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Yeh hai meri kahani

Published by payalguptaa in category Family | Hindi | Hindi Story with tag Dreams | family | parents | responsibilities

This Hindi story throws a light on various human relationships & teaches us a lesson that family members are not a burden . Each one of us have our own share of duties towards our family  & we must fulfil them instead of running away from them.

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Hindi Story on Relations – Yeh hai meri kahani
Photo credit: anitapeppers from morguefile.com

मैं ऑफिस के लिए निकल ही रहा था की  इतने में मेरी  छोटी बहन अनुष्का ने मुझे  रोका और बोली ,”भैया आज प्लीज ऑफिस से वापस आते टाइम सूजामल जेवेलेर्स के यहाँ से मेरा नेकलेस कलेक्ट कर लेना . प्लीज भैया ! भूलना मत वर्ना कल मैं क्या पहनूँगी ?”

इतने में मेरे  पिताजी (श्री अनुराग मीरचंदानी) भी बाहर आ गए और बोले की ,” राघव ! बेटा तू आज ऑटो या बस से ऑफिस चला जा . आज मुझे गाड़ी की ज़रूरत है . तेरे चाचा और मौसी को लेने के लिए मुझे रेलवे स्टेशन जाना है “. मैंने फटाफट गाड़ी की चाबी पिताजी के हाथ में थमाई और ऑफिस के लिए निकल पड़ा . किस्मत अच्छी थी की घर से बाहर कदम रखते ही मुझे डायरेक्ट बस मिल गई .

आप लोग सोच रहे होंगे की मैं कौन हूँ और मेरे घर में ऐसा क्या होने वाला है जिसके लिए मेरी बहन ने हार बनने के लिए दिया है और रिश्तेदार भी यहाँ चंडीगढ़ में इकठ्ठा हो रहे हैं .

मेरा नाम है राघव मीरचंदानी और मैं श्री अनुराग मीरचंदानी का मंझला बेटा हूँ . अनुष्का मेरी छोटी बहन है. मेरी माँ ,श्रीमती पुष्प मीरचंदानी , दुर्भागय्वश अब हमारे बीच नहीं हैं . चार साल पहले उनका देहांत हो गया था . मुझसे बड़े एक भाई हैं . उनका नाम है कार्तिक मीरचंदानी . शादीशुदा हैं और उनकी एक प्यारी से बेटी भी है लेकिन समय का खेल देखिये वो पास होते हुए भी हमारे करीब नहीं हैं . दरअसल दो साल पहले संपत्ति के बंटवारे को लेकर भैया और पिताजी के बीच में काफी बहस हो गई थी और नतीजतन वो अपने परिवार के साथ यहाँ चंडीगढ़ में ही अलग घर लेकर रह रहे हैं .

भाभी ने उनको काफी समझाने का  प्रयास किया पर भैया की तो पुरानी  आदत थी की जिस चीज़ की उन्होंने ज़िद ठान ली तो बस ठान ली . चाहे फिर वो सही हो या गलत पर अपनी ज़िद उनको पूरी करनी ही है . भाभी और परिधि (मेरी भतीजी) तो अक्सर किसी न किसी बहाने से घर आते ही रहते हैं लेकिन भैया सिर्फ रक्षाबंधन पर ही आते हैं और तब भी वो ज्यादा देर नहीं ठहरते .

चलिए अब आते हैं असली मुद्दे पर की कल मेरे घर में कौन सा जलसा मनाया जाने वाला है जिसकी तय्यारी चल रही है . अरे जनाब ! कल मेरी सगाई है . आप सोच रहे होंगे की कल मेरी सगाई है और मैं आज ऑफिस जा रहा हूँ . भला ऐसा क्यूँ ? वो इसलिए की आज की तारीख में अहम प्रोजेक्ट मुझे सबमिट करना है . और अब यह प्रोजेक्ट ही  मेरा आगे का फ्यूचर बनाएगा . क्यूंकि अगर यह प्रोजेक्ट आज मेरे क्लाइंट को पसंद आ गया तो जिस प्रमोशन और सैलरी इन्क्रीमेंट का वादा मेरी कंपनी ने मुझसे किया है वो मुझे मिल जायेगा .

यह प्रमोशन और इन्क्रीमेंट मेरे लिए बहुत ज़रूरी है क्यूंकि अब मेरी ज़िम्मेदारी दुगुनी होने जा रही है . (बड़े भैया ने घर तो अलग ले ही लिया लेकिन उसके साथ में घर की जिम्मेदारियों से भी पल्ला झाड़ लिया . जिस घर में आज मैं , अनु और पिताजी रहते हैं उस घर पर लोन चल रहा है जिसकी मासिक किश्त का भुगतान मुझे करना होता है. अनु के  आर्किटेक्चर के कोर्स का खर्चा भी मेरे ही जिम्मे है। पापा  मासिक पेंशन  से घर के खर्च चल जाते हैं और पापा का जो प्रोविडेंट फण्ड है वो अनु की शादी के लिए जोड़ कर रखा है जो की ठीक भी है .कल मेरी सगाई है और तीन महीने बाद शादी . मेरी भावी पत्नी (अंतरा ) को मैंने पहले ही घर की स्तिथि से अवगत करा दिया था और कह दिया था की ज़िम्मेदारी बांटनी होगी . मुझे लगा था की वो इस रिश्ते के लिए ना कर देगी पर ऊपर वाले की असीम कृपा थी की उसने हाँ बोला . मैं सच में बहुत खुश हूँ की  अंतरा जैसी समझदार लड़की मेरी जीवनसंगिनी बनने जा रही है.

