हवा तेज़ चल रही थी…. तेज़ हवा के झोंके के कारण, खिड़की कभी खुलती, कभी बंद हो रही थी, मानो गहरी नींद से कोई जगा रहा हो, और आँखें नींद से जाग रही हों, और कभी वापस सो जा रही हो…मैं उठा और खिड़की को वापस नींद के हवाले कर दिया…
वैसे आपको बता दूँ ये कोई मामूली खिड़की नहीं थी, मेरे इकलोते कमरे के बाहर जो छोटी सी बालकनी थी, उसी से सटी यह खिड़की थी , जो धूप को कमरे के अन्दर लाती थी, ये खिड़की बस खिड़की नहीं थी, ये अपने आप में घर थी….जी हाँ….खिड़की के नीचे रखे कबाड़ में कबूतरी ने दो बच्चे दिए थे. जब भी मैं काम से घर वापस आता था, कबूतरी को उसी जगह यथावत पाता, मानो उसे किसी ने “statue” कह दिया हो… शाम होते-होते मैं और कबूतर घर वापस आ जाते.. रात में मैं कलम और पन्नो से बातें करने लगता और कबूतर, कबूतरी को दिन-भर का हाल सुना देता….कबूतर को शायद “insomnia” था. . आप लोगों को आश्चर्य होगा, पर मैं सच कह रहा हूँ, क्योंकि वो रात में काफी देर-देर तक गुटर-गू करता रहता था…
सवेरा होते ही कबूतरी सबसे पहले अपने अंडो पे नज़र दौडाती….उन दिनों जब भी घर के लिए कुछ सामान आता था, उसमें कबूतर के परिवार के लिए भी सामान ले आता था. जब पहली बार मैं कबूतरी को चने दे रहा था, तो मुझे अपने पास आते देख, वो अपने पंख जोर-जोर से फडफडाने लगी… क्योंकि उस समय कबूतरी, कबूतरी नहीं एक माँ थी… इंसान हो या पशु-पक्षी, माँ की भूमिका सब में एक जैसी होती है…अपने बच्चों के लिए विशालकाय और भयावह चीज़ से भी वो लड़ने का साहस रखती है… मेरे पास हथियार तो था नहीं इसलिए मैंने उस साहसी माँ के आगे चने डाल दिए… धीरे-धीरे वो भी इस दिनचर्या की आदी हो गई.. काम पे जाने के पहले कभी भुट्टे के दाने तो कभी चने उसके पास डाल देता… कबूतरी उसमें से कुछ दाने शाम के लिए बचा लेती थी, और एक कुशल गृहणी की तरह अपने पति को काम से आने पर परोस देती…
एक दिन सुबह-सुबह काम पे निकलना था, बैग में जो-जो सामान बेचने door to door जाना था, वो रखा … कबूतरी को दाना दिया और एक घर के दरवाज़े पे खड़ा हो गया, और door बैल बजा दी. रविवार का दिन था, और आज आशा थी, सामान ज्यादा बिकेगा…क्योंकि अधिकतर लोग आज घर पे ही मिलते हैं…एक लड़की ने दरवाज़ा खोला.. जैसे ही मेरी नज़र उसकी आँखों पर पड़ी, मुझे लगा इन आँखों को मैं बहुत अच्छे से जानता हूँ… मैं इसी सोच-विचार में था, कि लड़की ने पुछा-
“जी, बोलिए?”
” गैस लाइटर, आलू छिलना कुछ लेंगी आप ?”- अपने विचारों से बाहर आते हुए मैंने कहा…
“आपको फ्यूज ठीक करते आता है”
“जी…?”
“नहीं वो क्या है…आज सन्डे है कोई इलेक्ट्रीशियन आ नहीं रहा है, पूरे घर की बत्ती चली गई है…मेरी friend अपने काम पे गई है…..और मुझे फ्यूज ठीक करना आता नहीं है, बस इसीलिए… तो क्या आप? – उस लड़की ने बड़ी मासूमियत से मुझसे पुछा…
“अरे जी…जी कोई बात नहीं…”
‘ सच…प्लीज अन्दर आ जाइए..” – लड़की ख़ुशी से चहक उठी, और उसके आँखें एकदम से बड़ी हुई, तब मुझे ध्यान आया….मेरे घर में जो कबूतरी है, इसकी आँखें तो बिलकुल वैसी है..
