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I Made My Mother Cry

Published by Durga Prasad in category Childhood and Kids | Family | Hindi | Hindi Story with tag dress | money | Mother

I was in class 8th and wanted a new dress which became mandatory in school. Without money, my mother faces lot of problems for that,read Hindi short story

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Family Hindi Short Story – I Made My Mother Cry
Photo credit: clarita from morguefile.com

मैंने माँ को नाहक रुलाया-

यह बात १९५८ की है जब मैं H igh School Gobindpur  का आठवीं कक्षा का छात्र था. बेसिक स्कूल में आठवीं तक पढ़ने के बाद मुझे नवीं क्लास में दाखिला लेना पड़ा था. कुछ दिनों तक पढ़ने के बाद अचानक एक दिन वर्ग शिक्षक ने NCC  परेड के लिए खाकी ड्रेस– दो पेंट और दो सर्ट अगले सप्ताह तक सिलवा लेने की बात रख दी वर्ना नाम काट दिया जायेगा. NCC परेड में खाकी ड्रेस में ही जाना है , दूसरे ड्रेस में नहीं.

मैं अपनी बात माँ से कहा करता था – दादी या चाचा से नहीं. इसकी खास वजह यह थी कि ये हमारी किसी भी बातों पर ध्यान नहीं देते थे.

हम पढ़े या न पढ़े उनको इससे कोई लेना – देना न था. मेरी माँ  मेरी पढ़ाई के प्रति बहुत सजग रहती थी. मेरे अलावे मेरे दो छोटे भाईयों – गोबिंद और काली पर भी उतना ही ध्यान देती थी. यह बात दीगर है कि जहाँ मैं माँ से पढ़ाई के मामले में कभी झूठ नहीं बोलता था जबकि गोबिंद और काली माँ को अँधेरे में रखकर ठगा करता था, कभी भी सच बात नहीं बोलता था. मेरे मन में एक बात हमेशा याद दिलाते रहती थी कि माँ से हमेशा सच बोलना है और कोई बात नहीं छुपानी है. स्कूल की फीस सही वक्त पर देकर माँ को रशीद दिखा दिया करता था. मेरी उम्र कम थी , लेकिन माँ के साथ कष्टों को सहते- सहते समय से पहले ही व्यस्क हो गया था. माँ बहुत ही कम उम्र में ही बिधवा हो गयी थी और विशेषकर परिवार में मेरी दादी का बात-बात पर माँ पर बेवजह अत्याचार करने का सिलसिला शुरू हो चूका था. इसमें कोई दो मत नहीं कि दादी बड़ी ही निर्दयता से मेरी माँ के साथ पेश आती थी. माँ के सामने तीन बच्चों का परवरिश का सवाल था इसलिए वह खून का घूँट पीकर सब कुछ सहन करती जाती थीं. गोबिंद और काली की इतनी समझ नहीं हुई थी कि वे इन सारी बातों को समझें. वे इन सारी बातों से बेखबर रहते थे.

मैंने उस दिन स्कूल से आकर खाना खाया और खाकी ड्रेस की बात कह डाली. तीन दिनों तक इस बात पर कोई ध्यान ही नहीं दिया गया. अगले दिन रविवार था. सोमवार से ड्रेस में स्कूल जाना था. मैंने माँ को खाली देखकर ड्रेस सिलवा देने की बात रख दी और वो भी आज ही, नहीं तो —-. माँ पता नहीं किस मानसिक तनाव से ग्रसित थी , मैं अनभिग था. उसने पास पड़े डंडे को उठा ली और मुझे बेरहमी से पीटना शुरू कर दिया – पीटती जाती थीं और कहती जाती थी कि मेरे पास पैसे होते तो क्या नहीं सिला देती. तुम्हारा बाप भी तो मुझे कुछ देकर नहीं गया है जो निकाल कर तुझ पर खर्च करूँ.

