This is a Hindi romantic story in which the lover feels tickles on his back while his beloved sits behind on horse riding in Jaipur.The beloved pretends that she is unaware of such tickling.
श्वेता ! जो सुख रात को मिला , उसे मैं शब्दों में वर्णन नहीं कर सकता .
मुझे भी जो सुख मिला रात में , वह कल्पनातीत है.
वो कैसे !
वही तो मैं पूछती हूँ : वो कैसे ?
पहले तुम साबित करो .
पहले आपने बात शुरू की है तो पहले आप …
मध्यरात्रि में अचानक मेरी आँखें खुल गईं तो तुम्हें पास में नहीं पाया . हाथ इधर – उधर मारा तो तुम्हारे पाँव मेरे हाथों में आ गये . मुझे समझने में देर नहीं लगी कि तुम मेरे पाँवों की ओर सो गयी हो. मैं पाँव खीचना चाहा , पर खींच न सका क्योंकि तुम जकड कर घोर निद्रा में सोयी हुयी थी. सच पूछो तो इतनी निश्चिन्तता के साथ मैंने तुम्हें सोते हुए कभी नहीं पाया. मेरे पाँवों को समेटकर …
अब मैं क्या बताऊँ ? आप भी तो मेरे तलवों पर गाल रखकर सोये हुए थे . आप भी तो मेरे पाँवों को …
अब मैं क्या बताऊँ ? तुम अगर नहीं उठती तो मैं …
आप भी नहीं उठते तो मैं …
गुलाब की पंखुड़ियों की तरह कोमल , सरस – सलील – तुम्हारे पाँवों के तलवे – अपने कपोलों से जब सहलाता था तो … तो शाश्वत आनंद की अनुभूति होती थी .
सच्ची ?
हाँ , सच्ची .
मैं भी जब आपके कमल से कोमल तलवे को सहलाती थी तो मुझे भी परम सुख की अनुभूति होती थी.
सच्ची ?
हाँ , सच्ची . श्वेता ! ये सब बातें मन को कष्ट पहुंचाती है , जब हम एक दूसरे से अलग होते हैं . प्यार को संजोया जाता है हृदय के किसी कोने में , न कि उसे … चलो उठो , एक – एक कप कॉफ़ी हो जाय .
श्वेता उठी और झट कॉफ़ी बनाकर ले आयी . बगल में नहीं , सामने बैठो . वह सामने ही बैठ गयी . अब ? अब एक – एक घूँट के साथ तुम्हारी आँखों में झाँका करूँगा … कबतक ? तबतक जबतक तुम्हारे दिल के गहराईयों तक न पहुँच जाऊं .
आज का प्रोग्राम ?
आज ! हाँ , आज . आज जी भरके घूमना है . और ? और घुड़सवारी करनी है . घुडसवारी ! हाँ , जयपुर में यह सुबिधा उपलब्ध है . तु हम ओटो से शहर से कुछ दूर निकल गये .
श्वेता अचानक ओटो रोकवा दी . हम उतर कर थोड़ी दूर पैदल ही चले . सड़क की बाईं ओर कई काले , सफ़ेद व लाल घोड़े दिखाई दिए . हर घोड़े के साथ उसका साईस था , जो मालिक लग रहा था. उनके सर पर राजस्थानी पगड़ी थी .
श्वेता एक काले घोड़े के पास गयी , पुचकारी और मालिक से बोली : भैया ! हमें घुडसवारी करनी है .
बहन जी ! दो ले लीजिये .
हम एक ही पर सवारी करेंगे .
साहब ओर आप ?
हाँ .
आप दोनों चढिये . मैं आपलोंगों के साथ – साथ चलता हूँ. कहीं कुछ …
कुछ नहीं होगा. हमलोगों को घुडसवारी का अनुभव है.
और बहन जी को ?
उनको भी .
तब तो साहब लेकर जाईये . लेकिन आगे जो चौराहा है , वहीं तक जाईयेगा. आगे ट्रेफिक है. लफड़े में पड़ेंगे तो मैं मदद नहीं कर सकता.
