The story is about the life of little girl who was separated from her family in the rush of a religious fair and was found by a saint in unconscious and molested state. Her family did not accept her . She buried her pain inside her and spent her whole life unobtrusive and inconspicuous hiding away from the world. literally living the last heard words of her father. May be that was the only way to feel connected to her family.
उस शाम बनारस में गंगा जी के घाट की सीढीयों पर बैठे , इधर-उधर आते जाते गेरूआ कपड़े पहने बाबाओं को देखते हुए अचानक अतीत के गुहर से धीरे धीरे निकल, ना जाने कब की बिसरी गेरूआ कपड़ों में लिपटी एक धुंधलाई सी आकृति जैसे आकार लेने की कोशिश करने लगी .
तकरीबन चार फीट की लम्बाई .छोटा सा घूंघट निकाल कर पहनी हुई गेरुआ धोती और उस पर कंधो से कस कर लपेटी हुई गेरुआ चादर । इतने सारे कपडो मे लिपटी होने के बावजूद वे बेहद नाजुक लगती थी ।बिल्कुल चिड़िया जैसी ।उस पर लग्भग भागती हुई सी उनकी चाल । उनके पैर जमीन को छूते ही नही थे जैसे ।चिड़िया के फुदकने जैसा होता था उनका चलना ।धीरे धीरे फुदकती चिड्या वह भी भरपूर चौकन्नेपन से भरी हुई ।किसी की परछाई भी आस पास पड़ी नही कि फुर्र.. ।उनके चलने फिरने मे भी वह चौकन्नापन ,आशंका साफ दिखती थी ।जिस तरह से वे खुद को कपड़ों की तह दर तह मे छुपाये रहती थी उससे साफ लगता था कि वे नही चाहती कि किसी का साया भी उन पर पड़े ।
हमारे स्कूल के पास एक बहुत बड़ा पेड़ था ।उस पेड़ के नीचे एक छोटी सी देवी जी की मठिया थी। पेड के नीचे दो छोटी छोटी कच्ची मिट्टी की कोठरियां ।इन्ही मे एक बूढे साधु बाबा रहते थे और वहीं आस पास काम काज करती डोलती रहती थी हमारी ये साध्वी ।हम लोग अक्सर इन्टरवल मे वहां चले जाते थे । कुछ आकर्षण तो बाबाजी के प्रसाद का होता था और उससे अधिक कौतुहल रहता था साध्वी की एक झलक देखने का ।इधर उधर से ताक झांक कर हम लोग की कोशिश रहती थी कि हम किसी तरह उनके चेहरे की एक झलक पा सके ।पर चेहरा तो बहुत दूर की बात थी हमे तो उनके पैर का अंगूठा भी मुश्किल से दिख पाता था ।
पेड़ के नीचे चबूतरे पर बैठ बाबाजी से पौराणिक कहानियां भी खूब सुनी गयीं ।कानो मे कहानी के शब्द जाते थे पर मन और आखें उस गेरुआ साये के चारो ओर मंडराते रहते थे ।बाबा जी को हमारी हरकतें समझ मे आती रहती थी ।लम्बी दाढ़ी ,घनी मूछों के बीच उनकी सब कुछ बूझती मुस्कान छलकती रहती थी ।हमारी बेचैनी का वे मन ही मन खूब आनन्द लेते थे फिर भी कौतुहल शांत करने के लिये अपनी तरफ से कुछ नही कहते थे ।
आखिर एक दिन जब हम लोगो के सब्र की इन्तहा हो गयी तो हमने बाबाजी से पूछ ही लिया । ’बाबा जी वो कौन हैं ’।
बाबाजी बोले ,’पुजारिन हैं इस मठिया की ।साफ सफाई करती हैं ।भजन पूजन करती हैं और मुझ बूढ़े को एक आध टिक्क़ड़ सेंक कर खिला देती है ।’
’पर हम लोगों ने तो कभी उनकी आवाज ही नही सुनी ’
’वे अपनी आवाज केवल भगवान को सुनाती है ’
’वे अपने को इतना कपड़ों में ढाके मूदे क्यों रहती हैं ’
’बड़े हो जाने पर सबै औरतें और लड़कियां ऐसे ही रहती हैं ’।बात कहते कहते बाबाजी का स्वर कुछ अनमना हो गया ।
यद्यपि हम लोग इस उत्तर से ना तो पूरी तरह संतुष्ट थे ना ही सहमत पर बाबाजी के चेहरे के भाव और उनके स्वर ने हमें चुप हो जाने पर बाध्य कर दिया ।इतना हमें समझ मे आ गया था कि इस पर बात करना बाबाजी के लिये सुखकर नही था।
