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Incomplete Desires

Published by payalguptaa in category Family | Hindi | Hindi Story | Social and Moral with tag ambition | career | desire | family | Love | money | relatives

This Hindi story is about a young man who was forced to give up his career and love just because his parents want to please the so called society.

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Hindi Story – Incomplete Desires
Photo credit: hotblack from morguefile.com

ज़िंदगी के फलसफों में उलझी ज़िन्दगी
और अधूरी रह गयी ख्वाहिशें

कभी लगा खुली किताब सी है ज़िन्दगी तो कभी एक पतंग सी लगी लेकिन जब जब ज़िन्दगी को पर लगाने चाहे तब तब ज़िन्दगी के फलसफों ने परों को खुलने से पहले ही काट दिया। मुझे कहाँ मालूम था कि मेरी अपनी ज़िन्दगी मेरी नहीं है बल्कि समाज के हाथों की कठपुतली है। समाज ने ज़िन्दगी जीने के जो फलसफे बनाए उनमे मेरी ज़िन्दगी कुछ ऐसी उलझी की मुझे पता ही नहीं चला कि कब मैंने दूसरों के मुताबिक जीना शुरू कर दिया। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि अपने जीवन की कुछ विशेष इच्छाओं का बलिदान भी मुझे करना पड़ा।

सन १९९७ में स्कूल खत्म करने के बाद जब मैंने वक़ालत की पढ़ाई करने का सोचा तो पिताजी ने सहर्ष अनुमति दे दी और तो और ऊपरवाले की दया से मैंने एंट्रेंस एग्जाम भी अच्छे मार्क्स के साथ पास कर लिया था। लेकिन मेरे सपने अपनी उड़ान भरते उससे पहले ही पास के और दूर के कुछ रिश्तेदारों ने अपने फलसफे सुनाकर पिताजी का मन बदल दिया। पिताजी को कहा गया कि ,”अरे नरेश भाईसाहब (नरेश मेरे पिताजी का नाम है) यह सब वक़ालत वग़ैरह जैसी क्या फालतू चीज़ों में लड़के का समय बर्बाद करवा रहे हैं ? अगर यह वकील बन गया तो आपका जो इलेक्ट्रॉनिक्स का इतना शानदार और मशहूर शोरूम है उसको कौन संभालेगा ? अब आपके कोई तीन चार लड़के तो हैं नहीं की चलो एक वकील बन जाये तो दूसरा गल्ला संभाल लेगा। अब जो भी है यही है। बीए या बीकॉम करवा दो और साथ में शोरूम सँभालने कि ट्रेनिंग दो। आखिरकार आगे सब इसी ने तो देखना है। और इतना याद रखिए की वकील लड़कों के रिश्ते भी आसानी से नहीं होते। ”

बस इसके बाद जिस बात का डर था वही हुआ। वक़ालत पढ़ने का सपना ठन्डे बस्ते में चला गया। हालाँकि मैंने पिताजी को प्यार से और झगड़े से मनाने का अथक प्रयास किया लेकिन दुर्भाग्यवश कुछ हो ना पाया। और फिर हारकर बेमन से मैंने पत्राचार बीकॉम में दाख़िला ले लिया। और साथ ही पिताजी के साथ शोरूम भी जाना शुरू कर दिया। क्यूँकि आगे सब कुछ मैंने ही तो देखना था। लेकिन सच्चाई तो यह थी कि मेरा मन किसी काम में मन नहीं लगता। एक दिन दूर के एक मामाजी घर पधारे और जब उन्हें पता चला की मैं वक़ालत कि पढ़ाई नहीं कर रहा हूँ तो उन्होंने पिताजी को समझाना चाहा की दुनिया क्या कहती है या क्या चाहती है वो ज़रूरी नहीं है। आपका बच्चा क्या चाहता है वो ज़रूरी है। इतने होशियार बच्चे का भविष्य क्यूँ आप यह पत्राचार बीकॉम में ख़राब कर रहे हैं। पढ़ने दीजिए ना इसे वक़ालत। पर पिताजी ने तो फलसफों की जैसे घुट्टी ही पी ली थी। वे टस से मस नहीं हुए।

इस पर मामाजी ने विद्रोह भरे स्वर में कहा की वे मुझे अपने साथ नागपुर ले जाएँगे और वक़ालत की पढ़ाई करवाएँगे। यह सुनकर तो मेरा मन मयूर कि भाँति नाचने लगा। लेकिन पिताजी भी कहाँ कम थे। वे बोले कि ,” ठीक है ले जाओ लेकिन फिर आज के बाद से यह मेरी औलाद नहीं कहलाएगी। मैं इसको अपनी ज़ायदाद से बेदखल कर दूँगा। ” यह सुनकर मैंने कहा की मुझे उनकी दौलत का कोई लालच नहीं है। मैंने वकील बनने का सपना देखा था और अगर मामाजी इस सपने को पूरा करने में मेरी मदद कर सकते हैं तो बेशक मैं उनके साथ ही जाना चाहूँगा।

