रात 3 बजे जब सारा काम खत्म हुआ तो पुरानी यादों ने घेर लिया.
बेवजह ही बातें भी शुरू हुई, हंसी मज़ाक और जोर के ठहाके…
अच्छी बात तो ये है की साथ में सो रहे रूम पार्टनर को पता भी नहीं चला.
ऐसे ही तो होती हैं यादों से बातें…
बातों-बातों में पता ही नहीं चला कब मौसम ने करबट ली और बारिश की बूंदो के साथ तेज हवा ने मेरी टेबल पर रखी डायरी के पन्नों को खोल दिया..
अक्सर डायरी को देखकर २ चीज़ों की याद आती है…
किसी टीचर के बताये गए इम्पोर्टेन्ट नोट्स या पहले प्यार के लिए लिखी गयीं शायरियाँ , मगर मेरे साथ ऐसा नहीं था.
नोट्स कभी बनाये नहीं और प्यार… खैर जाने ही दो..
मैं यादों को बिस्तर पर छोड़, डायरी के पन्नों को बंद करने के लिए उठा.
“2012 – नव वर्ष की सप्रेम भेंट” डायरी पर गोल्डन स्याही से लिखे हुए शब्द.
3 साल पुरानी, मगर आज भी जवान दिखने वाली डायरी को हाथ में लेकर, मैं मुस्कुरा ही रहा था की तभी मेरी नज़र उन सफ़ेद पन्नों में से झांकते हुए 1 हलके नीले पन्ने पर पड़ी. कुछ सोचते हुए धीरे से उस पेपर को निकला और फिर मुस्कुरा दिया.
ये 1 चिट्ठी थी… 1 बिना पते की चिट्ठी…
असल में ये चिट्ठी मैंने अपने सबसे अज़ीज़ दोस्त को लिखी थी.. वो दोस्त जिससे अब बात तक नहीं होती.
“मेरे प्यारे दोस्त,” – मेरे लफ्ज़ उन शब्दों को पड़ने से खुद को रोक ना सके.
“यहाँ सब कुशल-मंगल है, उम्मीद है वहां भी होगा.
मालूम है कि तू मुझसे नाराज होगा, आखिर इतने दिनों बाद जो कुछ लिख रहा हुँ.
क्या करें दोस्त, जिस दिन से गांव से शहर आया हूँ अपनी पहचान ही खो दी, बस उसी को खोजता रहता हूँ. एक तरफ जहाँ गांव में एक-दूसरे के रिश्तेदारों को भी सब जानते थे वही यहाँ… पड़ोसी की दीवार बहुत ऊँची है.
ठीक-ठाक कमा भी लेता हूं, इतना की कुछ घंटों की खुशियाँ ख़रीद सकूँ…
हां सिर्फ कुछ घंटों की…
सच कहूँ तो यहाँ बड़ी-बड़ी इमारतों ने, छोटी-छोटी खुशियों को कैद कर लिया है, यहाँ न ही तुम्हारी हँसने की आवाज़ गूंज सकती है और न ही उदासी का सन्नाटा…
मुझे अच्छे से याद है,
तू 4 फुट का नाटा-सा मगर हट्टा-कट्टा लड़का और में 5 फ़ीट 1 इंच का सुखा साखा लड़का. झगड़ा तो सिर्फ इस बात का था, कि तेरे सर के बाल मोटे और मेरे पतले थे और तू कहता था कि मोटे बाल अच्छे होते है, चाहे तो नानी से पूछ लो.
तू ननिहाल में ही तो रहता था.
तेरा नाम अनिल से अनिला और अनिला से अल्लाह कैसे पड़ा, ये बात भी तेरी नानी से पता चली थी.
तुझे याद है जब तेरा स्कूल का कोर्स पूरा नहीं था तब तूने एक लड़की की फेयर कॉपी चुरा ली थी और एक बार तो तूने उसकी किताब पर किसी ओर लड़के का नाम लिख दिया था, फिर क्या बजने तो डंका.
कुछ दिन पहले मैं उस लड़की से मिला और उसे तेरी इस हरकत के बारे में बताया..
अब इसे तू अपनी शरारत समझ या मेरे बोलने का तरीका..
की वो लड़की नाराज़ होने की वजाहे… मुस्कुराने लगी.
फिर से तेरी याद आ गयी…
चिट्टी पढ़ते-पढ़ते कब में कुर्सी पर बैठ गया, पता ही नहीं चला. मोबाइल में आये किसी नोटिफिकेशन से ध्यान टुटा.
देखा तो क्लाइंट की मेल थी. वैसे तो मेरी रात ऑनलाइन किसी काम में या फिर मेल के रिप्लाई में ही गुजरती है. मगर आज रिप्लाई करने का मन नहीं हुआ… मैंने मोबाइल को बंद करके टेबल के कोने पर रखा.
बारिश की बुँदे अभी भी खिड़कियों से लड़कर अंदर आ रही थी… चाहता तो खिड़की बंद कर सकता था, मगर…
मैंने चिट्टी का दूसरा पन्ना पड़ना शुरू किया..
