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Kachche Dhaage, Sachcha Bandhan

Published by Ritu Asthana in category Family | Hindi | Hindi Story with tag brother | Mother | sister | step mother

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Hindi Story on Rakshabandhan – Kachche Dhaage, Sachcha Bandhan
Photo credit: amyheflinger from morguefile.com

मुंबई के एक हॉस्पिटल में मेरी माँ अपनी आखिरी साँसे ले रही थी। पिछले कुछ समय से वो अपनी बीमारी ,कैंसर से जूझ रही थी। मैं उनसे बहुत प्यार करती थी और साथ ही साथ उनसे अत्यधिक  घृणा भी करती थी। मुझे पता है, कि किसी  भी बच्चे के लिए अपनी माँ के प्रति घृणा शब्द या इसकी तनिक भी अनुभूति गहन आश्चर्य में डाल देने वाली  है।  पर मैं क्या करूं? मैं विवश हूँ। मेरी माँ, मेरी सगी माँ, अस्पताल में, अपनी आखिरी साँसे ले रही थी और मेरे पास सिवा उनके पिछले कर्मों की स्मृतियों को पुनः जीने के अतिरिक्त कोई और मार्ग  न था।

————–

आज भी ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे कल की  ही बात हो। मेरे पैदा होते ही मेरे माता पिता का ना जाने क्यों तलाक हो गया था।  पिता की धुंधली सी स्मृति भी नहीं थी मेरे पास। जीवन में एक बहुत बड़ी कमी का आभास मुझे अक्सर कचोटता था। एक बच्चे को अच्छे कपडे, अच्छा खाना पीना, अच्छे खिलौने, इसके अतिरिक्त भी कुछ चाहिए होता है, और वो होता है, उसके माता पिता का साथ, उसका पूरा खुशहाल परिवार।

———–

आज भी वो दिन मुझे याद है जब सब लोग कह रहे थे कि ये अच्छा निर्णय लिया उर्वशी(मेरी माँ) ने जो दूसरे विवाह के लिए तैयार हो गई। अकेली तो है नहीं, एक लड़की की जिमेदारी भी तो है उसके सिर पर।

मेरी माँ मुझे बहुत ही प्यार करती थी। मेरा प्रत्येक दिन उनसे ही प्रारम्भ होकर उन्ही पर समाप्त होता था। पर जैसे ही माँ की दूसरी शादी हुई, वो बदलने लगीं। मेरे दूसरे पिता के एक बेटा आदर्श था। हम दोनों जल्द ही अच्छे  दोस्त बन गए। कुछ ही समय में हम एक अटूट बंधन , अर्थात भाई बहन के पावन सम्बन्ध में बंध गए। वो सच में बिलकुल अपने नाम के अनुरूप ही था।

माँ के विवाह के बाद हमें मिलने का अवसर मिला। वो अपने कमरे से बाहर आकर मेरे पास बैठ गए। मैं कुछ उदास थी क्योंकि आज माँ मेरे पास नहीं थी।  वो मेरे नए पिताजी के साथ उनके कमरे में थी। मैं तनिक डर रही थी कि मेरी रात बिना माँ के साथ के कैसे कटेगी। पर जैसे भगवान ने मेरी पुकार सुन ली और तभी आया वो फरिश्ता।

आदर्श(अपना हाथ बढाकर) —-“मेरा नाम आदर्श है। तुम्हारा क्या नाम है ?”

मैं (अनामिका )—“मैं अनामिका हूँ।  माँ मुझे प्यार से अनु कहती है।”

आदर्श —-“अच्छा, तो ठीक है , आज से मैं भी तुम्हें अन्नू कहूँगा। क्यों ठीक है ना ?”

मैंने धीरे से अपना सिर सहमति में हिला दिया और उनका बढ़ा हुआ हाथ कस कर थाम लिया। और तब हमारे बीच  भाई, बहन के इस पवित्र और अटूट बंधन ने जन्म लिया।

आदर्श जो कि आठ  वर्ष का था और मैं पाँच वर्ष की।  पर कहते हैं ना कि बच्चे कठिन परिस्थितियों के कारङ  जल्द ही बड़े हो जाते हैं।  बिलकुल ऐसा ही हुआ मेरे आदर्श भैया के साथ। पहले उनकी माँ को असमय ही ईश्वर ने अपने पास बुला लिया। फिर पिता ने ये सोचकर दूसरा विवाह किया कि बच्चे को माँ का साया मिल जाएगा। पर हाय री किस्मत ! अब तो आदर्श भैया के सिर पर से माँ के साथ साथ पिता का भी साया  उठ गया।

