कहने को तो वो जुलाई की भरी दोपहरी थी पर अंधेरा इतना था की हाथ को हाथ न सूझे। ४८ घंटे से हो रही मूसलाधार बारिश ने चारों ओर स्याह रंग की परत चढ़ा रखी थी। बादलो की गरज और बिजली की चमक ,वर्षा के “टैप-डाँस ” से ताल से ताल मिला के अद्भुत समां बांध रही थी, शायद तीनों की कोई प्रतियोगिता प्रवर्तमान थी । तीनो में से कोई भी पराजय स्वीकार करने को तैयार नही था। जगह-जगह सड़कों पे पानी से भर आये गढ्ढों ने छोटे -छोटे तालाबो को जन्म दे दिया था।
बबलू के बाबूजी आज तीसरे दिन भी काम पे न जा पाये थे। घर पे अन्न का दाना भी न था। बबलू की माँ ने अपनी छोटी कोठरी का कोना कोना छान मारा ,आखिर में कपड़ों की तह के नीचे पड़ा मिला ये आखिरी दस का नोट।
“एक डबल रोटी ले आ और देख, पाणी में खेलने ना लग जाइयो। सीधा लाला के पास जाइयो और जल्दी आइयो। ” माँ ने ताक़ीद दी और प्लास्टिक की छोटी थैली में अच्छी तरह से दस का नोट लपेट के बबलू की अधफटी जेब में ठूस दिया ।
“पैसे संभाल के ले जाइयो और जे खोया तब देख ले फिर। ” माँ ने जाते जाते चेतावनी दी।
मैली फटी हाफ बाजू की शर्ट और पुराना हाफ-पैंट पहने बबलू निकल पड़ा सड़क पर। उम्र रही होगी कोई ८-९ वर्ष। बरसाती क नाम पे एक मोम जामा का बड़ा थैला लिया , जिसका एक कोना काट कर बरसाती का जुगाड़ किया गया ।
अहा क्या मज़ेदार मौसम है , बबलू का बचपन कहीं भीतर से बोल पड़ा। एक हाथ से बरसाती पकड़ी और एक हाथ से जेब में पड़ी कागज़ की तुड़ी-मुड़ी नाँव निकाली।आज सरजू के बच्चे को दिखाता क्या शान है मेरी नाँव की । सड़क के किनारे बहते नाले में अनवरत चलती अपनी नाव को देख के उसकी आँखे गर्व से चमकने लगी। अपनी बरसाती के भीतर खुद की गठरी बनाये बबलू के कदम नुक्कड़ के कोने की दुकान की तरफ चल पड़े।
अभी थोड़ी दूर ही चला ही था की समोसे की खुशबू से उसके कदम ठिठक गए।
मेंगाराम के समोसे, मुँह में स्वतः पानी भर आया । था तो बालमन ही, ऊपर से बरसात से मौसम भी सर्द हो चला था, कदम खुद-ब-खुद ही हलवाई की दुकान की तरफ हो चले। तेल की कढ़ाई से निकले गरम -गरम समोसे देख के बबलू को भूली बिसरी भूख याद आ गयी। पेट जैसे पीठ से जा चिपका ।
“एक समोसा कित्ते में दोगे अंकल ?” उसने काउंटर के पीछे खड़े हलवाई से पुछा।
मेंगाराम के समोसे और चाय आस पास के इलाके में प्रसिद्ध थे। ठीक बाज़ार के बीचो-बीच उसका छोटा सा रेस्त्रां था जहाँ बारह महीने भीड़ लगी होती थी। आज तो वहाँ पैर रखने की जगह न थी । बरसात के कारण आज दुकान पे काम करने वाला लड़का भी नहीं था सो ग्राहकों पर उसे स्वयं ही ध्यान देना पड़ रहा था। “पोटेंशियल ” ग्राहकों की भारी आवाज़ के नीचे उस छोटे बालक की धीमी आवाज़ दब गई।
“अंकल ,समोसा कित्ते का है? ” इस बार उसने थोड़ा बल लगा के बोला।
मेंगाराम ने ऊपर से नीचे तक बबलू की और एक उड़ती नज़र डाली, आँखों ही आँखों में उसे तोला ,फिर बेफिक्री से बोला, “दस का एक है, कितने चाहिए? ”
बबलू को अपनी जेब में पड़े इकलौते दस के नोट का ध्यान हो आया और फिर याद आया घर में बैठे चार लोगो को जो कब से उसके आने की राह तक रहे थे। माँ तो अब तक १० बार कोस भी चुकी होगी। एक लम्बी सांस खींची , समोसे की खुशबू को जी भर कर खाया और बड़ चला नुक्कड़ के छोर वाली दुकान की ओर।
