मैं सोच रहा था या यूँ कहें कि मैं सोचता रहता हूँ कि क्या मैं बैल हूँ? मेरे एक मित्र बोले कि आप सोचते बहुत है और सोचने में ही अपना समय बर्बाद करते रहते है। आप जो हैं उसे घोषित कीजिये न। इसके बाद न आपको कोई संशय रहेगा और न दूसरों को आपके बारे में गलतफहमी रहेगी। आप भी इत्मीनान हो जाइयेगा। बेकार के उहापोह में नहीं रहिएगा।
वैसे तो हर आदमी या तो खुद जानवर होता है या जानवर पालता है – जानवर के रूप में या मनुष्य के रूप में। मैं मनुष्य से जानवर और जानवरों में बैल कब बन गया मुझे पता ही नहीं चला। कोई – कोई तो जन्मजात बैल होता है। बैल यानी किसी भी वजन की गाड़ी को खींचने में सक्षम। किसी – किसी को कुछ अरसा बीतने के बाद पता चलता है कि वह तो बैल पैदा हुआ था, और घोड़े जैसा चलन अपना रहा है। लोगबाग भी उसे बार – बार याद दिलाते रहते हैं कि तू तो बैल है, तू बैल ही है। तब उसे अपनी असलियत का अहसास होता है और वह घोड़ा से बैल बन जाता है।
किसी गृहस्थ के यहाँ जब गाय के रूप में दुग्ध अमृतदायिनी माँ को बछड़ा पैदा होता है तो गाय से ज्यादा गृहस्थ खुश होता है। क्योंकि गाय की खुशी को मापने के लिए किसी खुशीमापक यंत्र का अभी तक आविष्कार नहीं हुआ है। उसकी खुशी के कई कारण होते है लेकिन मुख्य दो कारण दृष्टिगस्त होते हैं- एक, गाय को जो बछड़ा पैदा हुआ है, वह बड़ा होकर बैल बनेगा। उसकी अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींचने में बैल की सख्त जरूरत है और आगे भी जरूरत रहेगी। दूसरी, उसकी गाय दुधारू हो गई, जिसके दूध से उसका छोटा बेटा भी पलेगा और गाय का बछड़ा भी। इसतरह दो – दो बैल एक साथ पलेंगे, एक उसका लड़का भी आगे चलकर बैल का कर्तब्य निभाएगा और बछड़ा तो बैल होगा ही।
पालतू जानवरों में मुख्यतः तीन जानवर ऐसे रहे हैं जिनका मनुष्य की सभ्यता के विकास में मुख्य योगदान रहा है। ये जानवर ऐसे रहे हैं जिन्होंने मनुष्य जाति का बोझ भी ढोया है और उसे विकास के रास्ते पर भगाकर उसको गति भी दी है। ये जानवर हैं : घोडा, बैल और गदहा. इन तीनों में दो चीजें कॉमन रही हैं। एक, ये तीनों शाकाहारी रहे हैं, और तीनों स्वामीभक्त भी रहे हैं.
इनमें घोडा वजन भी ढोता रहा है, चालाक और स्वामीभक्त भी रहा है। और मनुष्य को वेग से गतिमान करने में भी भूमिका निभाई है। इसीलिये इसकी शान में कसीदे भी पढ़े गए है,
“ओ, पवनवेग से उड़ने वाले घोड़े,
तुझपर सवार है जो,
मेरा सुहाग है वो…”
घोड़े की युद्ध में बड़ी भूमिका रही है। घोड़ों में राणा प्रताप के घोड़े चेतक का नाम अभी तक इतिहास के पन्नों में अंकित है। इसीलिये उस जमाने में हर मनुष्य जो गति पकड़ना चाहता था वह घोडा अवश्य रखता था। इस इक्कीसवीं शताब्दी में हर आदमी दूसरे को घोड़ा बनाकर आगे बढ़ जाने की जुगत में रहता है। Everyone wants to take a ride on others.