मेरी माँ तो मेरी थी ही अब पिता भी केवल मुझे ही प्यार करते थे या पता नहीं माँ को दिखाने के लिए करते थे। पिताजी के प्यार के लिए मैंने, आदर्श भैया को कई बार सिसकते हुए देखा है। आदर्श भैया को देखकर मुझे बहुत ही दुःख होता था। माँ उन्हें हर बात पर डाँटती रहती थी। अपनी गलतियों की सजा कम  और मेरी गलतियों की वो अधिक सजा सहते थे। फिर भी मैं उनको और वो मुझे बहुत प्यार करते थे। बड़ों के मलिन  ह्रदय का सौतेलापन, हम बच्चों के कोमल ह्रदय से कोसों दूर था। हम साथ पढ़ते, साथ स्कूल जाते, साथ खाना खाते और साथ-साथ ही खेलते थे।ना जाने कब मेरे आदर्श भैया, मेरी माँ और मेरे पिता दोनों ही बन गए थे। मैं उन पर पूर्ण रूप से निर्भर हो गई थी।

————

रक्षाबंधन एक ऐसा पर्व है जिसमे हर बहन, अपने भाई के होने पर, उसके प्यार पर और  उसके स्नेह पर इतराती है। मुझे पूरे वर्ष इस पावन पर्व की प्रतीक्षा रहती थी।

आज मेरी प्रतीक्षा समाप्त हो गई थी। आज में अति प्रसन्न थी कि आज मैं अपने भैया के हाथ पर अपने स्नेह का रेशमी धागा बांधूंगी। और ईश्वर से प्रार्थना करुँगी कि मेरा भाई सदा प्रसन्न रहे। मैं तैयार होका भागती  हुई उत्साह से माँ के पास गई।

अन्नू —“माँ , माँ , आज राखी है ना?”

माँ —-“हाँ”

अन्नू —-“माँ, तो कहाँ है मेरा प्यारा भैया ?”

माँ —-“कितनी नार कहा है कि वो तेरा कोई भाई वाई नहीं है।  समझ में नहीं आता क्या तुम्हे ?”

अन्नू  —-“माँ, जब हमारे माता पिता एक हैं तो हम भाई बहन क्यों नहीं हैं ?”

माँ —“चल, अधिक तंग मत कर। जा  भाग यहाँ से।  मुझे बहुत काम है।

मैं अब तक सात साल की हो चुकी थी और आदर्श भैया दस के। राखी की थाल लेकर मैंने घर के लगभग हर कोने में ढूंढ लिया पर मुझे वो कहीं भी दिखाई नहीं पड़े। मैं थक कर  बगीचे में बैठी ही थी कि किसी के रोने के स्वर से मैं भाग कर उसके पास गई।

“अरे ये क्या ? भैया, भैया, क्यों रो रहे हो ? क्या हुआ है ?माँ ने कुछ कहा है क्या? बताओ भाई।” —मैने  घबराए स्वर में पुछा।

आदर्श(अपने आंसू पोंछते हुए ) —“नहीं, कुछ नहीं कहा।आज मुझे अपनी माँ की बहुत याद आ रही है। वो कहती थीं कि तेरे लिए एक नन्ही सी गुड़िया जैसी बहन लाएंगे।  पर वो तो चली गईं मुझे अकेला छोड़कर।”

अन्नू —-“अच्छा, तो मैं क्या गुड़िया जैसी नहीं दिखती हूँ ? क्या मैं आपकी बहन नहीं हूँ ? बोलो भैया ?”

आदर्श —-“हाँ हो।”

अन्नू — “तो चलो जल्दी से हाथ आगे कर दो मुझे आपको राखी बांधनी है।”

आदर्श के मोती जैसे आंसूं कब मुस्कराहट में बदल गए उसे पता ही नहीं चला। दोनों भाई बहन एक दूसरे से एक अदृश्य स्नेह रुपी डोर से बांध गए।

——–

और उस दिन तो माँ ने अपनी सारी सीमाएं पार कर दीं। उन्होंने  घोषणा कर दी कि आदर्श अब हॉस्टल में रहेगा क्योंकि वहां उसकी अच्छी पढाई होगी। पता नहीं माँ ने पिताजी को क्या पट्टी पढाई कि वो भी इस निर्णय से सहमत हो गए।  मैंने और  मेरे प्यारे भैया ने माँ के आगे बहुत हाथ पैर जोड़े पर उस निर्मम और पाषाण ह्रदय  महिला ने हमारी एक ना सुनी।

और आखिर वो दिन भी आ गया जब मेरा १२ वर्शीय भाई, अपने घर से, अपने माता-पिता और अपनी लाड़ली बहन से विदा ले रहा था। पिताजी ने उसका नाम देहरादून के एक स्कूल में करवाया था।