मेरी माताजी जो हर समय हर स्तिथि में अक्सर मौन ही धारण रखती थीं इस बार अपनी चुप्पी तोड़कर आखिकार बोल ही पड़ीं। वे बोलीं तो ज़रूर लेकिन कुछ और फलसफे सुनाने के लिए। बोलीं कि ,”बेटा ! क्या तेरा वकील बनने का सपना इतना बड़ा है की उसके लिए तो अपने माँ-बाप को भी छोड़ने को तैयार हो गया है। और भैया आप इसको समझाने की जगह इसे घर छोड़ने के लिए उकसा रहे हैं। मैं मानती हूँ की इसके पिताजी ने दूसरे लोगों कि बातों में आकर इसका वक़ालत में दाखिला नहीं करवाकर ठीक नहीं किया है लेकिन इस बात के लिए घर छोड़ कर जाना तो उचित नहीं है। दुनिया वाले तो इस बात का तिल का ताड़ बना देंगे। ना जाने कैसी कैसी बातें बनाएँगे। क्या वकील बनना माँ-बाप के लाड़-प्यार से बढ़कर है ? क्या तू हमें सिर्फ़ इसलिए छोड़ देगा क्यूँकि तेरे पिताजी चाहते हैं की तू वक़ालत पढ़ने की जगह शोरूम संभाले ? तेरे जीवन में हम दोनों की बस इतनी ही जगह है क्या ? माना की तुम सही हो पर तुम्हारे पिताजी भी तो गलत नहीं हैं। यह घर,शोरूम आदि तो सब तुम्हारे ही लिए तो खड़ा किया है हमने। अब तुम इसको नहीं संभालोगे तो फिर कौन इस सब को देखेगा ?” यह सब सुनकर जब मैंने अपने मन कि बात कहनी चाही तो माँ ने अपनी आँखों से गंगा – जमुना की बरसात करनी शुरू कर दी।

और फिर मामाजी की तरफ देख कर बोलीं कि,” भैया ! मुझे आपसे ऐसी उम्मीद बिलकुल नहीं थी। यह जानते हुए कि अरमान हमारी एकमात्र संतान है इसके बावजूद भी आप उसे हमसे हमेशा के लिए दूर करने का प्रयास कर रहे हैं। ” मामाजी ने स्पष्टीकरण देने के लिए जैसे ही अपना मुख खोला वैसे ही माँ फिर बोल पड़ीं कि,”बस भैया अब कोई सफाई नहीं सुननी मुझे। बहुत हुए आपके तर्क-वितर्क। ” और फिर माँ पिताजी पर बरस पड़ीं। बोलीं कि,”आप भी हद करते हैं। अरमान हमारी अपनी औलाद है। अगर वो कोई नासमझी कर रहा है तो हमें बड़े होने के नाते उसको समझने चाहिए। ऐसे कैसे आप इसको अपनी संतान मानने से इंकार कर इसको अपनी संपत्ति में से बेदखल करने का ख्याल अपने मन में ला सकते हैं। सुनिए जी मेरे जीते जी तो यह सब इस घर में नहीं होगा।मेरे जाने के बाद आप दोनों बाप बेटे के दिल में जो आए वो करना।”

बड़े ही कड़क और रूखे स्वर में वे मामाजी से बोलीं कि ,”भैया ! शाम पाँच बजे कि ट्रेन है ना आपकी। मेरे विचार से अब आपको निकलना चाहिए। भाभी को मेरा प्रणाम कहिएगा और बच्चों को मेरा प्यार दीजिएगा। ” अपमान का घूँट पीकर मामाजी भारी मन से घर से निकल गए। इस घटना के बाद मैंने खुद को यह समझा दिया की पत्राचार बीकॉम और शोरूम सम्भालना ही मेरी नियति है। धीरे धीरे समय के साथ मैंने सब चीज़ों के साथ सामंजस्य बिठाना सीख लिया था।

घर से शोरूम और शोरूम से घर बस यही मेरी ज़िन्दगी की दिनचर्या थी। मेरे ज़्यादातर सभी दोस्त ग्रेजुएशन करने के बाद मैनेजमेंट या दूसरी कोई पढ़ाई करने के लिए देश – विदेश के विभिन्न शहरों में थे। और इसी वजह से मैं खुद को बहुत अकेला पाता। हालाँकि मैंने सच्चाई को स्वीकार कर लिया था लेकिन मन के भीतर एक कोने में कुंठा भी धीरे धीरे पनप रही थी।

