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ANTARDVAND

Published by Durga Prasad in category Friends | Hindi | Hindi Story with tag boy | childhood friendship

मेरे मन में अंतर्द्वंद चल रहा था कि मैं उस संभ्रांत महिला को बता दूँ कि उसे मैं स्कूल डेज से ही जानता हूँ और उसका नाम लक्ष्मी है , लेकिन मैंने बताकर और पुरानी बातों को कुरेदकर उसे लज्जित नहीं करना चाहता था | कई अवसर आये कि मैं अपना परिचय बाल्यकाल की घटनाओं का उल्लेख करके दे दूँ , लेकिन मैंने मन को मजबूत किया और गुजरी बातों को उधेरना अनुचित समझा | कहाँ दस – बारह की उम्र और आज सत्तर – बहत्तर की उम्र | अब हम दादा – दादी और नाना – नानी बन गए , उस वक्त हम महज अबोध बालक – बालिका ही तो थे – दुनियादारी से दूर – दुनियावालों से दूर !

गर्मी काफी थी इसलिए आते ही हम स्नान करके फ्री हो गए |

थकान होती है तो उसी अनुपात में भूख – प्यास भी लगती है |

शुभम ( मेरा नाती जो दुसरी बार परीक्षा में बैठ रहा था ) बाहर खाने और घूमने – फिरने की ईच्छा प्रकट की तो मैंने सिम्पी (संभ्रांत महिला की नतिनी) को भी साथ में ले लेने की बात रख दी |

मेट्रो से मैदान तक चला जाना और आस – पास घूमकर शाम तक लौट आना |
ठीक है |

अब मैं अकेला बैठकर सोच ही रहा था कि क्या खाने का ऑर्डर दिया जाय , उसी वक्त महिला मेरे कमरे में आई और बोली :

अकेले बोर हो रही थी , सोची साथ ही लंच लिया जाय |

आपने ठीक सोचा | मैं भी इसी उधेड़बून में था कि क्या खाऊँ, क्या न खाऊँ ! अब आप आ गई तो सरल हो गया निर्णय लेने में |

आप ही अपनी पसंद के ऑर्डर दीजिए , पर वेज |
मैं भी अब उम्र हो जाने से वेज ही लेती हूँ | अध्यात्म से जूड गई हूँ तो नान वेज जी से उतर सा गया है |
अच्छी बात है |
वेटर ऑर्डर के लिए खड़ा था |
चार तंदूरी रोटियां , एक प्लेट प्लेन राईस , पालक – पनीर एक प्लेट, दाल फ्राई व सलाद – पापड |
ठीक है ?

बिलकुल | इस उम्र में रीच डायट जरूरत नहीं है |

मैं दोपहर को भोजन लेने के बाद घड़ी – दो घड़ी सो लेती हूँ |
मैं भी | क्या करूँ दिनभर काम करते – करते थक जाता हूँ |

वही बात मेरे साथ भी है | भरा पूरा परिवार है | लड़की की नोकरी यहीं आपके घर के पास बालिका विद्यालय में हो गई | कहने भर को दामाद और लड़की अलग रहते हैं , लेकिन पास रहने से कुछ न कुछ जिम्मेदारी निभानी पड़ती है |

चलिए , यही जीवन का मूल मंत्र है कि लगे रहो जबतक शरीर चलता है | बैठ गए तो समझिए … ?
दो पंक्तियों में ही सारी बात कह दी आपने |

खाना आ गया | हम खाकर फारिग हो गए | वह अपने कक्ष में चली गई | मैं भी लेट गया , लेकिन सोने की बजाय अतीत में खो गया |

लक्ष्मी मेरे साथ ही पांचवीं वर्ग में पढ़ती थी | आप को जानकर हैरानी होगी कि वह लड़कों की तरह रहती थी और लड़कों की तरह शर्ट – पैंट पहनकर स्कूल आती थी | हमलोग अगल – बगल बैंच पर बैठा करते थे तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होती थी | मैं उम्र में एक दो साल छोटा ही था | दुबला – पतला भी था | एक लड़का दूसरे लड़के साथ जिस प्रकार हिलमिल के रहता है , खेलता – कूदता है , मैं उसके साथ भी ऐसे ही वर्ताव व व्यवहार करता था तो उसने भी कोई आपत्ति नहीं जताई | दुसरी तरफ वह भी मुझसे घुल मिलकर रहती थी | खेलकूद के लिए एक घंटी निर्धारित रहती थी |

एक बार ऐसा हुआ कि उसने मुझे सर के ऊपर उठा लिया क्योंकि मैंने अनजाने में कोई गलती कर दी थी और बोली :
उठाकर फेंक दूँ कुएं में ?
फेंक दो , देर क्यों करती हो ? मैं जानता था कि वह ऐसा नहीं कर सकती , मुझे डराने के लिए कह रही है |
फिर जमीन पर रखकर कहने लगी , “ बदमास ! ” मैं उन दिनों कुछ नहीं समझ पाया कि मुझे बदमास क्यों बोली थी | जब व्यस्क हो गया तो सारी बातें समझ में आ गई |

