In this Hindi story, a lover stayed with his beloved for a few days. At platform while she slept on his lap , train left . He was afraid telling lie that train was cancelled
आज शुबह से ही श्वेता उदास है . वजह मैं जानता हूँ . वह भी जानती है , लेकिन बताना नहीं चाहती .वह सोच रही है कि मुझे किस दिन रिटर्न होना है मालुम नहीं है मुझे , लेकिन हकीक़त यह है कि मुझे सबकुछ मालुम है. उसने मुझे मेल में रिटर्न टिकट नहीं भेजी थी . मैंने इस पर चर्चा करना मुनासिब नहीं समझा . वजह आईने की तरह साफ़ है . यदि मैं चर्चा करता तो रो – रो कर बेदम हो जाती. मेरा लौटना तो दूर , सुनकर भी वह फूट पड़ती . मेरा एक शरीर और एक ही प्राण है ,मैं दो जगह एक ही समय में कैसे रह सकता . मैंने बहुत कोशिश की कि उसे कुछ जोक सुना कर हंसाऊं , लेकिन वह सुनने को तैयार नहीं . मैं नित्य की भांति आज भी अखबार पढने में व्यस्त था . श्वेता थर्मस में काफी बनाकर ले आयी . पास ही बैठ गयी . मैंने नजरें उठा कर एक झलक देख पाया , फिर पेपर पढने में मशगुल हो गया . फूर्ती जैसे फुर्र हो गयी हो उसके तन – मन से – ऐसी निढाल लग रही थी. बिलकुल सुस्त . सेंटर टेबुल पर कप- प्लेट सजा कर रखने के बाद मेरी ओर मुखातिब हुयी और बोली :
काफी है.
मैंने प्याली उठाई . और तुम ?
ले रही हूँ .
दस बजे तक तैयार हो जाओ . आज तुम्हारी सहेली के यहाँ चलना है और बैंक भी .
बैंक किसलिए ?
चलेंगे तो बतलायेंगे .
मैं भी जल्द तैयार हो जाता हूँ . मेरे बाद तुम स्नान करना .
ठीक है. मुझे वैसे भी नहाने – धोने में आज कुछ ज्यादा ही वक़्त लग सकता है.
आज देख रहा हूँ तुम्हारा मूड उखड़ा – उखड़ा सा है.
ऐसे ही .
ऐसा कभी – कभी हो जाता है . मेरे साथ भी होता है. मन पर मनों का भार हो जाता है . कुछ भी अच्छा नहीं लगता . मीठी बात भी कडवी लगती है नीम की पत्तियों की तरह .
आप ठीक कहते हैं . मैं मन को बहुत समझाती हूँ किसी – किसी इसु पर , लेकिन उसे समझाने में असफल हो जाती हूँ कभी –कभार , जैसे आज .
मेरे साथ भी वही होता है. सोचता हूँ सब के साथ भी यही होता होगा
मैं आप के साथ कभी – कभी बहुत ज्यादती करती हूँ .
मुझे कभी इसका एहसास नहीं होता .
आप से मैं कुछ बातें छुपा लेती हूँ .
मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता .
लेकिन मेरे लिए रखता है. मेरा मन मुझे जब कोसने लगता है , तब मुझे एहसास होता है कि मैंने आप के साथ ज्यादती की.
एक नारी के मन की बात मैं भली – भांति जानता हूँ. उसकी विवशता से भी मैं भली – भांति अवगत हूँ . मेरे विचार में नारी से कभी भूल हो ही नहीं …
ऐसी बात नहीं . भूल किसी से भी हो सकती है तो नारी अपवाद कैसे हो सकती है. न मैं आपके इस विचार से सहमत हूँ न ही मैं इस दलील से संतुष्ट हूँ. भूल किसी से भी हो सकती है , चाहे वह नारी हो या पुरुष .जिसपर कोई पश्चात्ताप करे , वही उसकी भूल है.
क्या तुम्हारे साथ ऐसा कभी हुआ ? हर प्राणी की सोच , उसके विचार भिन्न – भिन्न होते हैं. जो वस्तु मुझे अच्छी लगती है , हो सकता है वह तुम्हें बुरी लगे . दूसरे शब्दों में जो तुम्हें बुरी लगे , वह मुझे अच्छी लगे.
