आज वह अपने इतिहास को इन शब्दों में समेट सकता हूँ –
“पत्र मिला
लिखा है ,
बर्फ पिघल चुकी है
हरी घास उग आयी है
घुघुती की खुशी,
फूलधैयी की रौनक
काफल की जिगर
पत्र में डले हुये हैं।
एक बात और लिखी है
जिसे पढ़ नहीं पा रहा
कि “तुमसे प्यार है”
समय की फड़फड़ाहट में
इस दौड़ -भाग में,
लिखा दिख नहीं रहा है।“
घुघुती और फूलधैयी उत्तराखण्ड के त्योहार हैं। परीक्षा परिणाम आ चुका था। अब उसे रोजगार की चिन्ता होने लगी थी।रोजगार मिलना आसान नहीं था।कालेज के दिन अब इतिहास बन चुके थे।बेरोजगारी ने रोमांस की तपिस कम कर दी थी।वह अपने ३-४ परिचितों के यहाँ आता-जाता था।शोध कार्य के लिए छात्रवृत्ति के लिए कुलपति से मिला।कुलपति से कोई आश्वासन नहीं मिला।
उन्हीं दिनों उसने किसी से सुना कि प्रवक्ता -भौतिक रसायन के पद को प्रवक्ता- कार्बनिक रसायन के पद में बदल कर नियुक्ति की गयी है। वह अपने दोस्त के साथ इस बात की शिकायत लेकर कुलपति से मिला।उस समय कुलपति कार्यवाहक थे,उन्होंने विभागाध्यक्ष से बात करने का आश्वासन दिया। वह फिर विभागाध्यक्ष से मिला और उनसे काफी तर्क किया कि उन्होंने क्यों अपने विद्यार्थियों में फर्क किया? विभागाध्यक्ष कुछ सटीक उत्तर नहीं दे पाये। केवल बोले”मेरे किसी विद्यार्थी ने आजतक ऐसा प्रश्न नहीं उठाया।”
इस पर वह बोला “गलत बात का ही मैं विरोध कर रहा हूँ।” अन्त में परिणाम कुछ नहीं हुआ।वह पद कुछ समय बाद खाली हो गया और फिर उस पर कोई नियुक्ति नहीं की गयी।
वह अनेक दिशाओं में सोच रहा था। सिविल सेवा से लेकर विश्वविद्यालय या कालेज प्रवक्ता तक।उत्साह से भरपूर था वह उन दिनों। वह इलाहाबाद भी गया कि राजकीय कालेज में तदर्थ नियुक्ति मिल जाय। लेकिन वहाँ भी उसे नकारात्मक उत्तर मिले। किसी ने कहा” अपने प्रमाण पत्रों की कापी रख जाओ। बाद में विचार करेंगे।“ कहीं उत्तर मिला “आप अपना और मेरा दोनों का समय नष्ट कर रहे हैं।” वह खाली हाथ वापिस आ गया। कुछ समय बाद दिल्ली गया। और वहाँ विज्ञापनों के आधार पर कई जगह इन्टरव्यू दिये। पर काम नहीं बना।
लौटते समय रेलवे स्टेशन पर टिकट लेते समय जेब कट गयी।प्लेटफार्म में आकर पता लगा। सोचा,शायद टिकट खिड़की के आसपास गिरे हों,इसलिए अटैची किसी सेना के सिपाही के पास छोड़, वह टिकट खिड़की तक गया,लेकिन रुपये मिलने का प्रश्न ही नहीं था।यह उसका भोलापन था जो इतनी ईमानदारी की कल्पना कर रहा था। वापिस आकर वह रेलगाड़ी से अन्तिम स्टेशन तक पहुँचा। और वहाँ से २०रुपए में,जो एक जेब में बच गये थे, ट्रक से अपने गन्तव्य तक पहुँचा।
पहाड़ी चढ़ कर वह अपने दोस्त से मिलने जाता था। वहाँ उनकी यही चर्चा होती थी कि कब विश्वविद्यालय की तदर्थ पदों पर नियुक्तियाँ होने वाली हैं। और गपसप वाली बातों से ही मन बहला लेते। वहाँ से उतर कर एक चबूतरे पर बैठ दोनों दोस्त, चलते लोगों के हावभाव देखते। शाम को मन्दिर का एक चक्कर लगा ,अपने-अपने डेरे में चले जाते।
एक दिन बहुत प्रतीक्षा के बाद, एक बैंक से लिपिक का साक्षात्कार आया।वह बहुत देर तक सोचता रहा कि साक्षात्कार देने जाय या नहीं। वह विज्ञान का छात्र था अत: निर्णय लिया कि नहीं जायेगा।
एक साल बाद उसे अपने कार्य क्षेत्र में काम करने का अवसर मिला। आज इस बात को लगभग ४० साल हो गये हैं। अपने प्यार की पुरानी तस्वीर उसके मन में है। बाल सफेद हो गये हैं। दाढ़ी-मूँछ सफेद बर्फ से। लेकिन वह बीते प्यार को अब भी जवान देखता है।जबकि उसके भी बाल अब सफेद हो चुके होंगे। हो सकता है, हाथ-पैर दुखने लगे हों।कमर दर्द भी हो। गिरकर हाथ-पैर तोड़ चुकी हो।डाक्टर के पास आना-जाना लगा रहता हो।नजर कमजोर हो गयी हो।चश्मे ने नया रूप व आकर्षण दे दिया हो।और सोच रही हो-
“मेरी गुमसुम सी जिन्दगी को
तुम्हीं ने फाड़ा ,
तुम्हीं ने उस पर टाँके लगाये
तुम्हीं ने उस पर सुई चलाई
तुम्हीं ने उस पर जुआ भी खेला
तुम्हीं ने उस पर कंधा लगाया ।
मेरी गुमसुम सी जिन्दगी को
तुम्हीं ने फाड़ा ,
तुम्हीं ने उसको पलटा है
तुम्हीं ने उसको मिटाया है
तुम्हीं ने उसको छला भी है
तुम्हीं ने उसे हटाया भी है।
अपनी गुमसुम सी जिन्दगी को
मैंने ही उघाड़ा है,
मैंने ही उस पर सच भी उठाया
मैंने ही उस पर दुख भी टिकाया
मैंने ही उसको अमर भी समझा
मैंने ही उस पर फूल भी उगाये
मैंने ही उस पर सुख भी टाँके।“
वह सोच रहा था कि वह भी कभी यहाँ आयी होगी ।उसकी आँखें डबडबायी होंगी। हर स्थान को उसने देखा होगा जहाँ कभी मिले थे। उस मन्दिर मैं भी गयी होगी जहाँ उसने अपूर्ण मन्नतें माँगी थीं। ४०साल के संघर्ष और दुखों को भूल, पुरानी यादों को फूल सा बना, मन में खिलाया होगा बिल्कुल उसकी तरह।
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