“आज माँ बहुत याद आ रही है मोना.” श्रद्धा ने भरे गले से कहा.
“मैं समझ सकती हूँ मौसी.” मोना ने कहा,“मैं भी तो आप को और मम्मा को बहुत मिस करती हूँ.”
“रहने दे तेरी चिकनी चुपड़ी बातें. सब पता है कितना मिस करती है. याद आती तो कभी तो आने का प्रोग्राम बनाती.” श्रद्धा ने नकली गुस्सा दिखाते हुए कहा.
“आप सब तो जानती हो. घर बच्चे जॉब खुद अपने लिए टाइम नहीं निकाल पाती.”
“हाँ समझती हूँ मगर मन तो करता हैं ना पिछला वक्त रीकाल करने का.” श्रद्धा के स्वर मे फिर से उदासी आ गई थी.. “चल अब फोन रखती हूँ फिर बात करते हैं अपना ध्यान रखना.”
“आप भी.”
मोना श्रद्धा की स्वर्गवासी बहन की बेटी थी. कहने को तो श्रद्धा और मोना मौसी भांजी थीं. मगर उम्र के कम अंतर और अविवाहित जीवन मे वर्षों के साथ ने दोनों का रिश्ता बहनों जैसा. बल्कि यूँ कहें कि दोस्तों जैसा बना दिया था. विवाह के बाद दोनों एक दूसरे से दूर हो गईं. मगर मन का जुडाव आज भी पहले जैसा था. मोना से बात खत्म करके श्रद्धा घूमीं ही थी कि पति देव का गंभीर स्वर कानों मे पड़ा “आज नाश्ता मिलेगा ?”
“जी अभी लाई” कहकर हड़बड़ाती सी श्रद्धा ने फटाफट नाश्ता लगा दिया. “सब तैयार है बस मोना का फोन आ गया था.” श्रद्धा ने सफाई सी दी.
“एक बात कहूँ बुरा मत मानना तुम्हारे यहाँ फोन करने का कोई टाइम नहीं है किसी का.” मनीष ने तंज भरे स्वर मे कहा और खाने मे जुट गया.
उसकी बात तीर जैसी चुभ गई थी श्रद्धा को. अगर नाश्ता ना कर रहे होते तो जरुर कोई कड़वा सा जवाब पाते. “अपनों को याद करने का भी कोई वक्त होता है भला.” श्रद्धा ने मन मे सोचा. अगर इतनी सी बात बोल दी तो अभी भूचाल आ जायेगा. और सुबह सुबह कोई तमाशा नहीं चाहिए. श्रद्धा वहाँ से हट गई और खुद को दूसरे कामों मे व्यस्त कर लिया. नाश्ते के अच्छे स्वाद का असर था या भूख मिट जाने का. मनीष एक दम प्रसन्न होकर काम पर चला गया. बिना सोचे कि उसके एक वाक्य ने श्रद्धा के मन मे कितनी उदासी भर दी. फोन पर बात कर के बिना कसूर खुद को अपराधी सा महसूस कर रही थी. “अब तो आदत सी हो गई है इन सब बातों की.” होठों मे बुदबुदाती सी श्रद्धा ने सिर हिलाकर जैसे पूरा तनाव झाड देना चाहा.
नयी नयी शादी-शुदा ज़िंदगी मे बड़ा अजीब सा लगता था ये शब्द “तुम्हारे यहाँ”. पहली बार सासू माँ के मुह से सुना था. श्रद्धा नें.
“आज हवन मे अपने घर की साड़ी पहनना.” मांजी नें निर्देश दिया.
और श्रद्धा ने बड़े आराम से चढ़ाव मे ससुराल से मिली भारी सी पीली बनारसी साड़ी निकाल कर पहन ली. और हवन मे जा कर बैठ गई. अपनी खरीदी हुई साड़ी सासू माँ नें झट से पहचान भी ली. सब के बीच तो कुछ न कह सकीं मगर मेहमानों के जाते ही कितनी बिगड़ी थी श्रद्धा पर.
“मैंने तुमको खुद बताया था कि अपने यहाँ की साड़ी पहनना और तुमने ये पहन ली. तुम्हारे घर मे कोई काम रीति-रिवाज़ से होता भी है.” सासू माँ गुस्से मे तनफना रहीं थी और श्रद्धा समझ ही ना सकी कि उस से क्या गलती हुई. वो तो माँ जी के जाने के बाद कामवाली ने चुपके से बताया “बहूजी अपनें मायके की साड़ी पहनी जाती है.”
बचपन से तो आज तक हजारों बार माँ से, जीजी से, भैया से सबसे ही तो सुनती चली आ रही थी ये काम अपने घर जाकर करना वो काम अपने घर जाकर करना. कितने चाव से पेंटिंग बनाई थीं शादी से पहले, घर मे लगाना चाहती थी ड्राइंग रूम की सामने वाली बड़ी दीवार पर मगर माँ ने रोक दिया. “हमारा घर ऐसे ही ठीक है बहुत सुन्दर बनाई है तूने इतनी मेहनत से. कल को शादी होगी अपना घर सजाना बेटा. तब फुर्सत नहीं मिल पाएगी ये सब करने की.”
