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Invaluable Mother’s Love

Published by Durga Prasad in category Family | Hindi | Hindi Story | Social and Moral with tag Cigarette | death | money | Mother | parents

माँ की ममता का कोई मोल नहीं- Invaluable Mother’s Love-Hindi story on Mother’s love. My mother was always there for me. I used to tell many lies to my parents but still my mother never scolded or beat me.

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Social Short Story – Invaluable Mother’s Love
Photo credit: taylorschlades from morguefile.com

मैं प्रखण्ड कार्यालय में चपरासी हूँ। मुझे चपरासी होने का जरा सा भी मलाल नहीं है क्योंकि जैसा मैंने कर्म किया उसी के अनुरूप मुझे फल मिला। मेरे माता – पिता ने मुझे इंजीनियर या डाक्टर बनाने के सपने देखे थे , लेकिन मैंने उनके सपनों को साकार होने नहीं दिया। मैं हमेशा झूठ बोलता रहा और उनकी आंखों में धूल झोंकता रहा। मैं नवीं कक्षा में अनुतीर्ण हो गया। मेरे चेहरे पर अनुतीर्ण होने का कोई गम न था। मैं नित्य की भांति मौज – मस्ती करता रहा। उस दिन मैं दिन-भर घूमता रहा और देर रात को घर पहुंचा। मेरे माता – पिता को मेरे अनुतीर्ण होने का समाचार पहले ही मिल चुका था। जब मैंने घर के दरवाजे पर पांव रखे तो उन्होंने मुझे आड़े हाथों लिया और  जमकर डाँट पिलाई। मैंने उनके डांट-फटकार को बहुत ही सहजता से लिया।

पिताजी कभी – कभार आपे से बाहर होने पर मेरे गाल में दो-चार चांटे जड़ दिया करते थे। मैंने इसे कभी बूरा नहीं माना , क्योंकि मैं कसूरवार था। पिताजी का घर से निकाल देने की चेतावनी मैं कई बार सुन चुका था। एक बार तो उन्होंने मेरे हाथ – पांव बांधकर आँगन के कुंए में झूला दिया था और रस्सी तब तक छोड़ते गये जब तक मेरा सिर पानी तक नहीं पहुंचा। माँ मेरे बचाव में हमेशा आ धमकती थी और ऐसी हरकतों पर पिताजी को खरी – खोटी सुनाने में बाज नहीं आती थी।

सच पूछिये तो माँ की ममता के आगे सबकुछ मिथ्या है। मेरी माँ ने कभी भी मुझे मारा -पीटा नहीं, न ही कभी कोई शिकायत की। पिताजी माँ के इस व्यवहार से नाराज रहते थे और अक्सराँ कहा करते थे कि उसने (माँ ने) ही मुझे बिगाड़ कर रख दिया है। हकीकत क्या थी, इससे मैं कोसों दूर था। मैं इतना ढ़ीठ हो गया था कि इन सभी छोटी – मोटी बातों का प्रभाव मुझ पर नहीं पड़ता था। कुएं से रस्सी खींचकर मुझे जब निकाला गया तो माँ दौड़कर मेरे पास आ गई थीं और मुझे दुलारते हुए अपने सीने से लगा ली थीं। यही नहीं पिताजी को खरी – खोटी सुनानी शुरू कर दी थीं। पिताजी समझदार थे, इसलिए वे ऐसे तनाव के क्षणों में लाल बाजार निकल जाया करते थे। फिर वे शाम को ही लौटते थे – ग्लानि और पश्चाताप की अग्नि में झूलसे हुए। उस समय माँ भी सहज हो जाया करती थी – ऐसा जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं।

उस दिन से पिताजी ने मुझे पढ़ने-लिखने के लिए कभी कुछ नहीं कहा। जब बैठक में बैठा रहता था तो वे बेडरूम में चले जाते थे और जब मैं बेडरूम में रहता था तो वे बैठक में ही समय गुजारना बेहतर समझते थे। मुझे एक बात साफ – साफ समझ में आ गई थी कि पिता जी मुझसे खफा हैं और मुझसे मुखातिब होना मुनासिब नहीं समझते। मोटे तौर पर उन्हें मेरे चेहरे से भी नफरत थी।

