“तेज़ भागना है चिंटू…देख जीतने पे पहला इनाम साइकिल है..अभी दौड़ लगा दे बस, फिर सारी जिंदगी साइकिल में घूमेगा. “- गोलू, चिंटू का उत्साहवर्धन कर रहा था.
‘पगला गया है तू….बाकी जिंदगी साइकिल में क्यों घूमूँगा, बड़े होकर मैं मोटर साइकिल में घूमूँगा…”- चिंटू ने कहा…
दौड़ कुछ ही देर में शुरू होने वाली थी, और उसके पहले गोलू कोच बना हुआ था, और चिंटू खिलाड़ी जो दौड़ में हिस्सा ले रहा था. जैसे ही सीटी बजी, चिंटू ने दौड़ लगानी शुरू कर दी. गोलू चिल्लाये जा रहा था “शाबाश…चिंटू….शाबाश…”
एक बच्चा, दूसरा बच्चा, तीसरा बच्चा…..और जैसे ही चौथा बच्चा आगे निकला…..चिंटू के दिमाग में भी ईनाम साइकिल से जूते, और जूते से स्कूल बैग फिसल रहा था…
“स्कूल बैग नहीं….साइकिल ही चाहिए….” – चिंटू ने मन ही मन कहा और पूरी ताकत झोंक दी…. मंजिल कुछ ही दूर थी….और धीरे-धीरे घटते से बढ़ते क्रम में चीज़ें आने लगी….स्कूल बैग, जूते और finally चिंटू ने साइकिल को हाथ से ना जाने दिया… और गोलू की जोर से आवाज़ आई….”शाबाश मेरे शेर….”
चिंटू ज़मीन में लेट गया….सांस फूल रही थी, दिल तेज़ी से धड़क रहा था….लेकिन धडकने के पीछे सिर्फ तेज़ दौड़ना नहीं था…साइकिल मिलना भी था…चिंटू लेटे-लेटे सामने रखी साइकिल को देख रहा था..एकटक. जोरदार तालियों के साथ चिंटू के हाथों में साइकिल की चाबी आई.
घर वापस लौटते हुए रास्ते भर गोलू ने चिंटू से ढेर सारी कसमें खिला दी.. धरती माता की कसम, विद्या माता की कसम, और खुद की माँ की कसम की ये साइकिल चिंटू उसे भी चलाने देगा. चिंटू ने हाँ में सर हिला दिया. और साइकिल के पैडल तेज़-तेज़ चलाने लगा…पीछे बैठा गोलू ऐसे मुस्कुरा रहा था, जैसे साइकिल चिंटू ने नहीं उसने जीती हो. गोलू को घर छोड़ने के बाद चिंटू घर में घुसा और उदास सा चेहरा बना लिया…
“कैसे रही तेरी रेस….?”- सिलाई मशीन पर हाथ चलाती चिंटू की माँ बोली..
“हम्म….ठीक थी…- चिंटू ने बनावटी उदासी दिखाते हुए कहा…
“अरे मुंह क्यों लटकाया है….हार-जीत तो लगी रहती है….कम से कम भाग तो लिए तूने…”- माँ ने कहा.
“बाहर कोई तुमसे मिलने आया है…काम छोडो और दो मिनट मिल लो ना…”- चिंटू ने माँ को देखते हुए कहा…
माँ ने सिलाई मशीन पे चलते हाथ रोके और बाहर की ओर जाने लगी…
“कौन आया है…गोलू होगा….उसको अन्दर ले आता.”- माँ के कदम घर के बाहर की ओर जा रहे थे, और चिंटू की आँखें ख़ुशी से चौड़ी होती जा रही थी.. जैसे ही माँ की नज़र बाहर पड़ी चमचमाती साइकिल पर पड़ी उसने पलट के चिंटू को देखा, चिंटू ने माँ की ओर देखा और मुस्कुरा दिया.. कभी कभी भावनाएं शब्दों से बड़ी हो जाती है…और शब्द गुम हो जाते हैं. जब दुनिया में शब्द, भाषा नहीं थे….तब भी इंसान के दूसरे की बात समझ लेता था…. माँ और चिंटू को शब्दों को ज़रुरत नहीं पढ़ी…और माँ ने भाग के चिंटू को गले लगा लिया….चिंटू के पैर लाल पड़े थे…जल्दी से सरसों का तेल लाके, उसमें माँ मलने लगी…
“खूब तेज़ भागा ना तू….पाँव में छाले पड़ गए…”
“पहला जो आना था….”- चिंटू ने जवाब दिया…
“अरे दूसरा भी आ जाता तो कोई बात ना थी…”- माँ ने कहा.
“दूसरा नंबर आता तो, जूते मिलते….वो तो तू आये दिन दे देती है.-” चिंटू ने शरारती अंदाज़ में कहा…
“अब साइकिल का क्या करेगा तू?”- माँ ने बच्चे के मन को टटोलना चाहा…
“मैंने गोलू से बात कर ली है…हम दोनों रोज़ सुबह अखबार बांटने जायेंगे… तू भी तो सारा दिन सिलाई करके थक जाती है… अब तू आराम भी कर पाएगी…”
माँ चिंटू को देखे जा रही थी….एक बार फिर शब्द गुम हो चुके थे, एक बार फिर भावनाएं उमड़ पड़ी थी… माँ सोच में पड़ी थी…इतने छोटे से शरीर में इतनी सारी समझ कब और कैसे आ गई… चिंटू अपने साइकिल में लगी घंटी बजाये जा रहा था…
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