खैर कुछ समय तक सब कुछ ऐसे ही चलता रहा। सन २००६ में माँ-पिताजी के मन में मेरा विवाह कराने का विचार गुलाटियाँ मारने लगा। मुझे लगा की कम से कम इस बार तो मैं अपनी इच्छा पूरी कर पाऊँगा। दरअसल शोरूम पर संध्या नाम की एक लड़की अक्सर आया करती थी। उसने हमारे शोरूम से काफी इलेक्ट्रॉनिक आइटम ख़रीदे थे। वो जब भी आती तो मेरे मन में एक अजीब सी हलचल मच जाती और मैं उसके निकट जाने के लिए तड़प उठता। उसको देखकर ना जाने मुझे क्यूँ यह लगता था की भगवान् ने इसे मेरे लिए ही भेजा है। वो जब भी आती तो मेरी निगाहें उस पर ही जमी रहतीं। धीरे धीरे उसे मेरा प्यार और तड़प समझ आने लगी और फिर एक दिन अपनी खूबसूरत आँखों का इस्तेमाल करते हुए उसने भी अपनी चाहत का इक़रार मुझसे किया।

फिर क्या था अपने इस अनकहे प्यार को परवान चढ़ाने के लिए मैंने उससे मिलने के लिए आग्रह किया जिसे उसने बिना कोई नखरे दिखाए स्वीकार कर लिया। पहली मुलाकात पर मिलकर पता चला की वो एक पढ़ी लिखी सभ्य और सुशिक्षित परिवार से सम्बंध रखती है। उसके पिताजी रिटायर्ड प्रिंसिपल थे और माताजी भी खुद का प्लेस्कूल चलाती थीं। संध्या खुद भी एक बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी में मैनेजर की पोजीशन पर कार्यरत थी। उसका छोटा भाई डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहा था। उसके बारे में यह सब जानकार मुझे बड़ी ही हिचक सी महसूस हुई की मैं इसे किस मुँह से यह बताऊँ कि मैंने सिर्फ पत्राचार से बीकॉम किया है और पिछले कई सालों से शोरूम संभाल रहा हूँ। खैर बताना तो था ही सो हिम्मत जुटा कर उसको सब सच बताया अपने बारे में भी और अपने परिवार के बारे में भी।

धीरे धीरे हमारी मुलाकातों का सिलसिला बढ़ने लगा। वो जब भी मुझे मिलती एक नयी ऊर्जा पैदा हो जाती थी मेरी अंदर। वो मुझे एक पल के लिए यह महसूस नहीं होने देती की मैं किसी भी मामले में उससे या किसी से भी कम हूँ। उसकी इन सब खूबियों का तो मैं कायल हो गया था। फिर एक दिन मौका पाकर मैंने उसके आगे शादी का प्रस्ताव रखा जिसे शरमाते हुए उसने स्वीकार कर लिया। मेरे घर में वैसे भी मेरी शादी का मुद्दा ज़ोर पकड़ रहा था सो बस मैंने भी मौका पाकर चौका लगा दिया। माँ-पिताजी को संध्या के बारे में सब बतला दिया। सब कुछ सुनकर माताजी थोड़ा अधिक ही उत्साहित हो गयीं। उन्होंने पिताजी को भी संध्या और उसके परिवार से मिलने के लिए मना लिया।

ख़ुशी के मारे मैं तो बस पगलाया ही जा रहा था। और उधर संध्या के माँ-बाप भी मिलने के लिए राज़ी हो गए थे। मुझे लगने लगा की मेरा यह सपना तो बस पूरा ही हुआ समझो। मिलने कि तारीख तय हो चुकी थी। लेकिन मुझे कहाँ पता था कि एक बार फिर फलसफों का दौर चलेगा और संध्या को अपनी जीवनसंगिनी बनाने की ख्वाहिश बस ख्वाहिश ही रह जाएगी।