मेरी माँ तो ममतामयी थी। वह हरवक्त मेरी ही चिन्ता में निमग्न रहती थी। मेरी किताबों को सहेजकर सही जगह रखना, इधर-उधर फेंके हुए पेंट-शर्ट इत्यादि को धोकर -सुखाकर एवं आयरन कर हैंगर में टांग देना, समय पर मेरे लिए जलपान आदि तैयार कर देना – पढ़ने – लिखने के लिए मेरे मन में उत्साह जगाते रहना – उनकी दैनिक दिनचर्या बन गई थी। मैं इतना लापरवाह बन गया था कि माँ की भी बातों का मैं परवाह नहीं करता था।

मेरी न कोई बहन थी, न ही कोई भाई। मैं एकलौता था. स्वभावतः माँ अपनी सारी ममता मेरे उपर ही उढ़ेल दिया करती थी। माँ का अत्यधिक लाड़ – प्यार मेरे बिगड़ैल बनने में कितना हद तक सहायक था – इस ओर मेरा ध्यान कभी नहीं गया। ऐसी बातें मुझे अपने पड़ोसियों से यदा – कदा सुनने को मिल जाया करती थी। आज मुझे एहसास होता है कि सारा दोष मेरा ही था क्योंकि मेरी मन ही नहीं सभी माँ अपने बच्चों का लड़ – प्यार करती है . हाँ यह बात निर्विवाद सत्य है कि कोई माँ ज्यादा तो कोई माँ कम.

मैंने आज तक किसी काम के लिए पिताजी से पैसे नहीं माँगे। इसकी वजह चाहे जो रही हो, लेकिन एक बात मेरी समझ में आ गई थी कि पिताजी मुझे पैसा देते वक्त शंकित रहते थे कि मै उन पैसों को कहीं मौज – मस्ती में न उड़ा दूँ। पर माँ के साथ वो बात नहीं थी। पिताजी पैसा देने के पूर्व दर्जनों सवाल पूछा करते थे , वहीं माँ बेहिचक पैसा निकालकर दे दिया करती थीं। जब वे बातें मैं याद करता हूँ तो मुझे एहसास होता है कि मातृत्व का वो मिशाल किसी कथा या कहानी में भी ढ़ूंढ़ने से नहीं मिलेगी। उन दिनों एक-दो आने बड़ी रकम हुआ करती थी। जब कभी मैंने चार आने माँगे तो माँ ने मुझे आलमारी की चाभी पकड़ा दी। जब मैं सिक्कों का ढे़र देखता था तो मैं चार आने की जगह एक-दो रुपये निकाल लिया करता था। मेरे चेहरे का भाव भाँपकर माँ समझ जाती थी कि मैंने कुछ ज्यादा ही पैसे निकाल लिये हैं। वह मेरी और देखकर मात्र मुस्करा देती थी। मैं आलमारी से पैसे निकालते समय काफी सतर्क रहता था। एक चवन्नी अपनी मुट्ठी में रखता था और बाकी की चवन्नियां  हथेली पर .

मेरी माँ मेरे गाल पर सस्नेह एक हल्की चपत लगाती हुई मेरी ओर अपलक निहारती हुई बोली, ‘‘ये क्या हैं, क्या तुम समझते हो कि मैं तुम्हारी हरकतों से अनजान  रहती हूँ। माँ की नजरों को कोई भी सन्तान धोखा नहीं दे सकती। लेना ही था तो पूछकर लेते। कभी भी तुम्हारी माँ ने तुम्हें पैसे देने से इन्कार किया है क्या ? या कभी हिसाब माँगा है क्या ? सबकुछ तो तुम्हारा ही है. तुम्हारे सिवा मेरा कोई और है क्या ?”

बात भी सही थी,  व्यर्थ की दलील देना या अनावश्यक बहस करना माँ के मन को मात्र चोट पहुंचाना था.

