झरिया चला आया. सोना पट्टी की गली से होते हुए सोने की दूकान पर गया. पॉकेट से सिकड़ी निकाली और बेचने की बात रखी. शुरू में तो सेठजी इतनी लंबी सिकड़ी देख कर घबड़ाया और बेचने की वजह जानना चाहा. मैं ने सारी बातें उसे साफ-साफ बता दी. उसने मेरे गाँव के दो चार गण्यमान व्यक्तियों के बारे पूछा तो मैंने सही-सही बता दिया .
पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद दूकानदार खरीदने को तैयार हो गया. उसने दराज से तराजू एवं बटखारे निकाले. एक पलड़े पर सिकडी रखी और दूसरे पर बटखारे रखते गए तबतक जबतक दोनों पलड़े आपस में बराबरी पर नहीं आ गए. उसने तराजू को थोड़ा ऊपर उठाया और मुझे आश्वस्त होने या करने के लिए उसने दोबारा डंडी उठाई तो एकाएक मेरे मन में एक विचार कौंध गया. इतनी देर में मेरा हृदय रो पड़ा था और मेरी आँखे डबडबा गईं आंसूओं से. ऐसा लगा कि मैं अब रो पडूंगा कि तब.
मैनें सेठ जी से सिकड़ी अपने हाथ में ले ली और अपनी बात रखी,” सेठ जी यह मेरी माँ की सिकड़ी है, मुझे नहीं बेचनी है.” बोलते- बोलते मैं एकाएक रो पड़ा.
सेठ जी भी मेरी अवस्था से अभिभूत हुए बिना अपने को रोक नहीं सके. उसने मुझे पुचकारते हुए कहा ,” कोई बात नहीं , बेटे ! ”
उसने सिकड़ी मुझसे ले ली . रूमाल में ज्यों की त्यों बांधकर लौटाते हुए हिदायत की,” सम्हाल कर ले जाना.”
मैं सीधे घर आ गया. माँ दरवाजे पर ही मेरा इन्तजार करती हुई मिल गई और पूछी , ” काम हो गया?”
मैंने पोटली लौटाते हुए जवाब दिया,” हाँ ” कहकर साईकल उठाया और स्कूल चल दिया. एक साल बाद मेरी एक अच्छी नौकरी लग गई. फिर मैं वित्त अधिकारी भी बना. वेतन और भत्ते में भी इजाफ़ा हुआ. माँ , जहाँ-जहाँ मैंने काम किया , वहाँ-वहाँ , जैसे मरार( रामगढ़ ), सिन्दरी, जयरामपुर, कुस्तौर हमारे साथ-साथ रहीं. हम १९८१ , १० फरवरी – वसंत पंचमी के दिन गोबिन्दपुर – अपने घर लौट आये. मेरा स्थानान्तरण कोयला भवन ( बी.सी.सी.एल. हेड क्वार्टर ) हो गया. घर से ही ऑफिस आना-जाना करने लगा . पूरा परिवार अब घर पर ही रहने लगा.
माँ हमारे साथ -साथ ही रहती थी तथा जीवन के अंतिम क्षणों तक साथ ही रही . इन सोलह- सत्रह सालों में मेरी दो पुत्रियां- सुमन और सुस्मिता और चार पुत्र- श्रीकांत, रमाकांत, शिवाकांत एवं चंद्रकांत ने जन्म लिया. मेरी माँ ने जी-जान से बाल – बच्चों की परवरिश की. बच्चों को अच्छी शिक्षा और अच्छे संस्कार भी दिए. मैं और मेरी पत्नी- बसन्ती देवी उनके रहने से जीवन की गाड़ी सुचारू रूप से चलाते रहे. कोई असुबिधा या मुश्किलें हमें कभी फील नहीं हुआ. माँ को अपने दोनों लड़कों गोबिंद और काली की चिंता हमेशा सताते रहती थी.
माँ धीरे-धीरे रोगग्रस्त होने लगी. रक्तचाप एवं मधुमेह का शिकार हो गई. इतना कमजोर हो गई कि उठना- बैठना भी मुश्किल हो गया. बेड पर सोते- सोते बेड शोर से ग्रसित हो गई. ५ जनवरी १९८८ की एक शुबह हम नित्य की तरह माँ को देखने गए . माँ को बिलकुल स्थिर व शांत देखा. जैसे जीवन का कोई स्पंदन ही न हो उनमें. सिर्फ आँखें अपलक ताकती हुईं. जैसे कुछ कहना चाहती हों. मैंने नाड़ी देखी जो बहुत ही सुस्त चल रही थी. डा. मानु को बुला भेजा. घर एवं आस- पड़ोस के लोग भी आ गए. माँ ने मेरे सबसे छोटे लड़के रिंकू, जो महज दस महीने का था और उनके सिरहाने खटिया पकड़कर खड़ा था , को अपने हाथों से पुचकारी-दुलारी. उसके नन्हें -नन्हें कोमल उंगुलियों को अपने हाथों से सहलाती रहीं तबतक जबतक उनकी सांसों की गति थम सी नहीं गई. डा. आते के साथ उनकी नाड़ी और उनकी आँखों की पुतलियों को देखकर हमें दो टूक जवाब दिया , “नहीं रही.”
माँ के गुजरे चौबीस साल हो गए ,लेकिन ऐसा एहसास होता है कि वह अब भी घर के किसी कोने में बैठी है और उनकी जानी – पहचानी नजरें हमें बेताबी से ढूंड रही हैं. एक हम हैं कि उनसे मिलने में कतराते हैं ! काश , इस रहस्य को कोई जान पाता !
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इस कहानी को आज दिनांक – १७.०७.२०१२ को ही तीन घंटों में लिखी गई.
दुर्गा प्रसाद ,