इस घटना के बाद हमारी अटकलों में एक पहलू और जुड़ गया । शायद वे बाबाजी की बेटी होगी । या तो उनकी शक्ल बहुत बद्सूरत होगी या चेहरा जल गया होगा ।पर काम करते हुए जितनी हथेलियां दिखती हैं वो कितनी सुन्दर लगती हैं ,छोटी छोटी गोरी गोरी ।वे जब भी हैन्ड्पाइप पर कपड़े धो रही होती या पानी भर रही होती और हम लोग अगर आस पास होते तो हमें प्यास जरूर लगती ।कभी चलते फिरते उनके पैर की एड़ी दिख गयी तो हम ऐसे खुश होते जैसे किसी जादुई खजाने के दरवाजे में सुराख नजर आ गया हो ।
फिर हमारा स्कूल बदल गया ।उस रास्ते जाना लगभग ना के बराबर हो गया और फिर वे धीरे धीरे हमारी चेतना में धुंधलाती चली गयी ।एक लम्बे अरसे बाद हमने उन्हें अपने पड़ोसी सेन गुप्तो काकू के यहां आते देखा । काकू भी काफी पूजा पाठ करते थे । उस मन्दिर मे उनका आना जाना होता था ।पर इससे पहले हमने उन्हें काकू के यहां कभी नहीं देखा था । इतने अरसे बाद उन्हें देख कर पुरानी बातें याद आ गयीं ।बाहर से वे बिल्कुल बदली नजर नहीं आ रहीं थी और घूंघट के भीतर हमने उन्हें कभी देखा नहीं था । अब वे अक्सर काकू के यहां आती जाती दिखने लगी थी । हम बड़े हो गये थे शायद इसीलिये उनकी शकल देख्ने का वैसा आग्रह और कौतुहल मन मे नही उपजा।
एक दिन शाम को किसी काम से हम काकु के घर गये ।गेट अन्दर से बन्द नहीं था। कमरे का दरवाजा भी खुला हुआ था इसलिये हम बेधड़क कमरे मे घुसते चले गये ।वैसे भी उन दिनो मोहल्ले पड़ोस मे बहुत अधिक औपचारिकता बरतने का रिवाज भी नहीं था ।
दो कदम अन्दर रखते ही हम ठिठक कर खड़े रह गये । सांझ का झुट्पुटा कमरे मे पसरा हुआ था और दीवाल के पास पलंग पर वे बैठी थी ।आंचल कांधे पर ढलका हुआ था।कमर तक लम्बे ,भौंरे जैसे काले घुंघराले बाल धुंधलके में भी चमक रहे थे ।काली घनी लटों के घेरे में उनका स्फटिक सा सफेद मुख ,दूर तक खिची तराशी हुई भौहों के नीचे दिप्दिपाती बड़ी बड़ी आंखे ,लाल टकटकाते होंठ । गरज यह की सौन्दर्य अपनी पराकाष्ठा पर विद्ममान था वहां । मेरी ओर देख कर उन्होंने एक अलसाई हुई मुस्कान फेंकी और आहिस्ता से आंचल सर पर डाल लिया । क्या था उनकी भंगिमा में मेरे यूं चौंक जाने पर कौतुक या फिर अवहेलना का भाव । हम कुछ ठीक से समझे नहीं पर उनके चेहरे के ओझल हो जाने पर जैसे सम्मोहन टूटा और हम काकी मां को आवाज देते अन्दर चले गये।
लेकिन उस रात नीद मेरी आंखो से कोसो दूर थी । रह रह कर अंधेरे मे वह चेहरा झिलमिला उठता । हे भगवान ,इतना सुन्दर चेहरा । कैसे निरासक्त हो पायीं वो । क्या कारण रहा होगा संयासिन बन जाने के पीछे । और फिर संयासिन हो भी गयीं थी तो खुद को इतना छुपा कर क्यों रखा तमाम उम्र ।आज इतनी उम्र हो जाने पर इतनी सुन्दर हैं तो तब कैसी रही होगी जब हम लोग उनकी एक झलक पाने को इतनी मशक्कत किया करते थे । और भी ना जाने क्या क्या ?
पहला सुअवसर पाते ही हमने काकी मां की ओर अपनी जिज्ञासाओं की दुनाली तान दी । कुछ देर चुप रह कर बोली ,’ मन्दिर वाले बाबा तो अब हैं नहीं । तुम्हारे काकू जाते रहते थे तो उन्होने ही कहा था इसकी अपनी बहन की तरह देख भाल करते रहना । जितनी गोरी खुद है उतना ही काला भाग्य है अभागिन का । अब क्या अब तो कट ही गयी। ’
’क्या हुआ था …?