जिस दिन संध्या के घर हमें मिलने के लिए जाना था उससे ठीक चार दिन पहले मेरे ताऊजी अपने परिवार समेत बिना कोई सूचना दिए हमारे घर आ धमके। वे आए तो सिर्फ दो दिन के लिए थे लेकिन इन दो दिनों ने मेरी ज़िन्दगी की दिशा ही बदल दी। मेरे लाख मना करने के बावजूद पिताजी ने संध्या और उसके परिवार का ज़िक्र ताऊजी और ताईजी से कर दिया। और फिर जो सुनने को मिला वो मेरी समझ से बिलकुल परे था। ताऊजी बोले कि ,”अरे नरेश ! तू पगला गया है क्या ? यह इतनी पढ़ी -लिखी नौकरी करने वाली लड़की का तेरे घर में क्या काम ? वो सुबह काम के लिए निकल जाया करेगी और देर शाम तक आया करेगी तो ऐसे में वो श्यामा (मेरी माँ) कि घर के कामों में मदद कब करेगी ? और फिर वो तो इतनी बड़ी कंपनी में मैनेजर है। अरमान को अपने इशारों पर नचाती फिरेगी और तुम दोनों बुड्ढा – बुड्ढी को अपना नौकर बना देगी। ” यह सब सुनकर पिताजी बोले कि ,”भाईसाहब हमारे घर में तो हर काम के लिए नौकर है तो ऐसे में वो हमसे काम क्यूँ करवाएगी ?” तो इसपर ताईजी बोली कि,”नरेश भैया ! आप और श्यामा बड़े ही सीधे लोग हैं। आप ऐसी लड़कियों को नहीं जानते। इस तरह कि लड़कियाँ पहले तो बड़े घर के लड़कों को फाँस लेती हैं और फिर उसको और उसके पूरे परिवार को खून के आँसूं रुलाती हैं। आप खुद ही सोचिए ना कि वो इतनी पढ़ी लिखी है तो फिर हमारे अरमान में इतनी दिलचस्पी क्यूँ दिखा रही है ? भला ऐसी लड़की को पढ़े लिखे लड़कों की क्या कमी हो सकती है ? हमारा अरमान एक तो सीधा बहुत है और दूसरा वो आपकी इकलौती संतान है। पैसे की और बाकि सब ऐशो-आराम की कोई कमी नहीं है। इतना सब तो वो सारी उम्र नौकरी करके भी नहीं जोड़ पाएगी। ”

यह सब ऊल – जुलूल बातें सुनकर मुझसे चुप नहीं रहा गया और मैं गुस्से से फट पड़ा। मैंने कहा ,”बस कीजिए आप लोग ! घटिया सोचने कि भी कोई हद होती होगी। आप में से कोई भी संध्या से अभी तक मिला नहीं है और बिना मिले ही आपने उसका चरित्र भी बतला दिया। वो बहुत ही संस्कारी और सभ्य लड़की है। मेरे बारे में सब जानती है वो। मैं उसके जितना पढ़ा लिखा नहीं हूँ लेकिन उसे इस बात से कोई परेशानी नहीं है। क्यूँकि उसका मानना है की मैं बहुत काबिल हूँ और अपने बिज़नेस को मैं नयी ऊचाईयों तक ले जा सकता हूँ। और तो और उसने मुझसे खुद कहा है की अगर ज़रूरत पड़ी तो शादी के बाद वो अपनी नौकरी से इस्तीफ़ा दे देगी। ” यह सब सुनकर ताऊजी बोले कि ,”नरेश ! तेरा छोरा तो हाथ से निकल रहा है। अभी इतनी ज़बान चला रहा है और कल को जब वो लड़की ब्याह कर इस घर में आ जाएगी तब तो यह बस उसी की जी-हुज़ूरी करेगा। मेरी मान नरेश कोई बीए या बारहवीं पास खाते – पीते घर की लड़की से इसका ब्याह करवा दे। इसके कई फायदे होंगे। एक तो वो श्यामा की हर काम में बिना जुबां लड़ाए मदद करेगी। फिर बहुत पढ़ी – लिखी नहीं होगी तो घर के या धंधे के हर मामले में अपनी टाँग नही घुसाएगी। और तो और खाते – पीते घर से होगी तो तेरा घर और भी भर देगी। आखिरकार यह सब अरमान और उसकी बीवी के काम ही तो आऐगा। ”

यह सब सुनकर पिताजी मुझे गुस्से में आँखें दिखाते हुए बोले कि ,”नालायक ! सब शिष्टाचार भूल गया है क्या तू ? बड़ों से कैसे बात करते हैं यह क्या फिर से सिखाना होगा तुझे ? चल जा यहाँ से।” मुझे लगा था की माँ मेरा साथ देंगी लेकिन एक बार फिर उन्होंने मौन धारण कर लिया। इस बात ने मुझे और कुंठित कर दिया और मैं थोड़ी देर के लिए घर से बाहर निकल गया।