तुमने वह कहावत नहीं सूनी : मूंडे – मूंडे मतिर्भिन्ना अर्थात हर – हर व्यक्ति के विचार अलग – अलग होते हैं . … में भी एक लोकप्रिय कहावत है जिसका अर्थ इससे मिलता – जुलता है – हर गुलेरा रंग और बू दीगर अर्थात हर फूल के रंग और खुशबू अलग – अलग होते हैं .
तुम्हारे और मुझमे प्यार कितना है ?
श्वेता अपने दोनों हाथों को फैला के बोली : इतना .
तुम्हारे और मेरे विचार में कितना फर्क है ?
उसने चुटकी के इशारे से बोली : ईत्ती – सी .
लेकिन फर्क है न ?
सो तो है .
हो सकता है यह ईत्ती सी फर्क का महत्व बहुर बड़ा हो.
हो सकता है .
अब मुझे ज्यादा कुछ समाझने की आवश्यकता नहीं है.
अब तुम ही स्पष्ट करो कि तुमसे क्या भूल हुयी और तुम किस बात पर पश्चात्ताप कर रही हो ?
मैंने आप को रिटर्न टिकट का ई- मेल नहीं किया , न ही इन दिनों में कभी बतलाई .
मैं चाहती थी आप मुझसे इस सम्बन्ध में पूछे , लेकिन आप ने कभी भी जानने की चेष्टा नहीं की.
मैंने इसकी आवश्यकता नहीं समझी . ऐसे भी मैं अनर्गल बातों को जानना व्यर्थ सझता हूँ . तुम पर मेरी आस्था और विश्वास नींव की पत्थर की तरह मजबूत है .
कोई वजह होगी कि तुमने इस बात को मुझसे छुपाये रखी .
आप को मालुम होता तो दिन गिनते कि तीन दिन , दो दिन फिर एक दिन बाकी है लौटने में . साथ – साथ इंजॉय करने में अनावश्यकरूप से खलल पैदा होता .
श्वेता तुम बहुत दूर तक सोचती हो . मेरा दिमाग उतनी दूर तक नहीं सोच पाता . मैं सोचना भी नहीं चाहता , क्योंकि मेरे लिए ऐसी सोच स्वास्थवर्धक नहीं है.
मैं जानता था कि तुमने कुछ मकसद से ही ऐसा किया होगा . मैं पूछकर बेवजह आहत नहीं करना चाहता था तुम्हें . मैं इस बात से भी पूर्णरूपेन आश्वस्त था कि एक न एक दिन तुम मुझे अवश्य बतलायेगी . मेरे लिए , विशेषकर जब मेरे साथ होती हो , जितनी चिंता तुम करती हो , शायद मैं भी अपने बारे उतना नहीं कर पाता . जो सच है , सच है और तुम अच्छी तरह जानती हो कि सच का कोई विकल्प नहीं होता .
सॉरी . मैंने आप को रिटर्न टिकट मेल नहीं किया , न ही इसके बारे समय रहते बतलाया .
आज का रिटर्न टिकट है . रात एक बजकर चालिस मिनट पर – जोधपुर बीकानेर हावड़ा एक्सप्रेस से . मेरा मन शुबह से ही ठीक नहीं है . मैं अभी बताना नहीं चाहती थी , लेकिन …
जीवन जीना सीखना है तो ऐसे वक़्त में मन को काबू में करना सीखो. भावुकता में बहना अच्छी बात नहीं . देखा मेरी बातें बेअसर हो रही हैं , तो मैंने अपनी सलाह को विराम दे दिया.
श्वेता की आँखों में आँसूं छलछला गये . मैंने उसे पकड़कर सोफे पर बैठा लिया और बोला :
तुम तो एक बहादूर नारी हो . क्या इस तरह आँसू बहाना शोभा देता है तुम्हें ?
आप औरत होते तब मेरे दर्द को समझते .