“अरे ओ छोकरे, रुक ज़रा। ” अचानक पीछे से किसी की आवाज़ आई। बबलू ने पीछे मुड़ के देखा ,मेंगाराम उसे ही पुकार रहा था।
“काम करेगा क्या? ” हलवाई ने कंधे पर पड़े गमछे से हाथ पोंछते हुए पूछा, “एक टेबल साफ़ करने के २ रुपये दूँगा। ”
बबलू ने एक पल के लिए सोचा फिर ना में सर हिला दिआ। नन्हे कदम फिर से रास्ता नापने लगे।
पानी से भरी सड़को को देख के एक बार फिर बाल-मन ललचाया. मन किया छपाक से कूद पड़े। पर माँ ने मना किया था। एक बार फिर से उसने अपनी ज़ेब में रखे नोट को देखा , कही खो न जाये। बड़े संभाल के एक बार फिर से उसे पॉलिथीन से निकला और ठीक से पैक कर के वापिस अपनी जेब में डाल दिया।
“नाँव की रेस लगता ही क्या?” एक चिर परिचित आवाज़ ने बबलू के कदम फिर से रोक लिए।
सामने सरजू खड़ा था ,उसका एकमात्र साथी ।
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दो कश्तियाँ मटमैले पानी को चीरती हुई आगे बढ़ रही थी। पीछे से दो बचपन की परछाइयाँ छड़ियों से अपनी अपनी नॉव के केवट बने थे । क्या बरसात और क्या सर्द हवाएँ ? क्या कीचड़ और क्या गड्ढे ,दोनों को जैसे अब कुछ दिखता ही ना था। दिख रही थी तो बस अपनी अपनी नौकाएँ और थी तो बस एक दूसरे से आगे जाने की होड़।
दोनों कागज़ की कश्तियाँ अनवरत चली ही जा रही थी कि बबलू की नौका नाले में पड़े कचरे में अटक गई सरजू की कश्ती विजय रेखा की और तेजी से बड़ चली। बबलू ने अपनी छड़ी से कचरे में फसी नौका को निकलने का प्रयत्न किया पर जितना वो उसे निकलता उतना और वो धस जाती। लगातार गीले होने के कारण कागज़ भी गल गया था।
“अरे क्या हुआ? हो गयी तेरी टाँय -टाँय फ़िस्स ?” सरजू का ये तंज बबलू को ज़रा न भाया।
हार? बबलू की हार? नहीं,ये तो सरासर अपमान है ,बबलू का भी और उसकी नौका का भी। अब तो आर या पार , एक हाथ से बरसाती संभाली और दूसरे हाथ से नाँव निकाल ही रहा था की अधफटी जेब से प्लास्टिक का पुलिंदा नाले में जा गिरा। एक क्षण में पानी ने प्लास्टिक की छोटी थैली के अंदर अपना कब्ज़ा ज़मा लिआ। जब तक बबलू का विवेक जागता तब तक कागज़ का वह छोटा पुर्जा प्लास्टिक से पानी की भेंट हो चला। तेज़ बहते नाले ने नोट गटर को समर्पित कर दिया।
धक्क… ये क्या हुआ? बड़े जतन से संभाला हुआ नोट पानी में गिर गया था। दो पल के लिए जैसे सारा संसार थम सा गया हो। घर में क्या जवाब देगा? माँ ने पहले ही कहा था की की नोट संभाल के ले जाना। कहा था, कही न रुकना, सीधा लाला के पास जा के सौदा ले आना।अब क्या होगा? आज न बचा पायेगा कोई,घर पर पड़ा आखिरी दस का नोट था शायद। माँ बहुत पीटेंगी। बबलू का सर चकरा गया।
सोच -सोच के उसका चेहरा भी स्याह हो चला था। उसने एक नज़र पानी में पिघलते नोट पे डाली और दूसरी सरजू की ओर । थोड़ी देर कुछ सोचा। अँधेरे में रौशनी की किरण नज़र आई। दूर खड़े सरजू को देखा जो अपनी जीत भूल कर विस्मय और असंमजस में खड़ा अपने दोस्त पे आई विप्पत्ति का मूक दर्शक बना हुआ था।
“काम करेगा क्या?” बबलू ने प्रश्न उछाला ।
छपाक-छपाक, बचपन के बेफिक्र दो जोड़ी क़दम पानी की मटमैले परतों पे अपने निशान छोड़ते हुए मेंगाराम की दुकान की और बढ़ चले.
ऊपर आसमान में काले बादल छंट चुके थे। दूर क्षितिज में इंद्रधनुष धरती को चूम रहा था।
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