जब तक ताऊजी – ताईजी घर में रहे तब तक वे अपने फलसफों के कसीदे पढ़ते रहे। उनके जाने के बाद घर में जो तूफ़ान आया उसने मुझे अंदर तक तोड़ दिया। पिताजी ने अपना फरमान सुना दिया की वे और माँ संध्या के घर उससे मिलने नहीं जाएँगे क्यूँकि उसके जैसी लड़की हमारे घर में फिट नहीं हो पाएगी। मेरी माँ-पिताजी के साथ बहुत कहासुनी हुई लेकिन अंत में जीत हुई फलसफों की ही और मैं एक बार फिर हार गया। किसी तरह हिम्मत जुटा कर मैंने संध्या को यह वज्रपाती खबर फ़ोन पर दी। उसने मुझसे इस सब के पीछे का कारण पूछा। मैंने टालना चाहा लेकिन वो अड़ गई और बोली की जब तक मैं उसको सही वजह नहीं बताऊँगा वो मुझे फ़ोन नहीं रखने देगी।

बड़े ही भारी मन और शर्म के साथ मैंने उसको सब बताया कि किस तरह ताऊजी – ताईजी ने अपने फलसफे सुनाकर माँ – पिताजी का ब्रेनवाश किया। यह सब सुनकर भर्रायी आवाज़ में वो बोली कि ,”अरमान ! किसी को भी दोष देना बेकार है। आपके माँ-बाप कोई बच्चे नहीं हैं जिनका ब्रेनवाश इन फालतू के फलसफों से किया जा सके। आपके माँ-बाप ने यह फैसला इसलिए लिया क्यूंकि शायद मन ही मन में वे भी ऐसा ही कुछ चाहते थे। आपको भूलना मेरे लिए आसान तो नहीं होगा और मैं यह कैसे करुँगी यह भी मुझे नहीं पता। पर चलिए जो हुआ वो कम से कम रिश्ता जुड़ने से पहले ही हो गया। अगर बाद में होता तो मेरी और मेरे परिवार की बहुत बदनामी होती। आप से मेरे सिर्फ इतनी इल्तजाह है कि अब आप ना मुझे कभी फ़ोन करें और ना ही मिलने कि कोशिश करें। हम दोनों के लिए अब यही ठीक होगा। मैंने आपको सच्चे दिल से चाहा है इसलिए आपके या आपके माँ-बाप के लिए मेरे दिल में कोई गुस्सा नहीं है। मैं चाहती हूँ कि आप जहाँ भी रहे जिसके भी साथ रहे हमेशा खुश रहें। आज हम आखरी बार बात कर रहें हैं। आई विश यू आल द बेस्ट इन योर लाइफ। गुडबाय अरमान। ”

“गुडबाय अरमान” उसके मुख से निकले यह आखरी दो शब्द ना जाने कितने देर तक मेरे कानों में गूँजते रहे और मैं जड़वत सा फ़ोन को कान पर लगाए खड़ा रहा। मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था की संध्या अभी से और आज से अब मेरी ज़िन्दगी का हिस्सा नहीं है। मुझे ऐसा लगा की जैसे कि मैं ज़िंदा तो हूँ लेकिन साँस नहीं ले पा रहा हूँ। उन कुछ पलों के लिए मुझे लगा की मेरी ज़िन्दगी का कोई मतलब ही नहीं रहा।

मैं अभी अपने इस दर्द से झूझ ही रहा था की उधर मेरे माँ-बाप ने एक पैसे वाले घर की लड़की से मेरा रिश्ता तय कर दिया। लड़की दिखने में साधारण सी थी और मेरी ही तरह उसने भी पत्राचार से बीए किया था। माँ-पिताजी को लगा की हमारी जोड़ी एकदम परफेक्ट है। मैं संध्या को भूल ही नहीं पा रहा था और ऐसे में किसी और लड़की से शादी करके मैं उसको धोखा नहीं देना चाहता था। सो मैंने मौका पाकर योगेश्वरी (मेरी होने वाली पत्नी) को सब सच बता दिया। मुझे लगा की यह सब सुनकर वो मुझसे शादी करने के लिए मना कर देगी लेकिन उसकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी।मैंने कहा भी की मैंने अपने जीवन में अगर किसी को बेहद चाहा है तो वो सिर्फ संध्या ही है और उसका स्थान मेरे जीवन में कोई और नहीं ले सकता। इतना सब सुनने के बाद योगेश्वरी ने मुझसे कहा कि ,”संध्या आपका अतीत थी और मैं आपका आने वाला कल हूँ। कभी न कभी तो मैं आपके जीवन में और दिल में अपने लिए जगह बना ही लूँगी। ”