माँ की बातों में इतना वजन था कि मैं इसका भार सह न सका। मेरा सिर लज्जा एवं पश्चाताप से घुटनों के बीच समा गया था। मैं अन्दर से इतना दुर्बल था कि मेरे लिए उठकर खड़ा होना मुश्किल लग रहा था। मुझे पहली बार अपनी गलती का एहसास हुआ था। मैं उस दिन माँ के चरणों में गिरकर क्षमा – याचना की तथा दिनभर रोता रहा और माँ अपनी ममतामयी आँचल से मेरे आँसू पोछती रहीं। उस समय मेरी मनःस्थिति और अधिक दयनीय हो गयी, जब माँ ने मुझे न कोसकर अपने आपको कोसती रहीं कि बेवजह उसने मुझे कष्ट पहुंचाई . यदि वह जानती कि मेरी जेब में हाथ डालकर पैसे निकालने से इतनी बड़ी बात हो सकती है , तो वह कभी भी नहीं निकालती . मैं पूर्णरूपेण आश्वस्त था कि माँ ने हंसी – मजाक में मेरी जेब की तलाशी ली थी, न कि मुझे अपमानित करने के ख्याल से। मैंने अनुभव किया कि माँ भी मुझे रोते देखकर पश्चाताप में नम हो गयी थीं। माँ दुःख या कष्ट के समय आँसुओं को अन्दर में ही पी जाती थीं , कभी भी बाहर निकलने नहीं देती थीं। वह नहीं चाहती थी कि उनके आंसू दूसरों के दर्द के कारण बने। ईश्वर ने माँ में दुःख सहने की क्षमता कूट-कूट कर भर दी थी। ऐसे अवसरों पर मैं माँ की आँखों में आँसू देख नहीं सकता था , इसलिए मैं अपने साथियों की टोह में बाहर निकल जाया करता था। मुझे पढ़ने – लिखने में मन नहीं लगता था। मेरे साथी भी उसी दर्जे के थे , जिन्हें पढ़ने-लिखने से कोई सरोकार नहीं था। मैं इन लड़कों की सोहबत में सिगरेट भी पीने लगा था।

मुझे धीरे-धीरे सिगरेट पीने की लत लग गई। जब क्लास में पढ़ाई होती थी तो हमलोग किसी न किसी बहाने गुलेन बाबू का बगान या खुदिया नदी के पूल पर मटरगस्ती करते थे और एक दो पाकिट चार मीनार ( सिगरेट का एक ब्रांड ) फूंक डालते थे। बरसात के दिनों में तो हमारा अड्डा पूल पर ही होता था। हम पूल से उफनते हुए जल को घंटो देखा करते थे। एक दिन गजब ही हो गया। एक आदमी पानी में दहता हुआ जा रहा था। मरा था या जिन्दा हमें मालूम न था। मैं कमीज उतार कर नदी में छलांग लगाने ही वाला था कि धीरेन ( मेरा एक सहपाठी ) ने मुझे पकड़ लिया और खरी – खोटी सुनाई।

जब पिताजी को इस घटना की जानकारी हुई तो मुझे सुनाते हुए उन्होंने माँ से शिकायत की और कहा, ‘‘आज तो तुम्हारा लाडला कमाल ही करनेवाला था, एक बहती हुई लाश को बचाने पुल से खुदिया नदी में छलांग लगाने जा रहा था। वो तो भाग्य अच्छा था कि धीरेन ने उसे पकड़ लिया और ऐसा करने से रोका नहीं तो पता नहीं ….  माँ ने पिताजी के मुँह पर अपनी हथेली रख दी थी और बोली‘‘, अशुभ मत बोलिये! लायक या नालायक मेरा तो बस एक ही बेटा है।‘‘

पिताजी पुनः उबल पड़े थे ‘‘, गुलेन बाबू का बगान और खुदिया नदी ने कितने विद्यार्थियों की जिन्दगी बर्बाद कर दी है और तुम्हारा लाडला नालायकों के साथ ज्यादा वक्त वहीं गुजारता है। स्कूल में पढ़ता-लिखता नहीं। यदि तुम्हें मुझ पर यकीन न हो तो धीरेन के पिताजी से पूछ सकती हो जिन्होंने इन सबों को स्कूल के समय पूल पर सिगरेट के धुएं से छल्ले बनाते हुए कई बार अपनी आँखों से देखा है।‘‘

पिताजी की बात सच थी। इसलिए माँ प्रतिकार में कुछ नहीं बोली। वह मेरी तरफ कुछ कहने के लिए मुड़ी ही थी कि मैं चुपचाप अपनी गलती स्वीकार करते हुए घर से बाहर  निकल जाने में ही भला समझा।