जब वो ट्रेन की खिड़की से अपना हाथ हिला रहा था तो उसकी लाल-लाल, सूजी, रोई  हुई आँखों से साफ़ पता चल रहा  था कि उसे अपनों से बिछड़ने का कितना दुःख है।

अन्नू (भरे गले से)—-“भैया, जल्दी वापस आना। मैं तुम्हारी राह देखूंगी।”

कहकर मैं फफक फफक कर  रोने लगी। और निष्ठुर ट्रेन मेरे भैया को लेकर चली गई। पता नहीं क्यों मेरी आँखें माँ पर ही जमी हुई थीं।आज मुझे अपनी माँ को माँ कहने तक का मन नहीं कर रहा था।

—————

घर आते ही माँ ने अपनी माँ को फोन मिलाया। मैं एक जासूस की भांति उनकी बातें सुनने लगी।

माँ —“हाँ माँ। आदर्श हॉस्टल गया।  अब कहीं जाकर उससे पीछा छुड़ा पाई हूँ, इतने वर्षों के बाद।”

मैं धक् से रह गई। ऐसा प्रतीत हुआ मानो किसी ने गरम-गरम लावा मेरे कानों में डाल  दिया हो।मेरी माँ आज मेरी दृष्टि से सदा के लिए गिर गई थी। मैं उनकी बातें और ध्यान से सुनने लगी। मुझे अब तक पूर्ण विश्वास हो चला था कि मेरी माँ ने, मेरे भाई के साथ सौतेला व्यवहार किया है।

मेरा मन चीत्कार उठा। आखिर ऐसा किस उद्देश्य से किया होगा माँ ने? वो बिन माँ का लड़का क्या अपेक्षा रखता था उनसे ? कम से कम हम दोनों भाई-बहन एक दुसरे का सुख- दुःख समझ तो लेते थे। हम को अलग कर दिया मेरी माँ ने।

——–

पिताजी भी अपने बेटे से बिछड़ कर अधिक दिन जीवित नहीं रह सके। अब मेरी माँ और मैं अकेले रह गए। मैंने उन्हें, आदर्श भैया को घर बुलाने के लिए बहुत मनाया पर वो नहीं मानीं। मैं हर रक्षाबंधन पर अपने आदर्श भैया को राखी भेजती रहती थी। समय मानों पंख लगा कर उड़ रहा था। मेरा १८ वां जन्मदिन था और मैं भैया को बहुत याद कर रही थी।

तभी किसी के मधुर स्वर से मेरी आँखे चमक उठीं।

आदर्श —“अन्नू , अन्नू।  कहाँ है तू ?”

मानो कानों में  अमृत सा घुल गया हो।

अन्नू —-“आदर्श भैया !!!!! कैसे हो भैया आप ? कितने दिनों के बाद आए हो ? आपको हमारी बिलकुल भी याद नहीं आती ?”

आदर्श —-“अरे पगली, बहुत याद आती है। मेरी प्यारी सी बहना।  देख तभी तो तेरे जन्मदिन पर आया हूँ।”

अन्नू —-“हम्म्म।, और खाली हाथ ही आए हो न ?”

आदर्श —“पहले आँख बंद कर, फिर बताता हूँ।”

मैंने मुस्कुराते हुए अपनी आँखें बंद कर लीं।मेरे लिए अपने भैया के साथ की अनुभूति से अधिक कीमती दुनिया का कोई भी उपहार नहीं हो सकता था।

आदर्श —“चल अन्नू, अब अपनी आँखें खोल ले।”

अन्नू  —“अरे भैया ये क्या? ये तो मोबाइल है। पर इतने पैसे ? इतने पैसे कहाँ से आए भैया ?”

तभी माँ का प्रवेश हुआ।

माँ —-“हाँ आदर्श, कहीं कोई चोरी तो नहीं की ?”

आदर्श भैया ने माँ के पैर छुए।

आदर्श —-“नहीं माँ। अपनी बहना को मैं चोरी के पैसों का उपहार कभी नहीं दे सकता। मुझे एक नौकरी मिल गई है।”

माँ –“हुंह , नौकरी कर ली है।  और कितनी बार तुझसे कहा है की ये तेरी बहन नहीं और मैं तेरी माँ नहीं समझा ?”

आदर्श भैया की आँखों में दुःख के काले बादल घिर आए। मुझसे उनका कोई भी दुःख छिप नहीं सकता था। मैंने उनको थपथपाया और माँ की बातों का बुरा न मानने का संकेत दिया।

तभी माँ के मोबाइल फ़ोन की घंटी घनघनाई।

माँ —“हाँ जी डॉक्टर साब, क्या है रिपोर्ट में?”