लेकिन पता नहीं क्यूँ उसका जवाब सुनकर मुझे ज़रा भी हैरानी नहीं हुई। ऐसा लग रहा था जैसे कि मेरे अंदर की सब संवेदनाएँ और अनुभूतियाँ दम तोड़ चुकी हैं। बड़ी ही नीरसता के साथ और बेमन से मैं योगेश्वरी के साथ विवाह बंधन में बंध गया। माँ-पिताजी तो अपनी विजय पर फूले नहीं समा रहे थे। उनको लग रहा था की वे संध्या को मेरे दिल से बाहर करने में कामयाब हो गए। और योगेश्वरी जैसी पैसे वाली घर की लड़की को अपने घर की बहू बनाकर तो उन्होंने जैसे कोई किला ही फ़तेह कर लिया था। योगेश्वरी के घर में कदम रखते ही माँ ने पोते का मुँह देखने कि रट लगा ली। योगेश्वरी ने भी शरमाते हुए उनको वादा कर दिया कि जैसा वो चाहती हैं वैसा हो होगा।

जब मैंने उसको पूछा की उसने माँ से यह वादा क्यूँ किया तो उसने भी अपने फलसफों के कसीदे पढ़ने शुरू कर दिए। बोली कि ,”देखिए ! अगर आप मेरे साथ कोआपरेट नहीं करेंगे तो दुनिया कल को हम दोनों पर ही उँगली उठाएगी। कोई कहेगा कि आप में कमी है तो कोई कहेगा की मुझमे कमी है। जीना हराम हो जाएगा हम दोनों का। फिर लोग आपके और मेरे माँ-बाप को भी ताने मारेंगे।” और एक बार फिर मैंने इन फलसफों के आगे अपने घुटने टेक दिए। ना चाहते हुए भी मैंने उसके साथ सम्बंध बनाए ताकि माँ अपने पोते का मुँह देख सके।

शादी को पांच साल हो चुके थे पर हम अब भी संतान सुख से वंचित थे। मेडिकल जाँच कराने पर पता चला कि हम दोनों में ही कोई ना कोई कमी थी पर लाइलाज नहीं थी । जब घर पर माँ-पिताजी को यह बात हमने बतायी तो उन्होंने हाहाकार मचा दिया और फिर शुरू किया फलसफे सुनाने का एक और दौर। माँ बोली कि ,”अगर मुझे पहले ही पता लग जाता कि यह बच्चा नहीं जन सकती तो मैं कभी भी अपने बेटे की शादी इससे नहीं करती। रिश्तेदारों ने पहले ही जीना हराम किया हुआ है और अब किस मुँह से यह बताऊँ की मेरी बहू बच्चा नहीं जन सकती। ” तभी मैंने तपाक से कहा कि ,”माँ ! लगता है आपने ठीक से सुना नहीं। मैंने कहा की डॉक्टर ने हम दोनों में ही कोई ना कोई कमी बतायी है तो बच्चा नहीं होने के लिए सिर्फ योगेश्वरी अकेली ज़िम्मेदार नहीं है। और हम दोनों अपना इलाज कराएँगे तो सब ठीक हो जाएगा। ” इस पर पिताजी बोले ,”चुप कर जोरू के ग़ुलाम ! तू तो एक दम भला चंगा है। इस नालायक में ही सब कमियाँ हैं। शादी के पहले से ही बहुत कमज़ोर दिखती थी पर मुझे लगा थी की शादी के बाद यह खा-पीकर ठीक हो जाएगी लेकिन यह तो ठीक हो ही नहीं सकती। अब हम जात-बिरादरी में क्या मुँह दिखाएँगे ? ”

मैं और योगेश्वरी चुपचाप खड़े सारा तमाशा देखते रहे। योगेश्वरी कुछ अधिक ही हैरान और परेशान हो गई थी। और होती भी क्यूँ ना। जो लड़की अभी तक माँ-पिताजी की आँखों का तारा बनी घूमती थी अचानक ही वो इनकी सबसे बड़ी दुश्मन बन गई थी। वे दोनों उसमे दुनिया-जहान कि कमियाँ ढूँढ रहे थे। समय के साथ माँ-पिताजी का बर्ताव उसकी तरफ बद से बदतर होता चला गया। बात बात में उसका तिरस्कार करना , उसे ताने देना और छीटाकंशी करना माँ की आदत बन गई। मैं विरोध करता तो मुझे डाँटकर चुप करा दिया जाता। योगेश्वरी भी आख़िर कब तक लिहाज़ करती और फिर एक दिन माँ के तानों का उसने बराबर करारा जवाब दिया।

