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Hindi Story – Nani tumne ka bhi pyar kiya tha?-8
Image by Martin Hirtreiter
उसने तीन रचनाएं प्रकाशनार्थ भेजी हैं। दो काव्यात्मक हैं और एक कहानी के रूप में है। वह आज के प्रदूषित वातावरण पर लिखता है-
“इस प्रदूषण भरे शहर में
मैंने आज तारों को
टिमटिमाते पाया
और मैं आश्वसत हुआ
कि मेरे शहर का प्रदूषण
आज कम है,
सभ्यता आज
उच्चतर बिन्दु पर है,
मेरी यादें
ज्वालामुखी की तरह उ
बचपन में पहुँच गयी,
जब स्फटिक होता था आकाश
और तारों तक दृष्टि जा
पूर्ण हो जाती थी।”
इसी के साथ शायद उसे हमारा प्यार बड़े आयाम पर दिखता है और वह इसे व्यक्त करना चाहता है-
“जिस जगह पर
मैंने तुमसे कहा
“मैं तुमसे प्यार करता हूँ”
वह जगह अब भी सजीव है
अनुभूतियां अब भी वहाँ हैं
सिसकती आँखें अब भी
वहाँ चमकती हैं,
कदम वहाँ अब भी ठिठकते हैं
शब्दों में प्राण वहाँ गूँजते हैं,
जिस जगह पर
कृष्ण ने राधा से नहीं कहा
“मैं तुमसे प्यार करता हूँ”
केवल साध्य रह
बाँसुरी बजाते रहे
और वहाँ प्यार को युगों में उडेलने
शुद्ध कर रख दिया।”
उसने कहानी अपने परिवेश से चुनकर लिखी है जिसमें रिंकू और शैलू के बीच की वार्ता एक जाति विशेष द्वारा स्वयं को नकारने का संदर्भ है।
रिंकू , शैलू से पूछता है ,”कहाँ जा रहे हो?”
शैलू बोलता है,”मैं बुकिलधार जा रहा हूँ। बुकिलों के यहाँ।”
रिंकू फिर पूछता है, “यह बुकिल क्या होता है?”
शैलू बोलता है,”बुकिल एक हेय दृष्टि से देखा जाने वाला जंगली छोटा पौधा है।इसकी पत्तियां जब सूख जाती हैं तो उनको मसलकर झुल बनाया जाता है। इस झुल को चकमक पत्थर पर रख, लोहे के टुकड़े से घर्षण पैदा कर आग उत्पन्न की जाती है।गाँवों में इस प्रकार झुल पर सुलगती आग को हुक्के के तम्बाकू पर रख तम्बाकू पीया जाता है।या गाँव वाले जानवरों को चारागाह में जब ले जाते हैं तो तम्बाकू पीने के लिये इस विधि का प्रयोग करते हैं।
गाँव में बुकिल शब्द का प्रयोग लगभग १९२० से हुआ है।जब एक भूमि सम्बन्धी मुकरदमे में अंग्रेज न्यायाधीश ने इस धार में रहने वाले बुजुर्ग , जो मुकदमे में एक पक्ष था, चर्चा के दौरान पूछा था,”तुम्हारी जाति क्या है?”
तो उस बुजुर्ग ने अपनी क्षुद्र व दीन अवस्था को देखते हुये कहा था,”साहब,जाति क्या है,बुकिल की जड़ है।”
अपनी जाति की उपमा इस प्रकार दिये जाने से उस समय से उनकी जाति के लोगों को बुकिल कहा जाने लगा।इस घटना ने आने वाली पीढ़ियों को एक मानसिक शूल दे दिया।अब बुकिल शब्द प्रचलित हो गया और मुख्य जाति गोण हो गयी।
मैंने उसकी कहानी को यहीं तक पढ़ा।और उसका चेहरा मेरे सामने आने लगा।मेरी आँखें डबडबाने लगी।उसका वह व्याख्यान मेरे मस्तिष्क में घूमने लगा जो उसने सबसे पहले दिया था। वह अनिश्चितता के सिद्धान्त को समझा रहा था। कि किस प्रकार किसी कण की स्थिति और उस स्थिति में समय की जानकारी एक साथ नहीं ज्ञात की जा सकती है।दोनों के बीच कुछ अनिश्चितता विद्यमान रहेगी।मैं सोच रही थी कि रामचन्द्र जी के वनवास में भी राजतिलक की जगह वनवास का होना,जन्मकुण्डली में इसी अनिश्चितता के कारण हुआ होगा। जन्म- स्थिति और जन्म- समय की एक साथ जानकारी न होना।
वह समीकरण श्यामपट पर लिखता था और मेरी आँखों में बार-बार झांकता था।उसके हाव-भावों पर मैं मुग्ध थी। व्याख्यान के बाद उसने मेरे से पूछा,”कैसा लगा?” मैं चुप रही और उसे देख, बाहर आ गयी।
मेरी सोच यहाँ तक पहुँचते ही, मुझे नींद आ गयी।
***