’तुम समझदार लड़की हो इसलिये बता रहे है । औरत की तकदीर ऊपर वाला कौन सी कलम से लिखता है लड़्कियों को जानना भी चाहिये ।’
एक लम्बी सांस भर काकी मां शुरु हुई ।दस ग्यारह साल की थी यह जब बाबाजी को कुम्भ के मेले मे बेहोश पड़ी मिली थी यह ।हालत ठीक नही थी । बाबाजी उसे अपने साथ ले आये । तब मां भी जिन्दा थी । दोनो पति पत्नी ने खूब प्यार से सेवा की ।जब यह ठीक हो गयी तो घर जाने की बात करने लगी । उसे बस इतना याद था कि वह अपने पूरे परिवार के साथ कुम्भ के मेले आयी थी ।खूब घूमना फिरना और मौज मस्ती हो रही थी । एक दिन जब जब सब लोग मेला घूमने निकले तो ना जाने कैसे भीड़ भाड़ में वह सबसे बिछुड़ गयी । उस्के बाद की घटनाओ की याद उसे बहुत धुंधली थी पर उसे इतना पता था की कुछ बहुत अप्रिय ,बहुत पीड़ाजनक घटा था ।याद करने की कोशिश ही उसे एक अजब बेचैनी से भर देती थी ।हां ,उसे अपने पिता का नाम और अपना गांव ठीक ठीक याद था ।
उसकी अपने घर जाने की जिद बढ्ती जा रही थी । बाबाजी और मां को परिणाम का पूर्वाभास था । उन्होने टालने की कोशिश की ।वे उसे और दुख नही देना चाहते थे ।लेकिन उसकी हालत बिगड़ने लगी । अंततः विधि का विधान मान बाबाजी ने उसे उसके घर ले जाने का निश्चय कर लिया ।
मांजी ने उससे कहा मैं तुम्हे घूंघट निकाल कर साड़ी पहना देती हूं ।तुम ऐसे ही जाना। जब तुम अपने मां पिता जी के सामने अचानक घूंघट हटाओगी तो वो कितने खुश होगे ना।
बहुत तरह से समझा बुझा कर उसे मुंह ढके रहने के लिये मना लिया गया ।बाबाजी नही चाहते थे कि उसका तमाशा बने और अपनी दुर्गति वह खुली आंखो देखे ।
कितनी खुश थी वह सारे रास्ते । कल्पना कर रही थी कैसे मां बार बार गले लगायेगी , दादी मिर्चा मंगवायेगी अपनी पोती की नजर उतारने के लिये । वह बाहर खेल कर भी आती थी तो दादी ऐसा करती थी और अब तो इतने दिन बाद मिलेगी । पिता तो रो रो कर पागल हो रहे होंगे । बहुत प्यार करते हैं उसे । बाबाजी बगल मे बैठे उसके उछाह में भीगते रहे । बिना रुके कितनी बाते कर रही थी । बाबाजी के गम्भीर मुख को देख उसे लगा । अरे कितनी स्वार्थी होती जा रही है वह । बाबा दुखी है कि अब वे और मां फिर अकेले रह जायेगे। प्यार में भर बाबा को न्योता दे डाला । आप और मां भी हमारे गांव के मन्दिर के पास अपनी झोपड़ी बना लेना ।फिर हम रोज आपसे मिल सकेगे ।और ना जाने कितनी बाते….
गांव आया । बाबाजी ने उसका हाथ कस कर ना पकड़ लिया होता तो धोती घुटनो तक उठा कब की दौड़ ली होती ।
पिता का नाम पूछ दरवाजे पर पहुंचे । उसे समझ मे नहीं आ रहा था कि बाबा जी उसे भीतर क्यों नही जाने दे रहे हैं.
एक तो इतनी देर कर ली है न उसकी कोई सहेली बाहर है ना दादी । मां भी कहीं भीतर होगी ।
पिताजी बाहर आये । सोचा साधु है रात बिताने को जगह पूछ रहे होगे । भोजन आदि की व्यवस्था भी कर दी जायेगी । पिता जी साधु को भीतर ले गये, उससे भीतर आने को कहा नही गया सो वो दरवाजे पर ही खड़ी रही। लेकिन उसके पिता ने साधु महाराज से जो कुछ कहा वो खुद को उसे सुनने से रोक नहीं पायी। पिताजी साधु से कह रहे थे कि अच्छा हुआ जो आप इसका मुह ढंक कर यहां लाये. इसे ऐसे ही ढक कर वापस ले जाइये. सबकी भलाई भी इसी में है कि ये अपना मुंह किसी को ना दिखाये। पिताजी कहे जा रहे थे, साधु जी इसे आप अपने ही पास रखिये और ये अपने बारे मे किसी से कुछ ना कहे, वही बेह्तर होगा। जिस हालत में ये आपको मिली थी और अब इतने दिन बाद. मेरे परिवार की इज्जत…. हमारे लिए तो अब यह है ही नहीं. पिता जी और भी न जाने क्या क्या कहते रहे पर वह तो एकदम जड़ हो गई थी. सन्न थी वह. उसके मन में पिता का स्वर घन सा प्रहार कर रहा था……..इसका चेहरा अब कोई न देखे….वह चेहरा जिसकी सब बलाएं लेते नहीं थकता थे. उसने अपना घूंघट और गहरा कर लिया ।
वो दिन और आज का दिन …..बस ऐसे ही है यह….बात खत्म करते करते काकी मां की आवाज भीग उठी.
मेरे मन में आक्रोश ,पीड़ा और एक अजब सी बेचैनी खदबदा रही थी । क्यो भला क्यों उन्होने खुद को तमाम उम्र उस सजा से इतनी कड़ाई से बांधे रखा । लेकिन शायद जवाब हमे तब भी पता था …वही सजा ,वही घूंघट तो उन्हे बाधें रहा अपनी बिछ्ड़ी देहरी से .