इस जमाने में भी लगभग सभी लोग जन्म से घोड़े ही होते हैं। अपनी जिंदगी को गति देना चाहते हैं। कौन उसके ऊपर सवारी करके और ऊपर चढ़ना चाह रहा है, इसकी कोई परवाह नहीं होती। चलो भाई, तुम्हें भी चढ़ाये चलता हूँ, हमें कोई तकलीफ नहीं है। लेकिन जब वही आदमी उसके सहारे ऊपर सीढ़ियां चढ़कर पहुंच जाता है और उसे वापस लौटने को कहता है, तब पता चलता है कि उसका इस्तेमाल किया गया है। तब उसे अपने घोड़ेपने पर इतराने की बजाय शर्म आने लगती है। इसी घोड़ेपने के उत्साह ने उसे गधेपने पर उतार दिया; सिर्फ बोझ ढोने लायक..
तब बॉस का फरमान आता है, तुझे बैल घोषित किया गया है, और वह फूला नहीं समाता है। गधा बनने से बैल बनना अच्छा है।
घोड़े को छोड़कर अब जरा बैल और गदहे पर अपना ध्यान लगाएं। बैल और गदहे में बहुत – सी समानताये होते हुए भी बैल डिग्री में थोड़ा बीस ही बैठता है। दोनों ही बोझ ढोने के काम आते हैं। परन्तु बैल बोझ ढोने से अधिक बोझ खींचने के काम आता है। चाहे हल जोतने में हल खींचना हो या बैलगाड़ी पर रखे बोझ को खींचना हो। कभी – कभी मनुष्य नामक बैल – प्राणी गधे के साथ – साथ बैल पर भी लदनी (यानि पीठ पर चावल या ईंटो का बोझ लादकर एक जगह से दूसरे जगह ले जाना) का काम करने लगता है, तो बैलों को बहुत कोफ़्त होती है। लेकिन फिर यह सोचकर मन को आश्वस्त कर लेता है कि आदमी भी तो बैल ही है, जो इतने सारी जिम्मेवारियों का बोझ उठाये हुए जीए चला जा रहा है। बैल को बैल का साथ देना चाहिए…
बैल के बोझ ढोने में और आदमी के बोझ ढोने में समानताएं हैं। बैल भी कंधे पर या कंधे से ही बोझ खींचता है या दूसरे शब्दों में कहें तो बोझ उठाने का कार्य करता है। आदमी भी कंधे पर ही उत्तरदायित्वों का बोझ ढोए चलता है। बैल रात में किसान द्वारा नाद में लगाये गए भूसा -चोकर आदि खाकर मस्त हो जाता है। सुबह में पुनः हल को कन्धा लगाकर खींचने के लिए तैयार हो जाता है। बैल की इन्हीं खूबियों के कारण भगवान शंकर ने उसे अपना वाहन बनाया होगा।
उनके पास अधिक विकल्प नहीं रहे होंगे। सिंह की सवारी तो देवी जी के लिए रिज़र्व हो गया था। भैंसे को यमराज ने अपने गैराज में बाँध लिया था। सूर्य ने तो हद ही कर दी। एक साथ सात घोड़ों की सवारी करने लगे। हाथी को इन्द्र लेकर चल दिए। जब काम लायक पशु नहीं बचे, तो देवताओं ने पंछियों का रुख किया। पंछियों में सबसे शक्तिशाली पंछी गरुड़ को विष्णु भगवान ने पकड़ लिया और उसपर सवार हो गए। लक्ष्मी जी ने उल्लू को उल्लू बनाया और उसपर सवार हो गईं। ब्रह्मा जी बत्तख, सरस्वती जी हंस पर, शनि महाराज कौवे पर उड़ चले. पवन पुत्र हनुमान जी तो बिना किसी वाहन के ही उड़ने में सक्षम थे। मोर पर कार्तिक जी, चूहा पर गणेश जी सवार हो गए। यह तो अपना फैमिली मैटर था। इसमें कुछ विवाद करना ठीक नहीं था। अब कोई ऐसी सवारी चाहिए थी जो भगवान शंकर और माता पार्वती को सहर्ष ढोने में सक्षम हो। बैल या कहें बुल्ल ने किसी को भी अपनी पीठ पर नहीं बैठाया था। नंदी नामक बुल्ल ने यह जिम्मेवारी सहर्ष उठाई. बैल जाति को इसका गौरव प्राप्त हुआ और इसतरह बैलों को जो सम्मान महादेव ने दिया उससे बैल अभी भी अभिभूत हुए बोझ खींचने का कार्य किये जा रहे हैं।
