जूते का दर्द(Joote ka Dard) : This is a Hindi Story about me and my shoes. Once, I bought a pair of shoes but both shoes were different in size. I returned that shoes after wearing one week.
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Funny Hindi Story – Joote ka Dard
Photo credit: jdurham from morguefile.com
रविवार का दिन था। मैं अपने रोजमर्रा के काम से निबटकर ख़ुशी – ख़ुशी बाज़ार की ओर चल दिया। क्योंकि मेरे पुराने जूते की आयु लगभग पूरी हो चुकी थी, और वह अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर था। रास्ते में कभी भी उसका देहांत हो सकता था, और उसके स्वर्गवासी होने पर मुझे जो हार्दिक पीड़ा होती, उसका आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं। और ये दुर्घटना कब, कहाँ और कैसे घटती इसकी भविष्यवाणी करना नामुमकिन तो नहीं पर मुश्किल जरूर था। जूते को लेकर मेरे साथ कोई अनहोनी घटना घटे, इससे पहले मैं उसका कुछ उपाय कर लेना चाहता था। इन्ही सब बातों में मग्न मैं कब बाज़ार पहुंच गया, मुझे पता ही नहीं चला। बाज़ार पहुँचते ही मैं सीधे जूते – चप्पल की दुकान में गया क्योंकि मेरा पहला लक्ष्य था जूता खरीदना, उसके बाद ही मैं कोई और काम करना चाहता था। दुकान में दो लड़के करीब बारह – पन्द्रह साल कि उम्र के होंगे।
मैंने एक लड़के से बोला – “भाई, जरा जूता -वूता दिखाओ।”
लड़का – “किस टाईप के जूते दिखाऊँ भैइया, फॉर्मल या …………. ”
मैंने कहा – “फॉर्मल ही दिखाओ।”
लड़का – “किस रेंज में दिखाऊँ, भैइया।”
मैंने पूछा – “तुम्हारे यहाँ शुरु कितने से होता है? ”
लड़का – ” भैइया शुरू होगा 400 से , ऊपर जितना जाओ ”
मैंने कहा – “एक काम करो, तुम शुरू से दिखाओ।”
लड़के ने मेरे सामने चार – पांच जोड़ी काले रंग के जूते रख दिए। सब अलग -अलग डिजाईन के थे। सभी जूते सुन्दर और आकर्षक थे। टिकाऊ कितने थे ? इसका न मुझे पता थे न उस लड़के को। करीब मैं दस – पंद्रह मिनट तक उन जूतों में उलझा रहा। कभी किसी का डिजाईन पसंद आता तो किसी का साइज़ नहीं मिलता, किसी का साइज़ मिलता तो किसी का डिजाईन पसंद नहीं आता। मैं सोंच रहा था कौन – सा लूँ कौन सा न लूँ, जैसा की अमूमन मेरे साथ खरीदारी में होता है। मैं किसी निष्कर्ष पर पहुँचता इससे पहले ही उस लड़के ने मुझे टोक दिया, ” भैइया जूता ही लेने आए हो, या कुछ और। ” क्योंकि अब तक उसकी दुकान में दो – तीन और ग्राहक आ चुके थे। मुझसे भी चुपचाप रहा न गया, मैंने बोला – ” नहीं मैं तो यहाँ सेब खरीदने आया हूँ। ” लड़के को जब लगा की उसके ईंट का जवाब पत्थर से नहीं बल्कि लोहे से दिया जा रहा है, तो उसने बात पलटते हुए कहा – ” नहीं भैइया, मैं तो पूछ रहा था कि कोई पसंद आया की नहीं। ”
मैंने एक 9 नंबर का जूता हाथ में उठाते हुए पूछा – ” इसका कितना पड़ेगा ?”
लड़के ने कहा – भाईया, इसका पड़ेगा आपको 540 रुपया।”
मैंने कहा – “सही-सही बताओ, दूं कितना?”