ठीक है. श्वेता ! तुम आगे बैठो , मैं पीछे.
नहीं आप आगे , मैं आप के पीछे. आप को घुडसवारी का ज्यादा तजुर्बा है.
मैं घोड़े के सामने गया और प्यार से सहलाया. एक तरह से अपना परिचय दे दिया. मेरे दादा जी घुडसवारी के शौकीन थे. घर पर एक घोड़ा बंधा रहता था . मैंने दादा जी से घुडसवारी के गुर सीखे थे. जवानी का वक़्त था . मन – मष्तिष्क में उमंगें हिलोरे ले रहीं थीं. कोसों निकल जाते थे . दादी जी को मेरे वक़्त पर न लौटने से चिंता सताती थी , लेकिन दादा जी निश्चिन्त रहते थे. उनका मेरे ऊपर भरोसा जो था.
मैंने घोड़े की पीठ को सहलाया और उसे एक तरह से आगाह कर दिया कि अब हम सवारी करने जा रहें हैं . मैंने पाँवदान पर एक पैर रखा और उछलकर पीठ पर चढ़ गया. अब श्वेता को मेरे पीछे बैठना था. मैंने साईस को इशारे से कहा कि मेमसाहेब को चढाने में मदद करे. उसने झटके से श्वेता को मेरे पीछे बैठा दिया .
नारी स्वभाव से ही शर्मीली होती है. मुझे पीछे से पकड़ने में झीझक रही थी.
मुझे उसे कहना पड़ा : मुझे पीछे से पकड़ लेना , जब घोड़े की रफ़्तार तेज होगी. इससे संतुलन बना रहेगा और मैं ठीक से हांक भी संकूंगा.
हाँ . समझती हूँ . सीखाने की जरूरत नहीं है. आप होश में रहकर सवारी करेंगे . यह जयपुर है , धनबाद नहीं . जरा सी भी ऊँच – नीच होगी तो अन्दर …..
समझ गया . मैंने घोड़े की लगाम का अंदाजा लगा लिया और दाहिने पैर से एड़ी मारा , लगाम को अपनी ओर खींचा तो घोड़ा चल दिया . थोड़ी ही देर में अंदाजा हो गया . मैं समझ गया घोड़े को और घोड़ा समझ गया मुझको. फिर क्या था मिनटों में हम हवा से बातें करने लगे . अबतक श्वेता भी सम्हल गयी थी . मुझे कसकर पकड़ कर रखी थी. कुछ ही मिनटों में मेरे में और घोड़े में अच्छा ताल – मेल बैठ गया था . मुझे बड़ा मजा आ रहा था . इसके कई कारण थे लेकिन तीन कारण प्रमुख थे. एक ताल – मेल , दूसरा बहुत दिनों के बाद मुझे घुडसवारी करने का मौका मिलना , मैं जरूरत से ज्यादा ही उत्साहित था. और तीसरा कारण — इसे आप खुद समझ लीजिये .
श्वेता इधर कोई मंदिर ?
है न ! चौराहे की बाईं ओर सौ गज पर माँ भगवती का मंदिर है
हम वहीं चलते हैं , कैसा रहेगा ?
अति उत्तम !
श्वेता ! आज मैं अपने को …
दिलीप कुमार समझ रहें हैं . यही न ?
एक्जेक्टली ! नया दौर फिल्म की सीन याद आ गयी जब दिलीप कुमार और बैजन्तीमाला घोड़ेगाडी ( बग्घी ) में मंदिर जाते हैं. गाने की पंक्ति है : मांग के साथ तुम्हारा , मैंने मांग लिया संसार … मेरे लैपटॉप और मोबाईल में इस गाने का वीडियो लोड है . जब मेरा मन उदिग्न हो जाता है , मैं इस गाने को सुनता हूँ अक्सरां .
मैं भी . आज ऐसी अनुभूति हो रही कि मेरे पीछे बैजन्तीमाला बैठी हुयी है और हम मंदिर जा रहे हैं पूजा करने और ..
और कुछ मांगने .
क्या मांगोगी ?