लोगों के बीच में यह कहानी मशहूर है, “एक दिन गदहे के मालिक ने अपनी बेटी की बेवकूफी पर डांटते हुए कहा था, तू अगर ऐसी ही हरकतें और बेवकूफियां करती रही तो तुम्हारी शादी किसी गदहे से कर दूंगा।”
गदहा यह सब सुन रहा था। वह अति संवेदन शील होकर सोचने लगा (कभी – कभी यह काम भी वह कर लेता था), हे भगवन, मेरे मालिक की बेटी से ऐसी बेवकूफियां करवाते रहो, किसी – न – किसी दिन तो मेरी शादी उससे हो ही जाएगी!!
और इसी खुशफहमी में वह अपने मालिक का बोझ भी उठाता जा रहा है और उसके डंडे भी खाता जा रहा है।
ये सारी बातें बगल में गौशाले में नाद में भूषा और चोकर खाता हुआ बैल भी सुन रहा था। उसने भी अपने मन में एक खतरनाक योजना बनाई, “वैसे तो इसकी संभावना बहुत ही कम है कि मालिक अपनी बेटी की शादी उस गदहे से करेंगे। क्योंकि उससे ज्यादा तंदुरुस्त, बाँका, छरहरा, अधिक बोझ ढोने वाला और आर्थिक रूप से मालिक को अधिक सप्पोर्ट देने वाला उसका प्यारा, दुलारा, बैल जब सामने मौजूद है तो गदहे को अपने दामाद चुनने की क्या जल्दी पडी है। अगर किसी मजबूरी में या किसी कारणवश वह गदहे को ही अपना दामाद बनाने को उद्धत हो जांय, तो भी उसके मन में एक योजना है।
गदहे के साथ फेरे लेने के बाद उनकी कन्या गदहे की पीठ पर बैठकर तो विदा होगी नहीं। मालिक उसे बैल गाड़ी पर ऊपर से कनात द्वारा बने शेड जिसे ओहार भी कहा जाता है, के अंदर अपनी बेटी को बिठाकर ही विदा करेंगे। मैं उस कन्या को खींचने में कितनी खुशी महशूस करूंगा! उसकी कल्पना से ही मेरा मन पुलकित हो उठता है। गदहा तो साला गदहा ही रहा। उसे तो नीचे जमीन पर पैदल ही चलना होगा। बस गाड़ी जैसे ही गांव की शरहद से पार होगी, मैं गाड़ी को तेजी से भगा ले जाऊँगा। मैं मालिक की बेटी को हाईजैक नहीं, नहीं बैल्जैक कर लूँगा। दूसरे दिन अखबारों में निकलेगा, टी भी पर दिखाया जायेगा, “एक मालिक ने अपनी कन्या की इच्छा की विरुद्ध एक गदहे से उसकी शादी करनी चाही। बिदाई बैलगाड़ी पर हुई। बिदाई के बाद बैलगाड़ी को खींच रहे बैल ने उसे बैलजैक कर लिया। लगता है वह कन्या भी बैल को अंदर – अंदर चाहती थी, उससे प्यार करती थी। इसीलिये उसने भी इसका विरोध नहीं किया। कहीं इसमें बाहरी शक्तियों का तो हाथ नहीं। इसपर अनुसंधान जारी है।”
भविष्य की ऐसी सुनहरी कल्पनाओं में हम वर्तमान के बोझ को ढोये जा रहे है, या तो गदहा बनकर या बैल बनकर…
एक दिन नाद में भोजन करता हुआ बैल सोच रहा था, “हमारी भी क्या जिंदगी है? बोझ खींचते और ढोते – ढोते हमारी जिंदगी भी बोझ बन गई है। सुबह होते या तो हल में या बैलगाड़ी में जुत जाना पड़ता है।..और वह देखो मेरा बड़ा भाई बुल्ल जिसे साँढ़ के नाम से लोग जानते हैं, इधर – उधर सबके नाद में मुंह मारते चलता है। पब्लिक का भी उसे ध्यान नहीं है। बिलकुल ओपन में, खुले में फ्री सेक्स करता है और लोग उसके लिए तालियां बजाते हैं, उसके लिए उसे प्रोत्साहित किया जाता है। मेरे किसान ने तो मेरी अंडू तोड़कर मेरी नसबंदी कर दी है। मैं चाहकर भी खुले में कुछ कर नहीं सकता। न ही मेरी कोई संतान पैंदा हो सकती है। कैसी जिंदगी जी रहा हूँ?”