छः महीने के इलाज के बाद फिर से मेरी और योगेश्वरी की पूरी मेडिकल जाँच हुई। रिपोर्ट्स आने पर जब हम डॉक्टर से दोबारा मिले तो उसने बताया की योगेश्वरी की हालत में बहुत सुधार है लेकिन मेरी ट्रीटमेंट से मुझे ना के बराबर ही फायदा हो रहा है। डॉक्टर ने मुझे ट्रीटमेंट को और छः महीने जारी रखने के लिए कहा। और जब मैंने पूछा कि क्या और छः महीने इलाज कराने से सुधार होने की कोई आशा है तो उन्होंने कहा की चान्सेस बहुत कम हैं लेकिन उम्मीद पर दुनिया कायम है और मुझे उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। यह सब सुनकर मैंने ट्रीटमेंट आगे जारी रखने के लिए मन कर दिया।

डॉक्टर से मिलने के बाद जब हम घर पर पहुँचे तो हमारे घर में घुसते ही माँ ने संताप करना शुरू कर दिया। यह सब देखकर योगेश्वरी चुप नहीं रह सकी । माँ ने जैसे ही उसपर अपने तानों के बाण छोड़े वैसे ही उसने रौद्र रूप धारण कर लिया और बोली कि ,”बस कीजिए मम्मीजी ! बहुत हुई आपकी बकवास। मुझमे जो कमी थी वो ट्रीटमेंट से अब लगभग ठीक हो चुकी है पर आपके बेटे कि हालत में कोई सुधार नहीं है। मैं तो और दो-तीन महीने में बिलकुल ठीक हो जाऊँगी लेकिन आपका बेटा इस जन्म में बाप बनने की क्षमता हासिल नहीं कर पाएगा। और यह जो आप मुझे बार बार धमकी देती हैं की अपने बेटे कि दूसरी शादी करवा देंगी आप तो जाओ करवा लो। आप से जो बन पड़ता है वो कर लो। अरे आप मुझे क्या निकालेंगी अपने घर से मैं आज और इसी वक़्त आपके इस घर को छोड़ती हूँ। मेरा वकील तलाक के कागज़ भिजवा देगा यहाँ। ”

और गुस्से में दनदनाती हुई वो कमरे में चली गयी। मैंने बहुत ही नफरत भरी नज़रों से माँ की तरफ देखा और फिर अपने कमरे की और रुखसत हो गया।
कमरे में घुसते ही मैंने देखा की योगेश्वरी अपना सारा सामान अटैची और बैग में भर रही है। यह देखकर ना तो मुझे कोई हैरानी हुई और ना ही कोई तकलीफ। ना ही उसको रोकने का मन हुआ क्यूँकि उसको देखकर यह साफ़ पता चल रहा था की वो मुझसे अलग होने का मनन बहुत पहले ही बना चुकी थी। जब उसने अपनी पैकिंग पूरी कर ली तब वो मेरी तरफ देख कर बोली कि ,”अरमान ! मेरे दिल में आपके लिए कोई रोष या गुस्सा नहीं है लेकिन आपके माँ-बाप का बर्ताव निंदनीय है। और बुरा मत मानिएगा सच तो यही है की मैं अगर आपके साथ और रही तो मुझे संतान सुख कभी प्राप्त नहीं होगा और मुझे बाँझ कहलाने का या आपके घरवालों या रिश्तेदारों के ताने सुनने का कोई शौक नहीं है। इसलिए बेहतर होगा की हम अलग हो जाएँ। मेरे माँ-बाप के घर में किसी चीज़ की कोई कमी नहीं है इसलिए मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए बस इतना ज़रूर चाहती हूँ की जब तलाक के कागज़ आपको मिलें तब आप बिना किसी हील-हुज्जत के उनपर दस्तखत कर दें। ” मैंने भी हाँ में सिर हिला दिया। और इसके बाद अपना सब सामान लेकर बड़ी ही अकड़ के साथ वो घर से निकल गयी।

माँ-पिताजी तो बस फटी आँखों से उसको जाते हुए देखते ही रह गए। घर में चुप्पी सी पसर गई थी। योगेश्वरी के जाने के बाद अगले दिन सुबह उसके पिताजी अपने कुछ करीबी लोगों के साथ हमारे घर आ धमके और माँ-पिताजी को उनके बुरे बर्ताव के लिए खूब लताड़ा। और इतना ही नहीं उन्होंने यहाँ तक कहा की मैं एक बंजर ज़मीन हूँ जिस पर कभी फूल नहीं खिल सकते। और इस बार मैं मूक दर्शक बना सब देखता रहा और सुनता रहा। उनके जाने के बाद पिताजी ने मुझे डाँटा और बोले कि ,”बुत बना सब देख और सुन रहा था। शर्म नहीं आयी तुझे ? वे लोग तुझे और हमें कितना अपमानित कर रहे थे और तू कोने में खड़ा होकर तमाशा देख रहा था। चूड़ियाँ पहन ली थी क्या तूने ? एक मर्द होकर तू अपनी मर्दानगी पर छीटाकंशी कैसे सह सकता है ? हे भगवान ! कौन से पाप किए थे हमने जो तूने हमें इसके जैसी औलाद दी ?” तभी मैंने तपाक से कहा कि ,” नहीं पिताजी पाप आपने नहीं मैंने किए थे जिसके फलस्वरूप मुझे इस घर में जन्म लेना पड़ा। ”