लड़के ने कहा – भाईया 500 लगा दूंगा, इससे कम नहीं होगा।”
मैंने कहा – “एक बात बोलूं सीधा 400 लगा लो।”
लड़के ने कहा – “नहीं भैइया, इतने की तो खरीद नहीं है, चलो दस रूपये कम दे -देना 490 लगा दूंगा।”
मैंने लड़के से कहा – “एक दाम बोल रहा हूँ, 450 रूपये में देना है तो बताओ, यह बोल कर मैं जाने के लिए उठ खड़ा हुआ।”
लड़के को भी लगा कि ग्राहक हाथ से फिसला जा रहा है और दूसरे ग्राहक भी उसकी सेवा प्राप्त करने के लिए प्रतीछा में खड़े हैं। इसलिए, उसने अपने अंतिम और सबसे शक्तिशाली ब्रहमास्त्र का प्रयोग किया जिससे मैं अपने आप को बचा न सका।
लड़के ने कहा – “ठीक है, लाइए भैइया बोहनी का टाइम है, आप भी क्या याद कीजियेगा।”
मैंने लड़के को पैसे दिए तो उसने सामने बैठे दुकान मालिक की ओर इशारा किया। मैं आगे बढ़ कर दुकानदार को पैसा दिया तब तक वह लड़का मेरा जूता पैक करके सामे काउंटर पर रखकर दूसरे ग्राहकों की सेवा में लग गया। काउंटर पर से मैं जूता उठाकर चल दिया। दुकान से बहार मैं ऐसे तन कर निकला जैसे मैंने जूता नहीं, मैं कोई हाथी खरीद लिया हो। अपने लक्ष्य की प्राप्ती हो जाने पर हर इंसान खुश होता है। ठीक उसी प्रकार मैं भी ख़ुशी-ख़ुशी अपने अन्य बाजारू काम निबटाकर एक अजीब सी स्फूर्ति लिए हुए घर पहुंचा।
अगले दिन मैं सोमवार को रोज़ कि तरह मैं अपने ऑफिस पहुंचा। आज मेरे व्यकतित्व में एक विशेष प्रकार का विश्वास झलक रहा था। ये विश्वास दरअसल मेरे नए जूते की देन थी। जूता भी कितने कमाल की चीज है, जब वयक्ति के पैरों में होती है तो व्यक्ति के व्यक्तित्व में चार-चाँद लगा देती है और उसका आत्म-विश्वास बढ़ जाता है। लेकिन जब वही जूता व्यक्ति के सिर पर पड़ने लगता है तो, न तो व्यक्ति का व्यक्तित्व रह जाता है, न ही व्यक्ति का अस्तित्व। और आत्म-विश्वास तो ऐसे विलुप्त होता है जैसे गधे के सर से सींग। मेरे ऑफिस के सभी मित्र स्टाफ या यूँ कह लें सभी स्टाफ मित्र जिनकी भी नजर मेरे जूते पर पड़ी एक बार कीमत जरुर पूछी। हालांकि मैंने स्वंय किसी को अपने जूते के बारे में नहीं बताया परन्तु जिस प्रकार कोई अगर हीरे की अंगूठी पहन कर किसी पार्टी में चला जाये तो हीरे की चमक उसकी पहचान बता ही देता है ठीक उसी प्रकार मेरे जूते कि चमक चीख-चीख कर अपने नए होने का प्रमाण दे रही थी। अलग-अलग लोगों से मुझे अलग-अलग तरह कि प्रतिक्रिया मिली। किसी ने कहा, अच्छा है छः महीना चल जायेगा। किसी ने कहा, पैसा थोड़ा ज्यादा ले लिया है। हमारे ऑफिस में कुछ-एक नवाब टाइप के भी लोग हैं जिनकी बातों से लेकर कार्य तक में नवाबी की झलक जरुर मिल जाती है। इस टाइप के नवाब लगभग हर ऑफिस में मिल ही जाते हैं। उन्होंने कहा – ” यार लेना ही था तो जरा ढंग का ले लेते, क्या बेवकूफों की तरह ले लिया है ?” उनके सामने मेरी हालत ठीक उस विद्यार्थी की तरह हो जाती जैसे किसी विद्यालय का प्रधानाध्यापक किसी विद्यार्थी को अपने ऑफिस में बुलाकर पूछता है कि तुमने आज अपने जूते पोलिश क्यों नहीं किये? कुछ ही देर में आलोचना और प्रशंशा का दौर समाप्त हो गया और सब लोग अपने-अपने कार्य में जुट गए। मैं भी अपने काम में लग गया।