क्या औरत के दर्द को समझने के लिए औरत होना जरूरी है ? एक औरत की जगह रखकर पुरुष समझ सकता है औरत के दर्द को और मैंने हमेशा वही किया है. बहुत से ऐसे लेखक हुए हैं , जिन्होंने औरत का चरित्र – चित्रण इस प्रकार किया है कि जैसे भोगा हुआ यथार्थ हो . शरतचन्द्र के साहित्य को ही लो . शरत दा ने देवदास में कितनी बखूबी से पार्वती एवं चंद्रमुखी की आन्तरिक सम्वेदनाओं एवं भावनाओं का वर्णन किया है , जैसे लगता है कि भोगा हुआ यथार्थ हो . तुम हिन्दी में स्नातकोत्तर हो , हिन्दी की शिक्षिका हो , हिन्दी की पत्र – पत्रिकाओं को पढने में रूची रखती हो , क्या तुन्हें समझाना शोभा देता है मुझे ? यह तुम्हारा दोष नहीं है , नारी के स्वभाव का यह पर्याय है कि वह मन में ज्यादा देर तक कोई बात बांधकर नहीं रख सकती. यह दोष नहीं हैं नारी के , अपितु उसके गुण है . पारो को ही लो . कितनी बातें ऐसी हैं जो वह देवदास के समक्ष व्यक्त नहीं करना चाहती थी , लेकिन आखिरकार उसने लाज – लिहाज , मान – सम्मान सबको ताक में रखकर मन की बात को कह डाली . क्या मैं गलत हूँ ?
श्वेता मूर्तिवत बनी रही . हाँ या न – कुछ में भी जबाव नहीं दी , उलटे फफक – फफक कर रोने लगी . यह घड़ी मेरे लिए असहनीय हो जाती है . बसन्ती ( मेरी धर्मपत्नी ) भी यदा – कदा कहती रहती है कि मेरा दिल पत्थर का बना हुआ है . रूपा ( मेरे बाल्यकाल की … ) का भी यही विचार है मेरा दिल पत्थर का बना हुआ है . वह जब योवन की दहलीज पर थी और उसकी शादी के दो – चार दिन ही बचे हुए थे तो अपने छोटे भाई नंदू से कई बार बुला भेजी , लेकिन मैं नहीं गया . वह समझ गयी कि मैं किसी भी सूरत में मिलनेवाला नहीं तो एक पत्र महज दो वाक्यों में मुझे भेज दी – व्यंग्यात्मक बाण की तरह – “ आप मोम की तरह , मैं ही पत्थर की तरह – आपकी रूपा ’’ इन दो वाक्यों ने मेरे पाषाण हृदय को भी पिघला दिया और मैं रूपा से मिलने के लिए दौड़ पड़ा .
मैं कभी – कभी सोचता हूँ ईश्वर ने मनुष्य के हृदय को कितना शक्तिशाली बना दिया है कि आजीवन चोट खाने के बाबजूद भी घड़ी की तरह टिक – टिक करता रहता है .
मैं अंतर की व्यथा को अंतर में ही पी जाता हूँ , मुखरित होने देना नहीं चाहता . इस बात को किसी ने समझने की कोशीश नहीं की , जरूरत भी नहीं थी.
श्वेता जब फफकने लगती है तो मुझे धैर्य से उसे मनाना पड़ता है. मैं भी रोने लगूं उसके साथ – साथ तो इसका परिणाम क्या होगा , आप मेरी जगह अपने को रखकर सोचिये .
नारी कितनी कोमल कोशिकाओं से बनी है और उसके मन कितने संवेदनशील होते हैं , यह अनुभव किया जा सकता है , अभिव्यक्त नहीं .
जब श्वेता रोने लगती है तो मुझे अपने को सम्हालना कठिन हो जाता है . आज भी वही हुआ जिसका मुझे डर था . मेरी आँखे डबडबा गईं.
मैंने श्वेता से छुपाकर अश्रुकण पोंछ लिए और मन को मजबूत करते हुए उसे चुप करवाया . विषय की धारा को मोड़ दिया .
श्वेता ! आज चलो बाहर ही जलपान करते हैं , खाना भी खाते हैं .
लेकिन रात में घर पर ही खाना खायेंगे . मैं अपने हाथों से बनाऊँगी और …
और क्या ?
और अपने हाथों से खिलाऊँगी . क्यों ?
आप अपनी बातों से ग़मगीन माहौल को भी खुशनूमा बना देते है . इस कला में आप …
ज्यादा मत दुलारों , नहीं तो जानती हो न रात को …
एक लम्बा सा …
हाँ. एक लम्बा सा … बो … ?