क्यों बताऊँ ? आप बताईये पहले . लौटते वक़्त .
ठीक है, मैं भी …
बात करते – करते हम मंदिर पहुँच गये. एक लड़के को बुलाया और कहा : घोड़े को पकड़े रहो , बस आध घंटे , दर्शन करके आते हैं .
बीस रुपये लूँगा , साहेब !
अच्छा , दूंगा . आराम से पकडे रहना . दस रुपये लो . चने खिलाते रहना – एक – एक दाना करके .
स्वेता ने पूजा सामग्री खरीद ली . हम पंक्ति में लग गये. पूरी श्रद्धा व भक्ति के साथ हमने पूजा – अर्चना की . देखा आज और दिनों की अपेक्षा श्वेता ज्यादा खुश नजर आ रही है. श्वेता ने प्रसाद दिए और स्वं भी ली. हम घोड़े के पास आये . उस बालक को भी श्वेता ने प्रसाद दिए .
तीस रुपये दे देती हूँ .
दे दो . बहुत देर तक घोड़े को सम्हाले रखा .
हम घोड़े पर चढ़ गये . लगाम को अपनी तरफ खींचा और पेट पर प्यार से एड़ी मारी . घोड़ा चल पडा. इस वक़्त मेरा मन सातवें आसमां में उड़ रहा था . मन में उमंग था . रफ़्तार तेज कर दी .
श्वेता ! इतनी कस के पकड़ी हो , चोर को भी पुलिस नहीं पकडती इतनी कस के. मेरे पीठ में गुदगुदी हो रही है .
एक बार और कहिये .
मेरे पीठ में गुदगुदी हो रही है.
गुदगुदी ! वो कैसे ?
अब मैं कैसे तुझे समझाऊँ ? तुम्हारा वो …
अभी मूड ऑफ़ मत कीजिये . घर चलकर … ओके .
क्या मैं आप की कुछ मदद कर सकती हूँ ?
अभी नहीं .
तो कब ?
घर चलकर .
रेणू जी की तीसरी कसम कहानी में हीराबाई तो बैलगाड़ी के अन्दर बैठी थी और हिरामन को पीठ में उसकी फेनूस जैसी बात सुनकर गुदगुदी हो रही थी और इधर तो श्वेता जकड़ कर पकड़ी हुयी थी पीछे से मुझे . मेरी क्या दशा हो रही थी , इसे अनुभव किया जा सकता है व्यक्त नहीं . मैंने एक दो ऐड मारी तो घोड़ा हटात अपनी चाल तेज कर दी . श्वेता मेरी पीठ पर लदक गयी एकाएक . हमने अपने को सम्हाल लिया .
साईस बेसब्री से हमारी प्रतीक्षा कर रहा था . उतरते ही शिकायत के लहजे में बोल पड़ा : साहेब बहुत देर कर दी . इतने में तो हम तीन कस्टमर को सलटा लेते.
एक के कितने हुए ?
सौ रुपये .
तीन के कितने हुए ?
तीन सौ .
तो लो तीन सौ , ज्यादा कुछ बोलने का नहीं. समझे ?
हाँ , समझ गया.
संस्कारवश मैंने घोड़े को प्यार से थपथपाया . चेहरे को सहलाया और चलते बने. चौराहे के पास आये और एक ओटो ले लिया . मैंने श्वेता से पूछा : तुमने क्या माँगा ?
आपकी लम्बी उम्र . आपने क्या माँगा ?
तुम्हारे लिए सुख व शांति .
जलपान किये काफी वक़्त हो चूका था . जोरों की भूख लगी हुयी थी हमें . हमने एक होटल के सामने ओटो रुकवाए . होटल का रख – रखाव अच्छा ही लगा . हम अन्दर गये और एक कोने में बैठ गये. वेटर को हमने ताड़का रोटी, एक प्लेट वेज पुलाव और पालक पनीर का ऑर्डर कर दिए . खाना खाकर हम घर चले आये .