फिर तो कभी भी कुछ खरीदा या बनाया तो बिना कहे सुने अपने अनजान अपरिचित घर के लिए रख दिया पता था माँ तो कहीं सजाने ना देगी और श्रद्धा अपने कलाप्रेमी दिल के हाथों मजबूर थी. हमेशा कुछ न कुछ बनाती रहती पहले माँ और माँ के बाद बड़ी जीजी ने ये ड्यूटी बखूबी निभाई. माँ की असमय मौत के बाद जीजी ने ही तो सम्हाला था श्रद्धा को. वही वक्त था जब श्रद्धा और मोना दोस्त बन गईं.
श्रद्धा की शादी के बाद भी मोना और श्रद्धा ने बहुत सारा समय साथ बिताया कभी जीजी श्रद्धा को बुलवा लेतीं थी और कभी मोना मौसी के पास आ जाती. मगर जीजी भी अचानक साथ छोड़ कर चली गई. तब तक तो मोना की शादी भी न कर पाई थीं. मगर जब मोना की भी शादी हो गई तब श्रद्धा और मोना चाह कर भी ज्यादा न मिल पातीं. दोनों की अपनी अपनी मजबूरियां थीं. कभी-कभार किसी काम काज मे ही मिलना हो पाता वो भी एक दो दिन के लिए. और कभी कभी तो महज कुछ घंटों के लिए ही होता. ऐसे मे मात्र फोन का ही तो सहारा था. जो उन दोनों को जोड़े रखता.
खुद उसने भी तो मान लिया था कि मनीष का घर ही उसका अपना घर है. मगर यहाँ तो मायके को कहा जाता था तुम्हारे यहाँ. “ओह! तो ये घर मेरा नहीं हैं.” मनीष से शिकायती स्वर मे श्रद्धा नें कहा.
“नहीं ऐसी कोई बात नहीं है. ये घर अब तुम्हारा है.” मनीष नें कहा था और निभाया भी अपनी बात को हर चीज़ मे सलाह लेते भी रहे और मानते भी.
श्रद्धा नें भी पूरी जी-जान से घर को संभाला. मगर अपने मन से सजा ना पाई कभी. जो पेंटिंग माँ ने लगाने ना दी. उस के लिए इस घर मे भी कोई दीवार ना थी. यहाँ जो चीज़ वर्षों से जहाँ रखी थी वहाँ से हटाने की अनुमति ना थी. शुरू मे श्रद्धा जिद कर कुछ लगा भी देती तो दो चार दिन मे किसी न किसी को या तो नए सामान से असुविधा होती या पुराने की याद आ जाती. और श्रद्धा का सामान वापस पैक.
थक हार कर श्रद्धा ने अपने घर के लिए जोड़े गए सामान को अलमारियों के नीचे वाले खाने, अलमारियों के ऊपर और स्टोररूम मे सेट कर ही लिया था. बढती उम्र के साथ घर सजाने का शौक भी फीका पड़ गया. मगर एक स्थायित्व की तो आवश्यकता बढ़ जाती है. एक गृहणी के लिए उसका घर ही सब कुछ होता है.वो अपनापन किसी से ना मिल सका ना मायके से और ना ही ससुराल में. शादी के बाद मायका तो छूट ही गया और भाभी के आ जाने घर भी पराया हो गया क्योंकि अब भाभी मायके की स्वामिनी थी और श्रद्धा मेहमान बन गई थी. और ससुराल मे आज भी बाहर से आई थी. जो रीतापन माँ ने मन मे भर दिया था वो हर जगह बढ़ता ही गया. ऐसे मे किसी का पूछ भर लेना “आपके यहाँ बिजली आ रही है ?”श्रद्धाको सोच मे डाल देता कि क्या उत्तर दूं .
शिकायत करे भी तो किस से करे. उस माँ से जिसने जन्म तो दिया मगर घर ना दे सकी या उस बहन से जिसने सहारा तो दिया मगर श्रद्धा उसके घर को अपना ना कह सकी. या फिर उस सास से जिसने अपना बेटा तो दिया मगर घर फिर भी श्रद्धा का न हो सका. अपने घर का सपना मात्र सपना ही बन कर रह गया श्रद्धा की शिकायत महिलाओं से ही है. पुरुषों से तो कुछ कहना ही व्यर्थ था वो उसकी पीड़ा कैसे समझ सकते थे. जब अपना घर छोड़कर दूसरे के घर को अपना बनने वालियां ही उसकी पीड़ा न जान पाई. एक कसक हमेशा श्रद्धा को सालती ही रही आखिर उसका घर कौन सा है ??
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