उसकी मुस्कान को मैं कभी भूल नहीं पाती हूँ।वह कभी आसमान की तरह गहरी होती जहाँ असंख्य नक्षत्र झिलमिलाते दूरी का आभास देते हैं।या उस झील की तरह जिसका पानी हवा से हिलता और मेरे भावों की नावें और मछलियां उसमें तैरती रहती हैं।उसकी लिखी पंक्तियों को में बार-बार पढ़ती हूँ।
“तूने मेरे कदमों को
एक अर्थ दिया था,
आँखों को कहने का
अद्भुत संयोग दिया था।
मन बैठ गया था
जब तेरे आँगन में,
इक आदर का भाव
वहीं लेने आया था।
तेरी यादों का पता
बार-बार पढ़ता हूँ,
किये गये वादों से
रूठ नहीं पाता हूँ।
तूने मेरे हाथों में
जो समय रखा था,
वह अब भी रुका हुआ
महसूस होता है धीरे-धीरे।”
उसका लिखा साहित्य मेरे जीवन के समान्तर चलता है। बच्चे जब उससे कहानी सुनाने को कहते हैं तो वह कहता है,” एक लड़की थी,”और इतना कह कर रुक जाता है। और लम्बी सोच में डूब जाता है। बच्चे आगे की बात जानने के लिए जिद करते हैं और अत्यधिक उत्सुकता दिखाते हैं, लेकिन वह ,”दूसरे दिन सुनाउँगा,” कह कर उन्हें मना लेता है।
बाद में बच्चों की इस उत्सुकता को उसने शब्द दिये –
” मेरे प्यार की कथा जब बूढ़ी हुई
मैंने अपने बच्चों को सुनायी उसकी एक पंक्ति,
वे उत्साह में उछले
कौतुक में बैठ गये
उनके कान खड़े हो गये
चेहरे पर भाव उमड़ पड़े,
शायद वे मान बैठे थे
कि मैं वह प्यार कर नहीं सकता
जीवन का वैभव सोच नहीं सकता
मैंने कथा शुरु की-
“एक लड़की थी
जो हँसती थी,मुड़ती थी,
खिलखिलाती थी,
आसमान सी बन
आँखों के ऊपर आ जाती थी,
उसमें प्यार की उर्जा थी,
सपनों की छाया थी,
मन की आभा थी,
बर्फीली हवाओं में चलती थी,
आँखों में तैरती थी,
तपती धूप में
मन के छोरों पर खड़ी रहती थी,
मन्दिर में जा
शायद ईश्वर से कुछ मांगती थी,
बच्चे सुनते रहे
कथा खत्म नहीं हुई,
वहाँ माँ आ गयी
और मैं चुप हो गया।”
समारोहों में वह अपने भाषणों में एक प्रचलित कहानी सुनाता है।
” एक बार एक साधु ने नदी की बाढ़ में, बिच्छू को बहते देखा। साधु उस बिच्छू को हाथ से पकड़ कर बचाने की कोशिश कर रहा था और बिच्छू उसे डंक मारता और साधु के हाथ से वह फिर नदी में में गिर जाता और बहने लगता। साधु उसे फिर उठाता और बिच्छू फिर डंक मारता और फिर नदी में छटक कर बहने लगता। एक राहगीर काफी देर से यह सब देख रहा था।वह साधु के पास गया और बोला,” साधु महराज, आप इस बिच्छू को क्यों बचा रहे हैं? जबकि वह आपको बार-बार डंक मार रहा है। साधु ने उत्तर दिया,” जब यह बिच्छू अपना स्वभाव नहीं छोड़ सकता,जिसका स्वभाव डंक मारना है, तो मैं अपना स्वभाव क्यों छोड़ दूँ? मेरा धर्म तो बचाना है।”
समारोह में एक व्यक्ति उठकर बोला,” यहाँ साधु कौन है और बिच्छू कौन है?” उसकी बात सुनकर वह मुस्करा दिया।
उसके विचारों के वृक्षों में अनेक तरह की विविधता विद्यमान रहती है।वहाँ वसंत भी है और पतझड़ भी है।जीवन के नद और देश का परिदृश्य साथ-साथ चलते हैं।
“बहुत दिनों से
मैं देश बना हूँ,
जहाँ गंगा बहती है
हिमालय आकाश की ओर
घूमने जाता है,
बहुत दिनों से
मैं देश बना हूँ,
भाषावार मुझे बाँटा गया है,
मेरी ईहा के
बंदर बाँट में
मुझे अकेला छोड़ा गया है ,
मेरी अनिच्छा पर
लोग चलते हैं,
इतिहास की चमक को
काल्पनिक कहते हैं,
मेरे घावों को
बार -बार कुरेदते हैं,
मेरे लिये नहीं
अपने स्वाभिमान के लिये
जनता को चलना है,
शासन की आत्मा में
दिन-रात, युगों तक
भारत को रहना है,
बहुत दिनों से
मैं देश बना हूँ,
जहाँ गंगा है,यमुना है,
ब्रह्यपुत्र है, गोदावरी है,
कावेरी है, नर्मदा है,
बादलों का मन है,
धरती का स्वास्थ्य है,
ध्रुव की तपस्या है,
राम के गुण हैं,
कृष्ण का आलोक है,
पर फिर भी आज
सांसें रूकी लगती हैं,
बहुत दिनों से
मैं भारत बना हूँ।”
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