उधर से डॉक्टर कुछ कहते है

माँ —-“अरे आप बेहिचक बता दीजिये। मैं इतने कमजोर मन की नहीं हूँ।कुछ नहीं होगा मुझे। ”

डॉक्टर —?????

माँ —-“क्या ????? कैंसर ? डॉक्टर साब जरा ठीक से देखिये मैं, मैं  उर्वशी, उर्वशी पाठक।”

डॉक्टर —-?????

माँ —“नहीं!!!!!!!!!!!! ये नहीं हो सकता।”

माँ के हाथ से मोबाइल फ़ोन छूटकर गिर गया था। घर में मातम छा गया था। भैया, माँ को सांत्वना देने गए तो माँ ने उनका हाथ झिड़क दिया। एक दो दिन में भैया वापस देहरादून चले गए।  आखिर कब तक कोई, किसी की घृणा भरी दृष्टि के समक्ष रह सकता है? माँ को कैंसर हुआ है ,ये जानकर, मैं दुखी थी पर कहीं न कहीं ऊपरवाले के न्याय पर विश्वास हो चला था।  कहीं भीतर से कोई पुकार रहा था कि जैसी करनी वैसी भरनी। मैंने जितना हो सका माँ की सेवा की।  और कुल दो महीनों बाद ही डॉक्टर ने कहा कि अब इनका समय समाप्त हो चुका है। मैंने तत्काल ही अपने आदर्श भैया को सूचना दे दी।

———-

माँ के साथ हॉस्पिटल में डॉक्टर और नर्सें प्रयत्नशील थीं।  मैं और आदर्श भैया बाहर प्रतीक्षा में बैठे थे। तभी डॉक्टर ने हमें भीतर बुलाया।

माँ ने अपने कमजोर कांपते हाथों को जोड़कर आदर्श भैया से क्षमा मांगी और मेरा ध्यान रखने को कहा। उनकी आँखों से पश्च्चात्ताप के आंसू बह रहे थे।

आदर्श (रोते हुए)—-“माँ, आप बिलकुल चिंता मत करिये। आप मेरा विश्वास करिये, मैं अपनी बहन का पूरा ध्यान रखूंगा। इसे कभी भी कोई कष्ट नहीं आने दूंगा, माँ।”

कहकर वो जोर-जोर से रोने लगे।

अन्नू (अपनी आँखों से ही माँ से कहने लगी ) —-‘माँ, देखा तुमने? सौतेला, मेरा भाई नहीं, सौतेला था तुम्हारा ह्रदय, जिसने हमारे पवित्र बंधन तक को मान्यता नहीं दी। माँ, क्या केवल जन्म देने वाली ही माँ होती है ?यदि तुम मेरे भाई को थोड़ी सी  ममता से पाल लेतीं तो क्या बिगड़ जाता तुम्हारा ? एक बच्चे को, जो अपनी माँ को पहले ही खो चुका था, तुमने उसे, उसके  पिता और उसकी बहन से भी दूर कर दिया, माँ। माँ, भले ही आपको भ्रम हो कि राखी के इन धागों का कोई मोल नहीं है पर सच तो ये है माँ कि ये  कच्चे धागे, सच्चा बंधन है , सच्चा बंधन जो हमारे ह्रदय की गहराइयों से जुड़ा है और जिसे कोई भी झुठला नहीं सकता माँ, कोई भी नहीं।’

मैं अपनी माँ की आँखों में पश्चचात्ताप के भाव देख रही थी किन्तु अब तो बहुत देर हो चुकी थी। बहुत देर।

——–

भाई ने माँ का सुचारू रूप से क्रियाकर्म किया। उनकी आँखों में मैंने माँ के प्रति कभी भी कोई बुरी भावना नहीं देखी।

आज तक मुझे ये समझ में नहीं आया कि आखिर सौतेला होता क्या है ? क्यों हम अपने-परायों में इतना भेदभाव करते हैं ? क्यों नहीं सींचते हम हर रिश्ते, हर सम्बन्ध को स्नेह रुपी जलधारा से ? क्यों ये जग इस भेदभाव के पीछे इतना भटक रहा है? क्यों नहीं ये  कच्चे धागे, सच्चा बंधन  बन सकते हैं ? क्यों नहीं? आखिर क्यों नहीं ?

__END__

प्रिय पाठकों से सविनय  निवेदन है कि मैंने ये रचना स्वयं को एक पात्र के रूप में ले कर रची है। इस में मेरा नाम अन्नू है तो संवादों में मैंने अपने “अन्नू” नाम का प्रयोग किया है।

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