वह मुझे एक नम्बर में जाती थी तो मुझे भी साथ ले जाती थी | वह पेशाब करने के लिए झट से बैठ जाती थी तो मैं भी झट से बैठ जाता था | वह डांटने लगती थी :
तुम लड़के हो , खड़े – खड़े पेशाब किया करो , बैठ के नहीं लड़कियों की तरह |

मेरी माँ कहती है खड़े – खड़े पेशाब नहीं करनी चाहिए , भगवान नाराज हो जाते हैं |

ऐसी बात ! तब ठीक है पर मेरी तरफ मत …? … |
कभी नहीं |

मेरी माँ भी यही बात कहती है |
अर्थात लड़कियों को खड़े – खड़े पेशाब नहीं करनी चाहिए |
काफी समझदार हो तुम , मैं तो आजतक नासमझ , बेवकूफ समझती रही |
पर उतना नहीं जितना तुम … ?
वो कैसे ?
मुझे जब तब क्यों गुदगुदाती हो वो भी जहाँ – तहाँ |
ई बात है ! मुझको अच्छा लगता है |
मुझको नहीं |
झूठ !
सच भी हो तो , तुझे क्यों बताऊँ ? मन की बात मन में रहे तो अच्छा लगता है | आज से मत … , नहीं तो मैं भी … ? .. |
एक बार हम दोनों उसी तरह एक नम्बर लेकर निकले | मुझे जोर की पेशाब लगी थी और मेरे नाड़े में गाँठ लग गई थी | मैंने सह्पाटी को बताई | उसने झट गाँठ ही नहीं खोली बल्कि पेशाब करने में मदद भी की | यह घटना मुझे जब तब बचपन के दिनों की याद दिलाते रहती है |

सात वर्ग तक हम साथ – साथ पढ़े – लिखे | अब वह सलवार – कमीज़ दुपट्टे के पोशाक में आने लगी थी |
अब हम दोनों में दूरियां रहने लगी और बातें भी सोच समझकर करने लगे |

एक दिन एकांत में बैठे थे तो मैंने अवसर देखकर प्रश्न कर दिया :
पहले तुम लड़के के ड्रेस में आती थी अब लड़की के ?
इसके कारण है |
क्या मैं जान सकता हूँ ?
क्यों नहीं ?

मुझसे बड़ी चार बहन | कोई लड़का नहीं | हर माता – पिता को शौक होता है कि एक लड़का भी हो | इसी उम्मीद में एक के बाद एक पाँच लड़कियाँ हो गईं | किसी साधू – संत ने कह दिया कि पांचवीं लड़की को लड़के की तरह पालन – पोषण करने से पुत्र की प्राप्ति होगी | डेढ़ साल के बाद ही मेरे बाद मेरा भाई ने जन्म लिया जिसकी देख रेख जब घर में रहती हूँ मैं ही करती हूँ | मेरे बाद है इसलिए मुझसे काफी घुल मिल गया है | वह पास के ही स्कूल में तीसरे वर्ग में पढता है | उसका स्कूल सुबह सात बजे शुरू हो जाता है , इसलिए मुझे ही उसे नहलाना – धोलाना , नाश्ता – पानी करवाना और टिफिन देकर स्कूल पहुंचाना पड़ता है |
तभी तुमको लड़के के बारे में इतनी जानकारी है , जो मुझे भी मालुम नहीं |

माँ ने सब कुछ समझा दिया है कि भाई को कैसे पेशाब – पैखाना कराना चाहिए , नहाना – धुलाना चाहिए , खिलाना – पिलाना चाहिए |

जब तुम माँ बनोगी तो ये सब अनुभव बहुत काम आयेंगे | क्यों ?

सो तो है | माँ भी यही बात कहती है कि आज सीखो तो कल काम आयेंगे |

सोचते – सोचते कब आँखें लग गईं , भान ही नहीं हुआ |

वो तो लक्ष्मी आई और नींद से जगाई कि चलिए बालकोनी में एकसाथ चाय पी जाय |

मैं बेसिन की ओर गया और मुँह – हाथ धोकर उसके साथ चाय पीने बैठ गया |

मेरे मन में अंतर्द्वंद चल रहा था कि अपना परिचय दूँ कि नहीं | यदि देता तो भूली बिसरी यादें जीवंत हो सकती थी तब स्वाभाविक थी कि वह लज्जा से झेंप जा सकती है | इसलिए वह चाहे जो बोले उसे महज सुनना था , न कि परिचय देकर भूली – बिसरी बातों को उजागर करनी थी | जबतक साथ रहे उसने बहुत सी घटनाओं का जिक्र किया , लेकिन मैं अंत तक मौन ही रहा |

जो बीते गई सो बात गई !

–END–

लेखक : दुर्गा प्रसाद | १ दिसंबर २०१६ | वृस्पतिवार |


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