एक ज़माना था जब स्कूलों की पढ़ाई – लिखाई उच्च स्तर पर थी यह बात किसी से छूपी हुई नहीं है | शासन इतना चुस्त व दुरस्त था कि मेरी दादी अक्सरान कहा करती थी कि उस जमाने में बाघ और बकरी एक ही घाट में पानी पीते थे | लोअर प्राईमरी और अपर प्राईमरी और मिडल स्कूलों में अनुशासन इतना सख्त था कि कोई भी लड़का या लड़की कोई ऐसी – वैसी बात के बारे करना तो दूर स्वप्न में भी कभी सोच नहीं सकता था |
हमारा स्कूल पास ही था | पहली घंटी लगने से पहले ही हम पहुँच जाते थे | सबसे पहले सामूहिक प्रार्थना होती थी :
हे प्रभु आनंद दाता, ज्ञान हमको दीजिए |
शीघ्र सारे दुर्गुणों को, दूर हमसे कीजिये ||
लीजिए हमको शरण में, हम सदाचारी बने |
ब्रह्मचारी , धर्मरक्षक, वीर, व्रतधारी बने ||
–पं . रामनरेश त्रिपाठी (४ मार्च १८८१-१६ जनवरी१९६२)
आज सौ से अधिक वर्ष हो गए , फिर भी कई विद्यालयों में प्रार्थना के रूप में इसे गाया जाता है | यह प्रार्थना छः दशकों के बाद भी मेरे मानस – पटल पर गूंजती रहती है, मैं जब तब इसे प्रार्थना स्वरुप दोहराता रहता हूँ | पं . रामनरेश त्रिपाठी जी को मेरा शत – शत नमन !
जाति , रंग , धर्म का कोई भेद भाव नहीं था , किसी की हिम्मत भी नहीं थी प्रार्थना यह नहीं होना चाहिए , वो नहीं होना चाहिए, सरकार ने जो निश्चय कर दिया अब बिना किसी विरोध के पालन होता था | हम प्रार्थना के बाद अपने – अपने वर्ग में चले जाते थे और फिर पढ़ाई शुरू हो जाती थी | छुट्टी के ठीक पहले हमें गिनती एक से सौ तक और पहाडा दो का दो , दो दूनी चार से बीस तक का पहाड़ा खड़े होकर सामूहिकरूप से रोज पढ़ाया जाता था | न तो कोई हिंदू था , न मुसलमान , न सीख , न ईसाई – सभी धर्म व मजहब के लोग मिलजुलकर रहते थे , सभी के पर्व व त्यौहार में खुलकर शरीक होते थे |
जब देश आज़ाद हुआ तो किसी बात में प्रगति हुयी या नहीं हुयी , एक बात में अभूतपूर्व प्रगति हुयी – जाति व धर्म के नाम पर निहित स्वार्थ – सिद्धि के लिए हमें टुकड़े – टुकड़े कर दिए गए और यह बात किसी से छुपी हुयी भी नहीं है किसने किये और किस मकसद से किये |
तो जिस स्कूल में मैं पढता था , उस स्कूल के हेडमास्टर साहेब थे पास ही के गाँव के हैदरअली साहब | बड़े ही कडियल मिजाज के , लेकिन दिल उनका पुष्प सा कोमल था , इसलिए क्योंकि कोई शिक्षक बच्चों के साथ ज्यादती से पेश आते थे तो उनकी नानी याद दिला देते थे |
एक दिन की बात है मेरे एक सहपाठी ने मेरे स्लेट में जो – सो लिखकर गोंज दिया तो मैंने जोर से बाल पकड़ कर पीछे धकेल दिया तो वह गिर पड़ा और उसके होंठ से खून निकलने लगा | फिर क्या था क्लास टीचर ने मुझे चिलचिलाती धूप में मुर्गा बना दिया | मेरी तो जान ही निकली जा रही थी | घूमते – घूमते हेड सर आ धमके और मुझे बड़े ही प्यार से – दुलार से उठाये – सारी बातों की जानकारी ली | अपने साथ लेते आये और सजा के रूप में मुझे दो से बीस तक पहाड़ा सुनाने बोले | फिर क्या था , भरपेट पानी पी लिया , बड़ी जोर की प्यास लगी थी धूप में मुर्गा बनकर वक्त काटने में और मैं तैयार हो गया |
मैं दीवार से सटकर एटेन्सन की मुद्रा में मजे से और जोर – जोर से दो का दो , दो दूनी चार पढते हुए पहाड़ा खत्म कर दिया |
हेड सर आये और बोले : तुम थक गए हो अब घर चले जाओ | एक घंटा पहले ही मुझे छुट्टी दे दी | मैंने बस्ता अपना उठाया और रास्ते भर – “ दो का दो , दो दूनी चार ” पढता हुआ , उछलता – कूदता हुआ घर चला आया |
माँ पूछी , “ आज बहुत जल्द , भागकर तो स्कूल से नहीं आये ? ”
नहीं माँ, हेड सर ने एक घंटे पहले ही छुट्टी दे दी तो मैं दौड़ता हुआ चला आया |
यह दो का दो , दो दूनी चार का रट लगा रहे हो , क्या बात है ?
मैंने सारी बातें बताईं तो माँ हँसते – हँसते लोट – पोट हो गई | वह भी बोल पड़ी : “ दो का दो , दो दूनी चार | ”
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लेखक : दुर्गा प्रसाद | तिथि : १३ मई , दिवस : बुधवार |
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