थके हुए तो थे ही . इसलिए आराम करने पर सहमति हो गयी. मैं तो वर्षों बाद घुडसवारी की थी . काफी थक गया था . मैं बिछावन पर जाते ही गहरी नींद में सो गया. श्वेता बैठक खाने में आराम करने चली गयी.
मैं पांच बजे के करीब उठ गया . हाथ – मुँह धोकर श्वेता के कमरे में गया तो उसे सोये हुए पाया . उठाना उचित नहीं समझा . रसोई घर में जाकर मेगी बनायी और दो कप कॉफ़ी भी. मैं आनंद फिल्म का अपना पसंदीदा गाना – ‘ कहीं दूर जब दिन ढल जाए , सांझ की दुल्हन बदन चुराए , मेरे सपनों के , आँगन में आये . ’ गुनगुना ही रहा था कि श्वेता मुझे खोजते हुए किचेन में आ धमकी और बोली :
मैं गुनगुनाहट सुन के यहाँ चली आयी. अकेले में अच्छा गुनगुना लेते हैं . मैंने जब आनंद फिल्म देखी थी तो यह गाना मुझे बेहद पसंद आया था. मैं भी कभी – कभी अकेले में … पंक्तियाँ बड़ी बेजोड़ है .
सो तो है. हमारे देश में भी कई ऐसे कवि हुए जिनकी रचनाएं बेजोड़ है. मुँह – हाथ धोकर बैठक में आ जाओ . मेगी और कॉफ़ी बना कर रख लिया है. तुम गंभीर नींद में थी , इसलिए नहीं उठाया .
आप भी खाना अच्छा बना लेते हैं .
यह सब तुम्हारी शोहबत का नतीजा है.
मेगी खाने और कॉफ़ी पीने के बाद छत पर चले गये. पूर्णिमा की रात थी . चाँद अपने शबाब पर था – अपनी छटा विखेर रहा था. हवा में मीठी – मीठी ठंडक थी . शरद ऋतू का एक तरह से आगाज था.
खाना भी बनाना है . एक घंटा तो लग ही जाएगा .
चलो नीचे चलते हैं .
हम किचेन में चले आये . आलू परोठा और आलू भुजिया बनाने के लिए श्वेता ने आलू उबलने के लिए कूकर में बैठा दी. मैंने आलू भुजिया के लिए आलू महीन – महीन काट दिए. सबकुछ तैयार हो गया तो हम साथ –साथ खाने बैठ गये. रात के दस बज गये. मैंने तो कुरता – पैजामा पहले से ही पहन कर रखा था , लेकिन श्वेता साड़ी में थी. वह कपड़े बदलने चली गयी. नाईटी पहन कर चली आयी – मेरी पसंदवाली. मैंने इसबार टोकना उचित नहीं समझा. मेरे ही बगल में लेट गयी. आज श्वेता थकी – सी लग रही थी.
मैंने ही बात शुरू की : घुड़सवारी से लगता है कुछ ज्यादा ही थक गयी हो.
आप बहुत टपाते थे. तेज भी हाँक रहे थे .
मजा आ रहा था न !
मजा तो तुम्हें भी आ रहा था . जान मेरी निकल रही थी.
वो कैसे ? वो तुम्हारा … चुभ रहा था … जब – तब .
तो ? तो क्या , गुदगुदी हो रही थी .
सच्ची ? सच्ची . कहकर मैंने श्वेता को करीब खींच लिया और जी भर …
श्वेता हंस – हंस कर लोट – पोट हो गयी . मैं भी अपनी हंसी को रोक नहीं सका. आपने क्या कहा था ? क्या होता था ? गु … द … गु … दी = गुदगुदी | थोड़ी देर के बाद मैंने पुनः पूछा : अब समझी ?
समझी .
सच्ची ? मैंने उसी के लहजे में सवाल किया . श्वेता कुछ नहीं बोली , लेकिन उसके चेहरे की रंगत बता रही थी कि अब वह गुदगुदी का अर्थ भली – भांति समझ गयी है |
लेखक : दुर्गा प्रसाद , गोबिंदपुर , धनबाद , दिनांक : १३ मई २०१३ , दिन : वृस्पतिवार | ***********************************************************************