हटिये . हर चीज का एक वक़्त होता है .
तुम्हारे लिए होता होगा , मेरे लिए नहीं .
मुझसे रहा नहीं गया . आखिरकार मैंने अपनी उल्टी उंगुलियों से उसके कपोलों को छेड दिया. वह मुझे घूरती हुयी स्नानागार में चली गयी. मैं भी सेविंग करने में व्यस्त हो गया . रेडिओ में विविध भारती लगा दिया . गाना आ रहा था :
दिल के टुकड़े – टुकड़े करके , मुस्कुरा के चल दिए ,
जाते – जाते ये तो बता जा , हम जियेंगे किसके लिए |
श्वेता जल्द ही निपट कर चली आयी. मैंने भी स्नान – ध्यान कर लिया . मैं पेपर पढ़ रहा था . श्वेता चाय – बिस्किट लेते आयी . हम बाहर निकले तो रिक्शा मिल गया . हमने मशाला डोसा खाया , काफी पीये और श्वेता की एक सहेली के यहाँ चले गये . अंगरेजी की टीचर थी. घंटों हम बात करते रहे . हमारा वार्तालाप हिन्दी साहित्य में उपन्यास और कहानियों पर केन्द्रित रहा . जैनेन्द्र के उपन्यास सुनीता पर चर्चा हुयी . सवाल उठता है कि श्रीकांत अपनी पत्नी को अपने मित्र हरिप्रसन्न को प्रसन्न रखने की बात कहकर क्यों चला जाता है ? सुनीता न चाहते हुए भी हरिप्रसन्न के साथ वन में जाती है . हरिप्रसन्न सुनीता को सम्पूर्णरूप से पाना चाहता है. जब सुनीता निर्वस्त्र होने लगती है तो हरिप्रसन्न भाग खड़ा क्यों होता है ?
फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की कहानी तीसरी कसम पर वाद – विवाद हुआ कि हिरामन गाडीवान की पीठ में हीराबाई की बात सुनकर गुदगुदी क्यों होती है ?
हमने खाना खाया और शाम को लौट आये .
तन से भी और मन से भी हम थक चुके थे . आज मेरा लौटना था . श्वेता का मूड ठीक नहीं था . मैंने ही बात शुरू की :
चलो , आराम करते हैं .
कहाँ ?
छत पर .
वैसे भी आज पूर्णिमा है . हवा में भी मीठास है . दरी और तकिया ले लेते हैं , वहीं लेटते हैं . मन में जो भार है , हल्का हो जाएगा .
ठीक है. मैं कपडे बदल कर आती हूँ .
मैंने भी कुरता – पायजामा पहन लिया और दरी और तकिये लेकर छत पर चला गया . चाँद अपने यौवन पर था . सितारे टिमटिमा रहे थे . हवा में शीतलता थी .
मैं लेटना ही चाहता था कि श्वेता थर्मस और दो कप लेकर मेरे बगल में बैठ गयी. थोडा नमकीन लीजिये. हमने साथ –साथ चाय और नमकीन लिए. मैं लेटा तो वह भी मेरे बगल में लेट गयी. मैं आदतन उसके उलझे बालों को सुलझाने लगा . मैंने किसी टोपिक पर बात करना उचित नहीं समझा , क्योंकि वह कब भावुक हो उठेगी , कहा नहीं जा सकता . मेरे बालों को सहलाते हुए मेरी आँखों में प्रश्नभरी नज़रें टीका दी कि जैसे मुझसे पूछ रही हो कि आज आप सचमुच मुझे अकेले छोड़कर चले जायेंगे ?
मैं श्वेता के मन में उठते हुए तरंगों से भली – भांति परिचित था. तुम कहो तो जाना स्थगित कर दूं .
नहीं . दीदी को भी तो …
उसकी चिंता तुम मत करो . वह दिलेर है. आते वक़्त मुझे बोली है श्वेता को रुलाकर मत आईयेगा , भले दो – चार दिन ज्यादा क्यों न रूकना पड़े .
दीदी के साथ सरासर अन्याय होगा . आपको आज जाना है .