असल में मुझे सिगरेट पीने की तलब हो रही थी। पिताजी मेरे मन की बात जान गये थे। वे अपने को रोक नहीं सके और बोले, ‘‘अब देखो, लाडला सिगरेट पीने लाल बाजार चला, कुछ पैसे हो तो दे दो।‘‘ माँ जबाव देना उचित नहीं समझी – मौन ही रही, लेकिन मैं पिताजी की बात को अनसूनी करते हुए तेज कदमों से बाजार की ओर चल दिया।

मुझे याद है पिताजी ने माँ को यदा-कदा भली – बूरी बातें सुनाया करते थे। पिताजी आवेश में जब भी कुछ बोलते थे तो माँ एक समझदार पत्नी की तरह जबाव देकर उलझना उचित नहीं समझती थीं.  सामान्यतः ऐसे अवसरों में वह चुप रहना ही बेहतर समझती थीं। ऐसे भी एक आदर्श गृहिणी को कोई भी ऐसा काम नहीं करना चाहिये जिससे घर की शांति भंग हो और सुख – चैन जाता रहे | घर में जो भी असामान्य या अशोभनीय स्थिति पैदा होती थी, उसके लिए मैं ही, जैसा मुझे आज एहसास होता है, जबावदेह था। माँ ने मेरे लिए कितना कुछ सहा – झेला, इसे व्यक्त करने के लिए कलम की स्याही भी कम पड़ सकती है।

माँ के पास मुहल्ले की महिलायें आती रहती थीं और मेरे बारे में ही बैठकर घंटों बातें किया करती थीं। वे ऐसा सोचती थी कि लड़के जब रास्ता से बेरास्ता होने लगे तो उसकी शादी करवा देनी चाहिए। हो सकता है शादी के बाद लड़का अपनी जिम्मेदारी को समझे और सुधर जाय।

जब काकी माँ ने यह सुझाव मेरी माँ को दिया तो यह सलाह माँ को जँच गई। माँ ने पिताजी से इस संबंध में बात की और मेरी शादी के लिए राजी कर लिया।

मैं बचपन से ही घुमक्कड़ स्वभाव का लड़का था। इसलिए शादी के बन्धन में जकड़ना नहीं चाहता था, लेकिन माँ के बार-बार कहने से मैं मोम की तरह पीघल गया और ‘हाँ कर दी। फिर क्या था, बारात निकली, शहनाई बजी और घर में दुल्हन के रूप में सावित्री के आने से घर की खोई हुई खुशी फिर से लौट आई। अब मैं ज्यादातर घर में ही वक्त बिताने लगा। घर – खर्च बढ़ जाने से मेरा मन पढ़ाई – लिखाई से उचटकर रोजी-रोटी की जुगाड़ की तरफ चला गया। समय गुजरता गया और मात्र दो वर्षों में ही मैं दो बच्चों का बाप बन गया। आँगन में बच्चों की किलकारियां गूंजने लगी। मैं नौकरी की तलाश में इधर-उधर चक्कर काटने लगा। अन्ततोगत्वा मुझे चपरासी की नौकरी मिली और मेरा पदस्थापन गांव के ही प्रखण्ड कार्यालय में हो गया। जिम्मेदारी बढ़ने से एवं समाज की मुख्यधारा में जुड़ जाने से मेरे स्वभाव एवं व्यवहार में भी आशातीत परिवर्तन हुआ। मुहल्ले की औरतें, जो मेरी दिन-रात आलोचना किया करती थीं, अब वे ही मेरी प्रशंसक बन गई और अपने बिगड़ैल बच्चों को मेरा उदाहरण देकर सुधारने का प्रयास करने लगीं।

घर में सुख-शांति का माहौल रहता था , लेकिन एक दिन माँ अचानक आँगन में फिसलकर गिर गई और पक्षाघात का शिकार हो गयी। वह पहले से ही मधुमेह एवं रक्तचाप की रोगी थी। यथोचित ईलाज करवाने के बावजूद वह खटिया पकड़ ली। बेड-सोर हो जाने के बाद डॉ. मानू ने भी जबाव दे दिया।

