उस दिन मैं उठा।मन अशांत था।उसे मिलने का मन कर रहा था।मेरी सोच एकांकी हो गयी थी।सूरज अभी निकला भी नहीं था। मैं तैयार हुआ और दौड़ता हुआ नीचे उतरने लगा।लगभग १०मिनट में, नन्दा देवी के मंदिर पर पहुँच गया।मंदिर में पहले हनुमान जी को प्रणाम किया। फिर नन्दा माँ को । तब मुझे पता नहीं था कि वह स्थान शक्तिपीठ है।उसके बाद शिव को और अन्त में कृष्ण-राधा को प्रणाम किया। तब मुझे आभास नहीं था कि मेरी गति लगभग कृष्ण-राधा के समान होने वाली है।हर प्रणाम में भेंट का आशीर्वाद मांगा।
फिर मंदिर से कदम बाहर निकाले और झील के किनारे-किनारे चलने लगा।मन में यह बात भी नहीं आयी कि इतनी सुबह जाना ठीक नहीं होगा। लेकिन एक जुनून था कि मिलना है। औचित्य का प्रश्न नहीं था।मिलने का मन था। शायद ये बातें हमें परिपूर्ण करती हैं।हमारे अस्तित्व को पवित्र और अर्थपूर्ण बनाती हैं। मैं छोटी पगडण्डी चढ़ने लगा और एक मोड़ पर रूका और सोचने लगा कि इतनी सुबह जाना ठीक नहीं होगा। और लौट गया। नीचे झील पर आया ।
कुछ देर ठहरकर ऊपर की ओर देखा। मन नहीं माना और फिर मन को दृढ़ कर उस मोड़ को झटके में पार कर छात्रावास के आगे पहुँच गया।अब सोचने की प्रक्रिया बंद हो चुकी थी।केवल मुलाकात ही लक्ष्य रह गया था।वहाँ कोई दिखा और मैंने उनका नाम लेकर कहा कि मुझे उनसे मिलना है। वह गयी और संदेश दे आयी।शायद बोली होगी “तेरा चाहने वाला आया है”।
उसे पहले मजाक लगा होगा। फिर उसने उसे आश्वस्त किया होगा।इस बीच मेरा दिमाग सन्न था। अब सूरज की किरणें पेड़ों से छन कर दिखने लगीं थीं।वह नीचे उतरी और मेरे सामने बैठ गयी।मेरी उपस्थिति ही सब कुछ कह रही थी। उसने ये भी नहीं कहा क्यों आये हो? और न मैंने कहा किसी काम से आया हूँ।अधिक मनोभावों में बातों की उन्मुक्तता खो जाती है। मेरे लिये वह अरुणमय सुबह कभी न भूली जाने वाली साबित हुई।न मुझे भूमिका बनाना आता था।शायद वह सोच रही होगी”ये भी कोई मिलने का समय है? इतनी सुबह।”
लेकिन चेहरे से ऐसा कुछ नहीं झलक रहा था।एकदम शान्त। मेरे में वह क्या पढ़ती थी?पता नहीं। मैं बैठे-बैठे नल-दमन्ती और नारद जी के आख्यान पर सोचने लगा। तभी एक गाना गाते हुए वहाँ से उनकी एक सहेली तेजी से गुजरी। गाना याद नहीं आ रहा है, पर रोमांटिक था।वह हमारे स्नेह से रोमांचित थी। उस दिन हमारी क्या बात हुई,ठीक से याद नहीं। पर लम्बी चुप्पी याद है जो तपस्या सी लग रही थी। मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा था। साथ – साथ होने मात्र से ही मैं संतुष्ट था।
आधा घंटा बैठने के बाद मैं उठा और बोला “चलता हूँ।”
बहुत बार हम जो रचना चाहते हैं वह रच नहीं पाते हैं। मैं लाइब्रेरी जाना चाह रहा था लेकिन उसके खुलने में काफी समय था।अत: अपने साथी के पास चला गया।उसके साथ चाय पी और उसकी लिखी एक कहानी सुनी। कहानी दुखान्त थी। अत: मन उदास हो गया । फिर पुस्तकालय चला गया। बहुत सी पत्रिकायें पलटने के बाद विज्ञान के एक विषय पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। उन दिनों मुझे पदार्थ के कण और तरंग के दोहरे व्यवहार पर आश्चर्य होता था। मैं मानता था कि उर्जा, इस व्यवहार के लिये संपूर्ण रूप से उत्तरदायी है। मुझे क्वार्क और चिणुक में एक साम्यता लगती थी। यह वैसी ही साम्यता है जैसी रूह और शरीर की है। पदार्थ का व्यवहार भी प्यार के जादू सा है।कभी कण सा, कभी तरंग सा।
हमारा प्यार उच्छृंखल नहीं था। उसमें निकटता के साथ गरिमा थी। सभी आदर के साथ एक मंतव्य बनाये हुए थे। उनकी सहेलियों का हास– परिहास सुखद होता था। लाइब्रेरी में 2 घंटे बिताने के बाद मैं पहाड़ी से नीचे उतरा और बहुत देर तक नंदा देवी के मन्दिर में बैठा रहा।
***