अब आप सोचते होंगे की कितना अजीब हूँ मैं जो आप से अपनी कहानी कह रहा हूँ . वो दरअसल बात यह है की पिताजी से ये बातें करूँगा तो ऐसा न हो की उनको यह लगने लगे की मैं जिम्मेदारियों से परेशां हो गया हूँ और अनु में अभी भी बचपना बाकि है तो मेरी बातों की गहराईओं को वो समझ नहीं पायेगी . तो बचे सिर्फ आप लोग जिनसे मैं अपनी बात कह सकता हूँ .

हाँ तो मैं कह रहा था की कल मेरी सगाई है. सच कहूँ तो उत्सुकता से ज्यादा टेंशन है कल के दिन की . कल सुबह पहले तो जो हॉल बुक कराया है उसकी सजावट और मेहमानों के बैठने के इंतजाम देखना है . फिर जिस कैटरिंग कंपनी को खाने के लिए आर्डर दिया है वो लोग भी टाइम से आने चाहिए . उनको किस किस सामान की ज़रूरत कल पड़ेगी उसकी लिस्ट तो पहले से ही मेरे पास आ चुकी है . फिर हो मेहमान दूर-दराज़ से आये हैं उनको तो ख़ास ही अटेंशन की ज़रूरत होती है . उनके आने जाने के लिए दो-तीन टैक्सी मैंने पहले से ही बुक करा दी हैं .और आज सूजामल जी के यहाँ से अनु का नेकलेस भी तो लेना है.  विडंबना है कि इतनी सारी तय्यारियों के बीच में कार्तिक भैया ने एक बार भी मुझसे नहीं कहा की अगर मुझे उनकी किसी मदद की ज़रूरत हो तो मैं उनको कॉल कर लूँ . उन्हें तो जैसे इन सब बातों से कोई लेना-देना ही नहीं है .

कभी कभी सोचता हूँ की क्या बड़े भैया ज़िम्मेदारियाँ उठाना नहीं चाहते थे इसलिए उन्होंने वो सब झगड़ा पिताजी के साथ किया . वो अक्सर  मुझ पर व्यंग कसते हैं की मैं अपनी तमाम उम्र भी खर्च कर दूंगा तो भी  यह ज़िम्मेदारियाँ कभी खत्म नहीं होगीं . वे  मुझे कहते रहते हैं की मुझे अपने बारे में सोचना चाहिए क्यूंकि अगर समय निकल गया तो मैं बस अफ़सोस ही मनाता रह जाऊंगा की मैं अपने लिए कुछ नहीं कर सका . हो सकता है की उनकी बात सच हो पर फिर लगता है की अगर माँ-पापा भी सिर्फ अपने लिए जीते तो हम तीनों का क्या होता . क्या बड़े भैया लेक्चरर बन पाते ? क्या मैं इंजिनियर बन पाता और अनु क्या कर रही होती? आज हम तीनों अपने अपने पैरों पर खड़े हैं तो क्या यह माँ-पापा के लिए गर्व की बात नहीं है . क्या उनका जीवन सफल नहीं हुआ ? पर ना जाने भैया को ऐसा क्यूँ लगता है की घर परिवार की जिम्मेदारियां उठाना एक बोझ है . आपसे झूठ नहीं कहूँगा पर  भैया का यह रवैया देखकर मुझे परिधि (मेरी भतीजी) की चिंता अक्सर सताती है .

यह सच है की मैंने भी कुछ सपने बुने थे अपने लिये. विदेश जाकर आगे पढना  चाहता था मैं और फिर वहीँ नौकरी करके सेटल होना चाहता था . पर सपनों में और जीवन की व्यवहारिक सच्चाई  में बहुत फर्क होता है . जिस समय भैया ने हम से अपना साथ छुड़ाया उस समय पापा और अनु को मेरी सख्त ज़रूरत थी . और फिर इसमें गलत क्या है . बेटा होने के नाते अगर मेरे हक बनते हैं तो कुछ फ़र्ज़ भी तो हैं जिन्हें निभाना मेरी ज़िम्मेदारी है.

विदेश ना जा पाने का जो अफ़सोस था मन में वो धुल चुका है क्यूंकि यहाँ भी मैं एक जानी मानी कंपनी में इंजिनियर हूँ और अच्छा नाम और पैसे कमा रहा हूँ . और मुझे पूरा यकीन है की अपने करियर में जिस शिखर को छूने की कामना मैं रखता हूँ वो कामना भी मैं यहीं अपनों के बीच रहकर अपनी जिम्मेदारियों को निभाते हुए पूरी कर ही लूँगा .

लीजिये आप से बात करते करते कब मेरा ऑफिस आ गया पता ही नहीं चला . उम्मीद करता हूँ अपनी बातों से आपको बोर नहीं किया होगा मैंने . इससे पहले की मैं अपने प्रोजेक्ट्स और क्लाइंट्स में खो जाऊं आपसे सिर्फ इतना कहना चाहूँगा की अपने लोगों के बीच रहना ना तो बोझिल है और वक़्त पड़ने पर उनकी जिम्मेदारियां उठाना ना ही कोई बोझ है अपितु यह तो एक सफल और खुशहाल जीवन जीने का मूलमंत्र है .
अलविदा दोस्तों !

***

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