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SAHPATHI

Published by Durga Prasad in category Friends | Hindi | Hindi Story with tag Friends | train

कहीं कोई सहपाठी से मुलाक़ात अचानक हो जाय वो भी सालों बाद तो कितनी खुशी होती है इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता |

मेरी नतिनी एवं नाती का बंगाल जोयेंट का एक्जाम था और उन्हें लेकर मैं दो दिन पहले ही कोलफिल्ड एक्सप्रेस से कोलकता जा रहा था | काफी रश की सम्भा नाओं को मद्देनज़र रखते हुए सीट आरक्षित करवा लिया था , इसलिए निश्चिन्त था |
ट्रेन खुलने में अभी कुछ देर थी कि बगलवाली सीट में एक सम्भांत महिला एक युवती के साथ आकर बैठ गई |
ट्रेन गंतव्य की ओर चल दी | उसने अपनी अटैची दोनों पाँव के बीच रखकर सिकुड कर बैठ गई और लड़की उसके बगल में |
मुझसे रहा नहीं गया तो बोला , “ अटैची को ऊपर रख देता हूँ अपनी अटैची के बगल में ताकि आप आराम से बैठ सकिए |

ठीक है |
आप कहाँ तक जायेंगी ?
हावडा तक | आप ?
मैं भी हावडा तक | नतिनी को बेंगाल जोएन्ट दिलाने ले जा रही हूँ |
मैं भी नाती और नतिनी को उसी के लिए ले जा रहा हूँ | दो दिन पहले ही जा रहा हूँ रश से बचने के लिए |
मैं भी |

कहाँ रहेगीं ?
ऐसे तो कोई निश्चित नहीं है , लेकिन एस्प्लेनेड में ही रहूंगी क्योंकि वहाँ से सभी जगह की गाड़ी मिल जाती है |
मेरे साथ रह सकती हैं | कपूर लोज में | मैंने तो दो रूम बुक कर दिए हैं | आप के लिए एक बुक कर सकता हूँ | मैनेजर मेरे गाँव का ही है |
तो कर दीजिए न !

नम्बर मिलाया , खां साहब ही उठाये | एक रूम और बुक कर दिए १८ से इक्कीस तक |
हम बिलकुल आमने – सामने बैठे हुए थे , लेकिन दोनों ही मौन थे | आँखें मिलीं तो जैसे उसके होंठ कुछ हिले | फिर अपने को रोक नहीं सकी और बोली : यदि मैं गलत नहीं हूँ तो आप गोबिन्दपुर से आ रहे हैं ?

बेशक !
आपका घर बीच बाजार में है ?
बेशक !
आप गोबिन्दपुर उच्च विद्यालय में शिक्षक थे ?
बेशक !
आप तीन – चार वर्षों तक गाँव में ही काम करने के पश्च्यात कहीं सुदूर शहर में नौकरी पर चले गए थे |
सच है ?
फिर घूमते फिरते चौदह वर्षों बाद गोबिन्दपुर लौट आये थे ?
यह भी सही है |
इतनी जानकारी तो शायद मेरे सगे – सम्बन्धी को भी नहीं है फिर आपको ?
इसके कई कारण हैं |
क्या मैं जान सकता हूँ उन कारणों को ?
क्यों नहीं ? लेकिन बार्तालाप में थोड़ी असुविधा हो रही है |

मैंने अपनी नतिनी को उनकी नतिनी के बगल में बैठने के लिए कह दिया और उसे अपने बगल में विंडो सीट पर बैठने के लिए कहा |

ट्रेन दुर्गापुर स्टेसन पर रुकी | चाय – चाय करते हुए होकर पास से गुजरा ही था कि मैंने पूछ बैठा :
एक – एक प्याली चाय हो जाय !
क्यों नहीं !
हम शांत चित से चाय की चुस्की लेते रहे , वह तो मुझे सर्वांग पढ़ चुकी थी , लेकिन मैं उसे पढ़ने के लिए अपने मष्तिष्क पर जोर दे रहा था |

आप भले मुझे न पहचान पाए पर मैं आप को सालों से पहचानती हूँ |
वो कैसे ?
वो ऐसे कि कि आप की कद काठी जो पचास साल पहले थी , आज भी वही है |

यह बात आप ही नहीं अपितु कई सहपाठियों ने पचासों साल बाद मिलने पर किया है | आप भी उनमें से एक हो सकती हैं |
हो सकती नहीं , हकीकत में हूँ |

क्या मैं …? बीच में ही टपक पड़ी चूँकि वह मुझसे कहीं ज्यादा व्याकुल थीं |
पहले इस राज का खुलासा कीजिये |
समझा नहीं |
कि आप अब भी वैसे ही हैं जैसे पचास साल पहले थे | क्या कारण या वजह है कि आपने …?

बस पञ्च – तंत्र हैं :

१. पहले खाने के लिए जीता था , उम्र के साथ – साथ जीने के लिए खाना प्रारम्भ कर दिया |
२. चवन्नी भर खाना , अठन्नी भर पीना और रुपये भर काम करना |
३. राजकुमार की तरह जलपान , राजा – महराजा की तरह भोजन और रानी – महरानी की तरह रात्रि – भोजन |
४. सकारात्मक सोच
५. प्रसन्नता – स्वं रहना और दूसरों को रखना |

इन पञ्च – तंत्रों को अपने जीवन में उतारने का पालन नहीं किया बल्कि महज प्रयास किया , बस क्या था यही प्रयास शनैः – शनैः जीवन का अभिन्न अंग बन गया |

तबतक ट्रेन हावडा घुस गई | हम सम्हलकर भीड़ – भाड़ से बचते हुए अंत में उतर गए |
बाहर निकलकर प्रीपेड टेक्सी ली और कपूर लोज चले आये |

लगातार पाँच – छः घंटे की जर्नी से इतने क्लांत थे कि आगे की कोई बात अधर में ही अटक कर रह गई |

–END–

लेखक : दुर्गा प्रसाद | २८ नवंबर २०१६ | सोमवार |


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