मेरा काम काउंटर पर पब्लिक डीलिंग का था। इसलिए काम की धुन में कई बार समय का पता ही नहीं चल पता था और हमारे ऑफिस के कस्टमर भी ऐसे कि स्टाफ का पानी पीना और बाथरूम जाना भी उनको नागवार गुजरता था, यहाँ तक उनका बस चलता तो यह कहने में गुरेज नहीं करते की सर आप सांस क्यों ले रहे है, काम कीजिये न। कई बार तो सामने टेबल पर पड़ी चाय मेरे इंतजार में ठंडी हो जाती, यहाँ तक तो सहनीय होता था; किन्तु इसी बीच जब सामने वाला कस्टमर मुस्कुराते हुए ये कहता कि , सर चाय पी रहे हैं ? तो जी में आता की चाय की कप मुँह पे फेंक के मारूं और कहूं ले तू ही धकेल जा। लेकिन एक ऑफिस स्टाफ होने के नाते मैं ऐसा नहीं बोल सकता था। काम करते-करते जब अचानक मेरी नजर घड़ी पर गयी तो देखा, बारह बज रहे थे। मुझे बहुत ज़ोर का बाथरूम लग रहा था। मुझे लगा कि बैठे-बैठे काफी देर हो गयी है, जरा हवा पानी बदल के आता हूँ। लगातार कुर्सी पर जड़े रहने से मेरे शारीर में जो शिथिलता आ गयी थी उसे दूर करने का सबसे सरल और किफायती उपाय यही था। जिसके बाद मैं अपने आप को पहले से ज्यादा तरोताजा और सक्रिय महसूस करता था। जबकि दूसरे स्टाफ अपनी थकावट दूर करने के लिए गुटका, पान, सिगरेट आदि का सेवन करते; लेकिन मैं दुर्भाग्य से मैं इन शाही वस्तुओं से थोड़ा दूर ही था। बाथरूम जेन के लिए मैं ज्योंही कुर्सी से उठा त्योंही सामने वाला कस्टमर तपाक् से बोला – “सर कहाँ जा रहे हैं ?”
मैंने कहा – “बाथरूम जा रहा हूँ, अभी तुरंत आ रहा हूँ।”
कस्टमर – “सर मेरा काम करके जाईये न, मेरी ट्रेन छूट जायेगी।”
मैंने कहा – “अरे भईया बाथरू ही तो जा रहा हूँ, कोई हिमालय कि यात्रा पर थोड़े ही जा रहा हूँ कि लौटने में दस-बीस बरस लग जायेंगे।”
कस्टमर – ” सर मेरा नंबर आया हुआ था, मेरा काम कर देते तो आपकी बड़ी मेहरबानी होती। सर बाथरूम बाद में भी जा सकते हैं; लेकिन सर मेरी ट्रेन छूट जायेगी तो मुझे अगली ट्रेन रात के 12 बजे मिलेगी।
मेरे लिए ये रोज की बात थी इसलिए कस्टमर के नम्र निवेदन का भी मेरे ऊपर कोई असर नहीं हुआ और मैं कस्टमर की बातों को एक कान से सुनकर दूसरे कानों से निकलते हुए मैं खुद बाथरूम की ओर निकल पड़ा। मैं बाथरूम गया और पांच मिनट के बाद बिलकुल फ्रेश और तरोताज़ा बहार निकला। ऐसे जैसे किसी बैल को कुछ देर के लिए उसका मालिक उसे सुस्ताने का मौका दे देता है। जब मैं बाथरूम में था तो मुझे एक बात का एहसास हुआ। मुझे लगा कि मेरे बांये पैर का जूता कुछ असुविधाजनक लग रहा हा, मेरे बांये पैर में थोड़ा-थोड़ा दर्द भी होने लगा था। मुझे इस बात की शंका हो रही थी कहीं मैंने जूते का फीता कस कर तो नहीं बांध दिया है, जिससे मुझे यह दर्द हो रहा है। इस शंका को दूर करने के लिए मैंने अपने बांये जूते के फीते को खोलकर थोड़ा ढीला कर दिया। परन्तु फीते को ढीला कर देने के बाद भी मुझे कोई रहत नहीं मिली। मेरे बांये पैर का जूता वैसे ही चुभता रहा। मुझे लगा कि नया जूता है, दो-चार दिन में एडजस्ट हो जायेगा। थोड़ा मेरा पैर जूते के साथ सामंजस्य बैठा लेगा और थोड़ा जूता मेरे पैर के साथ। नया जूता होने के कारण मुझे पॉलिश करने की भी आवश्यक्ता नहीं महसूस हो रही थी।
