इडली वाले चाचा
मेरा बचपन कई सारी कहानियों के बीच बीता है, काबुलीवाले चाचा की कहानी उनमें से एक थी. अक्सर अपने मोहल्ले में मैं किसी गोले वाले, भेल वाले, इमली-चूरन वाले चाचा में, किसी ना किसी की परछाईं ढूंढती ही रहती थी. छोटी सी उम्र में ही मैंने काबुलीवाले कहानी के काबुलीवाले की एक काल्पनिक छवि बना ली थी और हर एक फेरी वाले चाचा के चेहरे में मैं वही चेहरा ढ़ूंढ़ती थी. धीरे-धीरे बचपन चला गया और उसके साथ साथ मेरी कहानियां भी चली गयीं. मेरी कहानियां सिर्फ कहानियां ही नहीं थी, वह मेरी दोस्त भी थीं, मेरी कल्पना से जन्मी ,मेरी ही विस्तृत अभिव्यक्तियाँ थीं
उस कहानी और उसके अनेक किरदारों ने मेरे व्यक्तित्व पर बहुत गहरी छाप छोड़ी है. अक्सर मैं भीड में भी कहानियां ढूंढती हूं. ऐसे ही एक दिन खिड़की पर खड़े-खड़े मैं रास्ते से गुजर रहे लोगों को देख रही थी. आज कल सड़कों पर ज़्यादा लोग नज़र नहीं आते हैं. वह अक्सर अपने अपने वाहनों पर बैठकर रास्ते नापते हैं. रास्ता लम्बा और सफर छोटा होता जा रहा है. धैर्य और सहनशीलता नामक कौशल मानो परग्रही हो गया है. एक अजीब सी कश्मकश में लोग भागे जा रहे हैं, वे अगर रुकते भी हैं तो सिर्फ तमाशे देखने के लिए.
ऐसे ही एक शाम अपनी खिड़की पर खड़े खड़े मैंने एक आवाज़ सुनी. वह आवाज़ एक ठेले के हॉर्न से आ रही थी. ठेला एक साइकिल से बंधा हुआ था और साइकिल एक इंसान खींच रहा था. वह कुछ बेच रहा था, तभी मिसर्ग नामक लड़का मेरे सामने वाले घर से आया, मैं उसे जानती थी. उसके हाथ में एक कटोरा था, मैंने उससे पूछा, “यह क्या बेच रहा है”,
उसने कहा, “दीदी यह इडली वाला है, खूब अच्छी इडली है इनकी, २० रुपये की ४ इडली देता है, आप भी ले लो”.
मैंने स्वाभाविक सहजता से इडली वाले भैया को देखा, उनके चेहरे पर स्नेह था, वह मुस्कुराये. यह सिलसिला रोज़ का था, वह आते थे और मिसर्ग के घर के बाहर खूब हॉर्न बजाते. कभी मिसर्ग आता तो कभी उनकी नौकरानी. अक्सर खिड़की से मैंने मिसर्ग और इडली वाले चाचा को काफी बातें करते हुए देखा था. मिसर्ग को देखते ही चाचा खिल उठते थे, मिसर्ग को भी उनसे स्नेह हो गया था.
ऐसे ही एक दिन मैं खिड़की के किनारे बैठकर किताब पढ़ रही थी, तभी मैंने वही हॉर्न सुना. रोज़ की तरह वह मिसर्ग के घर के बाहर रुके, १५ मिनट तक हॉर्न बजता रहा. ना मिसर्ग आया और ना उसके घर से कोई बाहर निकला. वह आस पास देखकर चले गए. कुछ दिनों बाद मैंने वही हॉर्न वापस सुना, कुतूहल से मैं वापस खिड़की पर गयी, चाचा फिर वहीं खड़े थे, वह व्याकुल थे. उनके चेहरे पर कई सवाल थे और आँखों में किसी की खोज. वे काफी देर तक हॉर्न बजाते रहे, उनकी नज़र मिसर्ग के घर पर ही थी, वे बार बार ऊपर देखे जा रहे थे. कुछ दिन ऐसे ही बीते, वे आते, हॉर्न बजाते और निराश होकर चले जाते. एक दिन उन्होंने काफी विचारविमर्श के बाद मिसर्ग का दरवाज़ा खटखटाया, दरवाज़े पर मिसर्ग के घर की नौकरानी थी.
बड़ी मुश्किल से उनके मुँह से शब्द निकले, “बेटा वह मिसर्ग को काफी दिनों से नहीं देखा, सब ठीक तो है”,
यह सुन उनकी नौकरानी बोली. “मिसर्ग बाबा तो अपनी पढ़ाई पूरी करने विदेश चले गए है, कुछ काम था क्या चाचा?”.
यह सुन चाचा कुछ ना बोल पाए, वे अपने ठेले के पास अाये और कुछ देर बैठ गए. काफी वक़्त तक वे बस बैठे रहे, मानो किसी याद नामक वाहन पर बैठकर वह ज़िन्दगी का सफर नाप रहे थे. इतने में एक ग्राहक आया, चाचा ने गमछे से आंख पोछी और इडली बनाने में लग गए. एक के बाद एक, चाचा की सारी इडली बिक गयी. वे साइकिल पर बैठकर उसे खींचते हुए कहीं दूर निकल गए. उस दिन चाचा सिर्फ ठेला ही नहीं, एक यादों की बारात खींचते हुये चले गए.
उस दिन के बाद मैंने ना ही कभी वह हॉर्न सुना और ना ही कभी उन चाचा को देखा. सुना है कि अब चाचा पास ही के दूसरे मोहल्ले में इडली बेचते हैं.
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