फिर कुछ सोचकर वह मुस्कराने लगता है, “हमलोगों को भारत के आज़ाद होने के बाद थोड़ा सम्मान मिला था जब एक दल ने जोड़ा बैल को अपना चुनाव चिह्न बनाया था। लोग हमें भी राजनीति की सीख देने वाला एक गुरु मानने लगे थे। यही नहीं, हिन्दी के महान कथाकार प्रेमचंद ने तो मेरे दो साथियों हीरा और मोती को “दो बैलों की आत्मकथा” का पात्र बनाकर अमर ही कर दिया। अभी के समय में जबसे खेत जोतने और बोझ ढोने के लिए मशीन आ गए हैं, तबसे मेरा महत्व बिलकुल ख़त्म हो गया है। हमलोग बैल नहीं रहे. अब तो आदमी ही बैल हो गया है, तभी से बैलों का महत्त्व घटता जा रहा है।”
एक लम्बी कहानी को संक्षिप्त करते हुए यह कहा गया है कि मनुष्य की अपनी जिंदगी तीस वर्ष की ही होती है। ईश्वर ने गदहे या बैल को पचास साल के जिंदगी दी थी। उन्होंने भगवान से प्रार्थना की कि बोझ ढ़ोने और डंडे खाने की जलालत वह इतने लम्बे समय तक नहीं झेल सकता। इसलिए, हे भगवान, मेरी जिंदगी के अंतराल को कम कर दिया जाय। तो भगवान ने उसे बीस वर्ष दिया। मनुष्य शुरू से ही लालची रहा है। उसने भगवान से इच्छा प्रकट की, “भगवान, आप गदहे या बैल की जिंदगी के तीस वर्ष जो काटे हैं, वे मुझे दे दीजिये।” भगवान ने ‘एवमस्तु’ कहा। तबसे मनुष्य जन्म से तीस साल के बाद आगे के तीस साल गदहे या उससे थोड़ा डिग्री ऊपर बैल की जिंदगी जीता है। मैं यहाँ पर थोड़ा इत्तफाक रखता हूँ। मनुष्य की औसत उम्र जबसे बढ़कर अस्सी से सौ के आसपास पहुँच गई है तबसे मनुष्य के ‘बैलपूर्वक’ जीने की मियाद भी बढ़ गई है। अर्थात जबतक मनुष्य काम करने लायक रहता है तबतक वह बैल की जिंदगी जीता है। यही सब सोचकर मैंने अपने को आज, अभी ही बैल घोषित किया है। आप किस सोच में पड़ गए? क्या आप अभी भी अपने बारे में सोच ही रहे हैं कि “क्या मैं बैल हूँ?”
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-ब्रजेंद्र नाथ मिश्र
तिथि: 04-08-2015.
वैशाली, डेल्ही एन सी आर
गाजिआबाद, (यु पी)