मैं कमरे में चला गया… कमरा ज्यादा ज्यादा व्यवस्थित नहीं था, सामान इधर-उधर बिखरा पड़ा था.
“टेस्टर होगा आपके पास ?”- मैंने पूछा
“हाँ, अभी देती हूँ…”
लड़की अन्दर कमरे से टेस्टर लेके आई और किचन में जाके चाय बनाने लगी.. मैंने वापस तार छीला और उसे जोड़ के जैसे ही प्लग लगाया कमरा रौशनी से जगमगा उठा. किचन का पंखा भी चलने लगा, लड़की ख़ुशी से शोर मचाने लगी…
“मुझे लगा था, आज सारा दिन बिना लाइट की गुजारना पड़ेगा, thank you so much”- लड़की ने चाय मुझे देते हुए कहा…
मैंने बैग में से किचन के सामान निकाले और टेबल पर रख दिए…
“आपको किचन के लिए कोई सामान चाहिए तो आप देख लीजिये…”- मैं कबूतरी के आगे दाना डाल रहा था, की शायद कुछ खरीद ले….पहले तो कबूतरी ने ऐसा चेहरा बनाया, मानो टेबल पर रखी किसी चीज़ में उसे दिलचस्पी ना हो, लेकिन आखिर कबूतरी ने दाना चुगा… और आलू, प्याज रखने का रैक, चम्मचों का सेट और किचन में काम आने वाले छुरी, काटों का सेट मुझसे खरीद लिया…
“आप ये मत समझिएगा कि आपने फ्यूज ठीक किया है, इसलिए मैं ये सब ले रही हूँ..” लड़की ने मुस्कुरा कहा…
लड़की बातूनी थी, उसके १० वाक्य के बीच मेरा बस एक वाक्य हो पाता..लेकिन जिस सादगी से वो बात कर रही थी, वो मुझे बहुत अच्छा लगा… उसे ये जानकार आश्चर्य हुआ कि मैं ग्रेजुएशन पास करने के बाद भी ये door to door कंपनी में काम कर रहा हूँ…. मुझे आश्चर्य था, एक अनजान व्यक्ति से लड़की इतनी बातें कैसे कर लेती है..
“असल में मैं रंगमंच करता हूँ, अभिनेता हूँ… ये नौकरी मैंने खुद चुनी है, क्या है दिन भर में अलग-अलग लोगों से मिलता हूँ, अलग-अलग बोलने का ढंग…बस सब कुछ समेट के अपने अभिनय मेंन डाल देता हूँ….और ये बेच के पैसे भी मिल जाते हैं.”
” क्या…अरे वाह..” – लड़की का मेरे प्रति दृष्टिकोण बदल गया, अब वो मुझमें कलाकार तलाश रही थी…जहाँ थोड़ी देर पहले उसके १० वाक्य के बीच मेरा एक वाक्य हो रहा था, अब वो वाक्य का अनुपात २०/१ हो चुका था, मैं लगभग मूक दर्शक था.. और मेरे सामने सवालों की बौछार थी. इन जवाब और सवाल के बीच काफी समय निकल गया. जो छुरी का सेट मैंने उसे बेचा था, उसी से आलू, प्याज, टमाटर काटकर आलू की सब्जी बनाकर उसने मेरे सामने रख दी. मंच पर जाने कितने किरदार मैंने निभाये होंगे. कल्पना और यथार्थ की ना जाने कितनी उड़ान भरी होगी…
जैसे ही उस लड़की ने रोटी परोसी…मेरे लिए पूरा वातावरण कल्पनामय हो गया…वो लड़की मेरे लिए मेरे घर की खिड़की पे बैठी कबूतरी हो गई, कैसे वो अपने कबूतर के लिए दाने बचा लेती है….और उसके घर आते ही परोस देती है… मैं कबूतर बन चुका था…पंख लगाए कल्पना की उड़ान उड़ रहा था. अब रोज़ सवेरे मैं दाने की तलाश में उड़ जाया करूँगा, और वापस लौटकर दिन भर का हाल अपनी कबूतरी को सुनाऊंगा, कबूतरी एकटक मुझे देखेगी…रात में मैं insomnia होने के कारण… गुटर गू करूँगा…और कबूतरी मुझे कहेगी…
“श श श…धीमे बात करो… बच्चे सो रहे हैं…”
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