मध्यरात्रि का समय था। माँ की तबियत और खराब हो गयी। उसने सावित्री को बुलाकर पास बैठा ली। दोनों बच्चों का हाथ पकड़कर बोली, ‘‘साबो, मैं तो हीरू को डाक्टर या इंजीनियर नहीं बना सकी, लेकिन तुम इन दोनों बच्चों को अवश्य बनाना और मेरा सपना को पूरा करना। पिताजी का ख्याल रखना। वे दिल के इतने बूरे आदमी नहीं हैं।अब तुम्हारे भरोसे छोड़ के जा रही हूँ . अब मेरा बुलावा आ गया है। अब वह बहुत सुधर गया है। भला – बूरा समझने लगा है। मैं उसकी माँ होकर उतना कुछ नहीं कर पाई, मुझे विश्वास है तुम पत्नी होकर वह सब उसके लिए कर पायेगी जिससे वह जीवन में खुश रहे।”

पिताजी माँ के सिरहाने खड़े होकर सब कुछ सुन रहे थे और भीतर – ही – भीतर द्रवित हो रहे थे। उन्होंने माँ की अस्त होती आंखों में झांकने की चेष्टा कई बार की, लेकिन असफल रहे , क्योंकि माँ की आंखें मेरे चेहरे पर ही टीकी हुई थीं। पिताजी वहां से हट गये और बाहर चबुतरे पर निढ़ाल होकर चिन्तामग्न हो गये।

माँ एकटक मुझे ही निहार रही थी मानों कुछ कहना चाहती हो। मुझे अपने पास बुलाई और मेरे चेहरे को अपने दोनों हथेलियों से दुलारती हुई मेरे दोनो हाथों को अपने हाथों से पकड़ी रहीं।

एकाएक माँ के हाथों की पकड़ ढ़ीली पड़ गई। हिचकियां दो – तीन बार लगातार आई और गर्दन लटक गई। आंखों की पुतलियाँ थम – सी गयी। मुझे समझने में देर नहीं लगी कि माँ अब इस दुनियां में नहीं रही – हमें छोड़कर सदा – सर्वदा के लिए चली गयी-एक अज्ञात लोक में जहां से आदमी फिर कभी लौटकर नहीं आता। उनकी इच्छानुसार खुदिया नदी के तट पर उनका दाह – संस्कार कर दिया गया।

पिताजी खोये-खोये से रहने लगे। उनकी अवस्था मुझसे देखी नहीं जाती थी। सावित्री उनका भरपूर ख्याल रखती थी। मैं तो इतना बड़ा गुनाहगार था कि मैं पिता जी से नजरें नहीं मिला पाता था.

मैंने परिवार को समेटने के लिए तथा माँ का सपना साकार करने के लिए जी – तोड़ मेहनत की। सावित्री ने भी माँ को दिया हुआ वचन पूरी निष्ठा से निभाई । सच मानिये तो  बच्चों के पीछे वह सती हो गयी। हमारी दिन-रात की मेहनत एवं अटूट विश्वास ने अन्तोतगत्वा रंग लाया।  हमनें लोकल स्कूल से हटाकर दोनों बच्चों का दाखिला दिल्ली पब्लिक स्कूल में करवाया.  हमारे दोनों बच्चें पढ़ – लिखकर इंजीनियर बने और वे बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत हुये।

सावित्री एवं बच्चे पिताजी का पूरा ख्याल रखते हैं – उन्हें खुश रखने में कोई कमी नहीं करते , लेकिन माँ के स्वर्गवास हो जाने के पश्चात उनके जीवन में जो अवांछनीय खालीपन हो गया, उसे आजतक हम नहीं भर पाये।

उस करूणामयी-ममतामयी माँ को मैं आज तक भूला नहीं पाया हूँ। रोज दिन ढ़लते ही पूर्व की भांति मैं जब अकेले में खुदिया नदी के पुल पर रेलिंग के सहारे खड़े होकर सिगरेट का कश लेता हूँ तो ऐसा आभास होता है कि माँ मेरे सामने खड़ी है और मुझसे कह रही हो ,‘‘जब सिगरेट पी ही रहे हो तो पगले ! मुझे देखकर संकोच में उसे छुपाते क्यों हो ? ’ मैं यह सुनकर स्तब्ध रह जाता हूँ और सिगरेट को नीचे फेंककर जूते तले रौंदने लगता हूँ। सोचता हूँ यह सिलसिला कभी खत्म होने वाला नहीं – जीवन और मृत्यु की तरह यह भी शाश्वत है।

लेखक : दुर्गा प्रसाद ,

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