माँ-पिताजी हैरानी से और गुस्से से मुझे घूरने लगे। उनकी ऐसी प्रतिक्रिया देखकर मैं फिर बोला कि ,”मुझे घूरने से कुछ नहीं होगा। आज जो भी कुछ हुआ वो आपके अपने कर्मों का नतीजा था। और मैं बाप नहीं बन सकता इस सच्चाई को आप दोनों जितना जल्दी स्वीकार कर लेंगे उतना ही आप के लिए बेहतर होगा। आज पहली बार संध्या से अलग हो जाने की ख़ुशी हो रही है। अगर मुझसे शादी करती तो कभी माँ बनने का सुख प्राप्त नहीं कर पाती और जीवन भर आपके ताने सहती। ”

अगले कुछ दिनों में मुझे तलाक के कागज़ मिल गए जिन पर मैंने बिना कोई बखेड़ा किए बिना दस्तखत कर दिए। और इस सब के बाद अगले सात महीनों में मैं और योगेश्वरी कानूनी रूप से हमेशा के लिए अलग हो गए। थोड़ा समय शांति बनाए रखने के बाद माँ-पिताजी ने फिर से लड़की देखने का कार्यक्रम शुरू कर दिया। हर लड़की वाले को मेरे तलाक होने की कोई न कोई नयी वजह बतायी जाती। पर इस बार मैं घुटने नहीं टेक सकता था। आखिरकार किसी मासूम की ज़िन्दगी ख़राब करने का पाप मैं अपने सिर पर नहीं ले सकता था। वो जिस भी लड़की को मुझसे मिलवाते मैं उसको मेरे तलाक होने की सही वजह बता देता और फिर वो लड़की वाला लौट कर नहीं आता। यह सब नाटक मेरे तलाक होने के बाद दो साल तक चलता रहा। लेकिन दुखद बात तो यह थी की इतना सब कुछ होने के बाद भी माँ-पिताजी अपने फलसफे सुनाना नहीं भूलते। अक्सर मुझसे कहते कि ,”सच्चाई की मूरत बन कर कुछ नहीं होगा। यह पहाड़ जैसा जीवन अकेले नहीं काटा जा सकता। और फिर रिश्तेदार भी तरह तरह की बातें बनाने लगे हैं। अपनी नहीं तो हमारी इज्ज़त की तो फिक्र कर। रिश्तेदार,दोस्तों और पड़ोसियों के सवालों के जवाब देते देते थक गए हैं हम अब। ”

इसी बीच माँ को कहीं से खबर मिली कि योगेश्वरी की दूसरी शादी हो गई है और उसको संतान सुख भी प्राप्त हो गया है। यह सुनकर तो माँ-पिताजी के सीने पर जैसे साँप लोट गए लेकिन मुझे एक अजीब से सुख की अनुभूति हुई और मन ही मन भगवान् से दुआ की योगेश्वरी अपने नए जीवन में सदा खुश रहे। यह खबर सुनने के बाद तो मेरी दूसरी शादी करवाने का जैसे जुनून ही सवार हो गया माँ के सिर पर। हर हफ्ते दो से तीन लड़कियाँ देखीं जातीं लेकिन मैं भी अड़ा रहा और किसी भी बेफ़िजूल के फलसफों में नहीं उलझा। मैं हर लड़की को यह सच बता देता की मुझसे शादी करने के बाद वो हमेशा के लिए संतान सुख से वंचित हो जाएगी।

आज इन सब घटनाओं को कई वर्ष बीत चुके हैं। मेरा जीवन आज भी घर से शोरूम और शोरूम से घर तक ही सीमित है। माँ – पिताजी आज भी अपने फलसफों में कहीं उलझे हैं और मुझे भी उलझाने का प्रयास करते रहते हैं लेकिन अब और नहीं। फलसफों में बर्बाद हुई मेरी ज़िन्दगी एक पुरानी खटारा गाड़ी की तरह रगड़ रगड़ कर चल रही है और अगर आज मैं कुछ चाहता हूँ तो वो यह है की बस अब यह रुक जाए।

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