इसी तरह जूता पहनते हुए पांच दिन गुजर गए और शनिवार का दिन आ गया। मुझे लगा कि मैं पांच दिन से लगातार जूते को पहन रहा हूँ, अब मुझे इसकी पॉलिश करनी चाहिए। सुबह के 6 बज रहे थे। मैं अपना नया जूता, पॉलिश और ब्रश लेकर छत पर पहुँच गया। ऊपर छत पर का वातावरण बड़ा ही सुहावना था, सूरज अपनी लालिमा बिखेर रहा था, चारों ओर शीतल पवन मंद-मंद गति से बह रही थी। एक अजीब सी ताजगी का एहसास हो रहा था। ऊपर से पत्नी जी चाय का प्याला मेरे समक्ष रख गयीं, जो उस वातावरण को और भी आनंदमय बना रही थी। मैं चाय की चुस्कियों के साथ मग्न होकर जूते को पॉलिश करने लगा। पॉलिश करते-करते मुझे न जाने क्या सूझी मैंने बांये पैर के जूते को पलट कर पीछे की ओर देखा तो मेरी नजर सीधे जूते के नंबर पर पड़ी जिसे देखते ही मेरे होश उड़ गए, कुछ क्षण के लिए मुझे ऐसा लगा कि मेरे पाँव तले से जमीन खिसक गयी और मैं हवा में हूँ। थोड़ी देर के लिए मेरे चारों ओर शून्य सा हो गया। फिर मैंने पालक झपकते ही दाहिने पैर के जूते का नंबर हेखा तो जहाँ मैं पहले शून्य सा हो गया थे वहीँ अब मैं अचानक जोर-जोर से कहकहे लगाकर हँसने लगा। कुछ देर तक मैं यूँ ही खूब जोर-जोर से हँसता रहा। मैंने देखा कि मेरे बांये पैर का जूता 8 नंबर का था और दाहिने पैर का 9 नंबर का; जबकि जूता मैंने 9 नंबर का ख़रीदा था। मुझे यह समझते देर न लगी की मेरे जूता मुझे क्यों दर्द दे रहा था। एक तरफ तो मुझे अपनी बेवकूफी पर हँसी आ रही थी, वहीँ मुझे इस बात का दुःख भी हो रहा था कि जूता अब वापस नहीं हो पायेगा। क्योंकि कोई भी दुकानदार उपयोग की हुई चीज वापस नहीं करता है। और मैं लगभग एक सप्ताह तक जूते को पहन चुका था। एक पल में मुझे हंसी आती वहीँ अगले पल मैं मायूस हो जाता। जूता ऊपर से तो नहीं पर पलट कर देखने पर साफ़ पता चलता था कि जूता पहना हुआ है। बुझे हुए मन से मैं ऑफिस जाने के लिए तैयार हुआ। मैं यह निश्चय कर चुका था कि आज मैं जूता पहन कर ऑफिस नहीं जाऊँगा क्योंकि मुझे जूते के बारे में कुछ सोंचने के लिए वक्त चाहिए था। मैं नाश्ता कर रहा था, मुझे लगा कि पत्नी जी को यह बात बता देनी चाहिए; और मैं नाश्ता ख़त्म होने तक जूते की सारी कहानी कह डाली। जब पत्नी जी को यह मालूम हुआ कि मेरा जूता अलग-अलग नंबरों का है; तो वह भी खूब खिलखिलाकर हंसी। और कुछ देर तक हंसती रहीं। फिर मुस्कुराते हुए बोला – “आपको तो अब नए जूते लेने पड़ेंगे ”
मैंने एक ठंडी आह भरते हुए कहा – “हाँ, लेने तो पड़ेंगे पर कुछ सोंचता हूँ”