मैं क्या सुनु या न सुनु , मैं केवल जोर – जोर से रोते ही जा रहा था. सिसकियाँ बंद होने का नाम ही नहीं ले रही थीं. मुझे जैसे ही मोका मिला , मैं गली होकर भाग गया और कुछ दूर जाकर खेत की आड़ वाली करवंज की पेड़ पर चढ कर चुपचाप छुपकर बैठ गया. सुबह से शाम हो गयी फिर भी मैं पेड़ से नीचे नहीं उतरा – ऊपर –ऊपर से ही माँ को एवं घर के दूसरे लोगों को मुझे खोजते हुए मैं देखता रहा. माँ को भी बेतहासा इधर-उधर रोते- कल्पते मुझे खोजते हुए देखा. धीरे – धीरे सूर्यास्त होने लगा – अँधेरा छाने लगा.

पेड़ के पास कुछ लोग रूककर बात करने लगे कि दुर्गा हो न हो इसी पेड़ पर छुपकर बैठा हो, किसी ने कहा, नहीं, कहीं भाग गया होगा, गोबिन्दपुर से बाहर – उसकी माँ का तो रोते- रोते बुरा हाल है. डांगी पहाड़ भी लांघकर बेचारी प्रधनखूंटा तक अपने नैहर तक खोज आई –दुर्गा का कहीं भी अता-पता नहीं – पता नहीं कहाँ चला गया – बेचारी का क्या होगा – सास चैन से भी जीने नहीं देगी उसे – सारा दोष उसी के सर पर मढ  देगी और गाली -गलोज  करेगी सो अलग.  मैं सब कुछ पेड़ पर से सून रहा था और सोच लिया कि माँ के दुखों का साथ देनेवाला एकमात्र मैं ही घर में हूँ – कोई दूसरा नहीं. जो भी हो इन सबों के जाने के बाद मैं घर जाऊँगा और माँ से माफी मांगूंगा – माँ को अब ज्यादा  तकलीफ नहीं दूंगा . लोग धीरे –धीरे अपने –अपने घर चल दिए. मैं पेड़ से धीरे – धीरे सम्हल कर उतरा और बाड़ी के  पिछवाड़े से घर में दाखिल हुआ.

माँ का मन तो बच्चों में ही लगा रहता है . वह मेरे क़दमों की आहट से मुझे पहचान ली और दौड़ कर मुझसे लिपट गयी . अपने को नाना प्रकार से कोसने लगी. मुझे मेरे गालों पर अपने सधे हाथों को फेरते हुए दुलारने- पुचकारने लगी. मेरा बेटा कहाँ चला गया था , दिनभर का भूखा – प्यासा होगा . मुझे ले जाकर रसोई में अपनी गोद में बीठाकर खाना खिलाई . मेरे चेहरे को धोई – हाथ – पैर में तेल मालिस कर सुलाई . मैं थका- मारा तो था ही – साथ ही साथ भूखा- प्यासा भी था.मेरी आँखों में नींद कहाँ थी – मैं पश्छाताप कर रहा था कि मैं ने माँ को बेवजह दुःख दिया है , नाहक परेसान किया है , रुलाया है . काश ,मैं ऐसा न करता और माँ को ऐसी पीड़ा न पहुंचाता जिसका मुझे हक ही नहीं था.

आज माँ के गुजरे २४ साल हो गए लेकिन यह घटना जब कभी मुझे याद आती है तो मुझे एहसास होता है कि माँ पास ही खड़ी मुझसे बोल रही है कि अब कभी इस तरह घर से मत भागना चाहे –

———– ! — !! — !!! मैं एक शरारती लड़के की तरह कह डालता हूँ , “ चाहे मैं कितना भी तुझे पीटूँ ! “

“ बदमास कहीं का “ कह कर मुझे गले लगा लेती है. हवा का एक झोंका आता है ओर मेरा सबकुछ उड़ाकर ले जाता है . मेरे सामने शेष रह जाती है उनकी भूली- बिसरी यादें – यादें महज मुझे रुलाने के लिए !

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