जो तुम चाहती हो , वही होगा . एकबार मुस्करा दो .
मेरा कहना था कि वह खिलखिलाकर हंस पडी . और बोली :
अब खुश हैं न ?
बेशक !
बातों में हम ऐसे खो गये कि वक़्त का पता ही न चला. रात के दस बज गये . हम सब समेट के नीचे चले आये.
हम दोनों ने मिलकर रोटी , दाल और आलू की सब्जी बना डाले . खाते – पीते रात के ग्यारह बज गये. जोधपुर हावड़ा एक्सप्रेस का आगमन समय एक चाल्लीस और छुटने का समय दो बजे. हम बारह बजे ऑटो से निकल पड़े . स्टेशन जल्द ही पहुँच गये . हाथ में काफी समय था . श्वेता काफी थकी हुयी थी – इसका भान मुझे पहले से ही हो चूका था. प्लेटफोर्म पर कोई खास भीड़ नहीं थी. जिधर – तिधर लोग पड़े हुए थे. हमने एक खाली बेंच देखा तो हम भी वहीं बैठ गये श्वेता की पलकें झपक रही थीं , तो हमने उसे लिटा दिया . सर को अपनी गोद में ले लिया और सुविधानुसार उसके पैर फैला दिए . श्वेता ने कहा :
मैं थोड़ी सो लेती हूँ . गाड़ी आने पर उठा दीजियेगा.
अवश्य . निश्चिन्त होकर सो जाओ .
मैं बाईं ओर बेंच से सटकर इत्मिनान से बैठा हुआ था और श्वेता मेरी गोद में बेखबर सोयी हुयी थी. गाड़ी आने की सूचना हो गयी. श्वेता को उठाऊँ कि नहीं इसी उधेड़बुन में मैं पड़ा हुआ था . गाडी प्लेटफोर्म में प्रवेश कर गयी . कई यात्री उतरे , कई चढ़े . गार्ड ने सीटी भी दे दी, गाड़ी भी मंथर गति से चलने लगी , फिर भी न तो श्वेता उठी न ही मैंने उसे उठाना उचित समझा . इतनी गहरी नींद में सोयी हुयी थी कि उसे उठाना मैंने मुनासिब नहीं समझा. अंतिम डब्बा भी गुजर गया आँखों के सामने , लेकिन मैं अपनी जगह पर स्थिर बना रहा . जरा सा भी हिला – डूला नहीं , क्योंकि मुझे मालुम था कि ऐसा करने से श्वेता की नींद में खलल पैदा हो सकती है. मेरा दिल उसे उठाने के लिए तैयार नहीं था. तीन बज गये फिर भी वह नहीं उठी. साढे तीन के लगभग कोई गाड़ी तेजी से आयी और एकाएक रूक गयी. श्वेता हडबडाकर उठ बैठी और पूछी :
कितना समय हो रहा है ?
साढे तीन .
क्या गाड़ी आयी ?
नहीं .
क्यों ?
आज किसी वजह से रद्द कर दी गयी.
सच्ची ?
सच्ची .
मैंने श्वेता से कभी झूठ नहीं बोला , लेकिन आज मुझे झूठ बोलना पड़ा . वह दिनभर रोई थी छुपकर – छुपकर मुझसे और मैं उसे और रुलाना नहीं चाहता था . उसकी आतंरिक व्यथा को समझने के लिए उस वक्त मेरे सिवा उसका कोई नहीं था.
जब वह अपने वस्त्रों को सहेज चुकी तो मैंने कहा :
अब हम घर चलते हैं .
हाँ , चल चलें . ईश्वर जो करते हैं , अच्छा ही करते हैं . मेरा भी मन नहीं था कि आप आज चले जाएँ . आप अटैची मुझे दीजिये . आप मेरे पीछे – पीछे चलिए . मैं जानती हूँ कि आप बहुत थके हुए हैं .
मैं श्वेता के पीछे – पीछे चल दिया , लेकिन तूफ़ान जो मेरे मन में उठ रहा था , वह मुझे उड़ाए ले जा रहा था एक अज्ञात भय की ओर .
लेखक : दुर्गा प्रसाद , गोबिंदपुर , धनबाद , दिनांक : ३ जुलाई २०१३ दिन : बुधवार |
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