यह कह कर मैं ऑफिस के लिए चप्पल पहन कर निकल पड़ा। ऑफिस में मुझे चप्पल पहने हुए देख कर किसी ने कोई आश्चर्य नहीं व्यक्त किया क्योंकि शनिवार के दिन सभी स्टाफ को अपने ढंग से कपड़े और जूते या चप्पल पहनने की स्वतंत्रता मिली हुई थी। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार जेल के कैदियों को सप्ताह में एक दिन कुछ अलग तरह का खाना दिया जाता है। पूरे दिन मैं था तो ऑफिस में पर मेरा सारा ध्यान जूते पर लगा हुआ था। काफी दिमाग लड़ाने के बाद मरी मन में एक विचार आया कि क्यों न जूते को वापस करने की कोशिश की जाये। अगर बात बन गए तो ठीक हैं नहीं तो देखा जायेगा। फिर क्या था, अगले दिन रविवार को मैं जूते को नया बनाने में लग गया। मैंने जूते को बहुत बारीकी से साफ़ किया जैसे कोई फॉरेंसिक एक्सपर्ट यह पता लगाने की कोशिश कर रहा हो कि इस जूते का कहीं इस केस से कोई ताल्लुक तो नहीं। जूते के निचले हिस्से का रंग कुछ उड़ गया था, घिसने के कारण। मैंने उसे भी पॉलिश करके बिलकुल नया जैसा बना दिया। मैंने जूते को इस लायक बना दिया कि कोई पहली नजर में देखकर यह नहीं कर सकता था कि जूता पहना हुआ है। मैंने जूते को डिब्बे में पैक किया और सीधे जूते की दुकान में पहुँच गया। मैंने देखा वह लड़का जिसने मुझे जूता दिया था एक लड़की को जूती दिखाने में व्यस्त था। ज्योंही उसकी नजर मुझपर पड़ी मैं उस पर बरस पड़ा। मैंने कहा – ” यार जूता बेचते हो या मजाक करते हो, दिखाते हो कुछ और पैक करके दे देते हो कुछ। आजकल आदमी के पास इतनी फुर्सत है की एक ही काम के लिए दस बार दौड़ता रहेगा।” यह सब मैं एक साँस में बोल गया।
लड़का एकदम सहम सा गया हालांकि अंदर से उससे ज्यादा सहमा हुआ मैं खुद था कि कहीं उसे ये पता न लग जाये की जूता पहना हुआ है। लेकिन मैं अपने भय को अपने चेहरे पर प्रकट नहीं होने दे रहा था। लड़के ने दबी हुई आवाज में पूछा – “क्या हुआ भईया?”
मैंने कहा – “पिछले रविवार को मैं तुम्हारे यहाँ से 9 नंबर का जूता ले गया था। दिखाया तुमने 9 नंबर का और पैक करके दे दिया एक 8 नबमर का और 9 नंबर का। देखो अपने दूसरे डिब्बे में दोनों अलग-अलग नंबर के जूते होंगे।”
लड़का उस लड़की की जूती छोड़कर मेरे जूते में लग गया। उसने अपना दूसरे जूते का डिब्बा खोलकर देखा तो एक जूता 8 नंबर का था तो दूसरा 9 नंबर का।
लड़के ने खेद प्रकट करते हुए कहा – “सॉरी भईया गलती हो गयी।” यह कहने हुए उसने मेरे डिब्बे में से 8 नंबर का जूता निकालकर अपने डिब्बे में रख लिया और अपने डिब्बे में से 9 नंबर का जूता निकालकर मेरे डिब्बे में रख दिया। मैंने चुचाप डिब्बा उठाया और धीरे से निकल लिया। जहाँ मैं पिछली बार उसकी दुकान से किसी शहंशाह की भांति तन कर निकला था वहीँ इस बार मैं किसी चोर की तरह दबे पांव निकला। कुछ दूर तक मेरे मन में यह भय व्याप्त था कि कहीं दुकानदार को पता न चल जाये कि जूता पहना हुआ है, और मुझे पुकार ले। लेकिन मैं जब बाजार से निकल कर मुख्य सड़क पर आ गया और टेम्पू पर बैठ गया तब मुझे लगा की मैंने बाजी मर ली है। और घर पहुँचने के बाद तो मैं ऐसा महसूस कर रहा था जैसे मैंने जिंदगी का कोई बहुत बड़ा मकसद हल कर लिया हो।
अगले दिन जब मैं ऑफिस में अपने मित्रों को अपने जूते के कहानी सुनाई तो सब खूब हँसे और जब कोई स्टाफ मुझे देखता तो अनायास ही उसकी नजर मेरे जूते की ओर चली जाती और वह मुस्कुरा देता। उसके उसके जवाब में मैं भी धीरे से मुस्कुरा देता।
समाप्त
Writer – Dinesh Kumar