“तुझे याद है स्कूल का इंटरवल और वो दीवार, जब हम उससे कूदकर, पास वाले गांव में जामुन खाने जाते थे, और एक दिन तू जामुन तोड़ते पकड़ा भी गया था. उस दिन पता चला कि तू मुझसे भी तेज़ भागता है.
स्कूल बैग!! उसका क्या है, वो तो कोई साथ वाला ले ही आएगा. टेंशन थी तो बस अगले दिन 6th सब्जेक्ट की, मैथ के पाल साहब की…
जरूर पिछले जन्म में हमने उनका कुछ बिगाड़ा होगा, तभी इस जन्म में मार-मार कर बदला ले रहे थे. पर तेरे पास तो हर मर्ज की दवा थी. फिर चाहे वो फ्री की cd-कैसेट्स हो या किसी का फ़ोन नंबर…
फिर ये कौन-सी बड़ी बात थी, लगवाली ट्यूशन पाल साहब से.
पिछली बार जब घर गया था तो गांव में एक न्योता था.
पास में बैठे हुए 1 साथी की पत्तल में गुलाब जामुन देखा तो मन में मुस्कुराया…
तू होता तो ये गुलाब जामुन कब का खा लिया होता.
यहां की हर एक चीज़ से जुड़ी है तेरी याद, और एक तू है की… बिना बताये ही…
अरे!! मैं तो बताना ही भूल गया, कल तेरे शहर सिरसागंज गया था और पता है, बाजार में तेरी माँ मिली थी.
उन्होंने मुझे दूर से ही पहचान लिया और एक हल्की-सी मुस्कान के साथ मेरे पास आने लगी.
ये माँ भी ना…अजीब होती है…
पता नहीं इनको कैसे पता चला की तेरी कहानी का 1 पन्ना, उसके शहर में है.
कितना प्यार करता था तू उनसे, फिर उन्हें ही कुछ बता देता…
माँ मेरे सामने आ खड़ी थी…
उन्होंने मेरी तरफ उम्मीद भरी नज़रो से देखा और फिर वही सवाल पूछा जो मैं सोच रहा था – अनिल कहाँ है ? कुछ पता चला ? कोई फोन ? कोई खत ?
वो सवाल पर सवाल पूछे जा रही थीं और मैं…
मैं चुपचाप बूथ बनकर खड़ा रहा…
करता भी क्या, उनके सवाल का जवाब तो में पहले भी कई बार दे चूका था…
वो समझती क्यों नहीं.
वो चुप हुई तो मेरे सुन्न होंठ हल्के से बुदबुदाये- “नहीं”
ये 1 शब्द, ना जाने कितनी बार बोल चूका था मैं उनसे.
वो थोड़ी देर तक रुकी रहीं जैसे मेरी हां का इंतज़ार कर रही हो और फिर चली गयी.
आज से 2 साल पहले भी जब उन्होंने यही सवाल पूछा था तो सबके कहने पर मैंने ही तो उनसे कहा था- “अनिल गांव छोड़कर किसी बड़े शहर में नौकरी करने गया है… आ जाएगा. वो मेरा दोस्त है, बचपन से साथ है हम, मैं उसको अच्छी तरह से जानता हूँ. वो वापस जरूर आएगा “
2 साल बीत गए मगर तू ना आया…
तब से रो ही तो रही है वो… शायद इतना की आज रोने के लिए आँख का समंदर खाली था.
मैं…
मैं आज भी नहीं रोया…
और ना ही तब जब तेरी मौत की खबर मिली थी…
तूने आत्महत्या की थी…
27 फरवरी, मैं आगरा में था, घर से माँ का फ़ोन आया.
माँ सिसकियाँ लेते हुई बोली- “अनिल ने जहर खा लिया है, हॉस्पिटल में है…बचने के आसार कम है…”
उस पल तेरे साथ बिताया हुआ हर 1 दिन याद आने लगा.. मैं डर गया था…
उस पल आँसू तो आये थे मगर 1 सवाल भी…
रास्ते भर वो सवाल मैंने खुद से कई बार पूछा मगर जवाब तो तुझे देना था. असल में सवाल तो जिंदगी से पूछे जाते है, मौत से नहीं… मौत तो खुद 1 कड़वा जवाब होती है.
तू जा चुका था…
जा चुका था अपना ननिहाल छोड़कर…
जा चुका था अपनी यादों का बैग स्कूल में छोड़कर…
जा चुका था अपना नया पता दिए बगैर …
तू जा चुका था अपने यार को छोड़कर…
मेरे सामने था मेरे बचपन के दोस्त का मृत्य शरीर….और मेरा सवाल…
मैं उस दिन बहुत रोया था जब तेरे सिरहाने बैठकर, तेरे हाथ को अपने हाथ में लेकर, मैंने तेरी लाश से वो सवाल किया…. “बस इतनी सी ही थी दोस्ती ?”
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-Dedicate to my best buddy. Miss you Anil.