प्रतिशोध और प्रेम।
जितना निरुपमा के किताब के विमोचन के समय तालियाँ नहीं बजीं, उससे कहीं ज़्यादा पूरा हाॅल तब उसकी वाहवाही में डूब गया जब उसने २५ लाख का चेक़ मानव तस्करी के विरुद्ध लड़ रहे एक गैर सरकारी संगठन को अपने हाथों से सौंपा। २५ लाख! और वो भी राइटर होकर! निरुपमा भले ही अब समूचे देश में एक प्रख्यात लेखिका के रूप में स्थापित हो चुकी है पर फिर भी, २५ लाख देना किसी राइटर के व्यक्तित्व में फिट नहीं होता। गहरी और दार्शनिक बातें लिखने वाले लेखक, लेखक ही रहते हैं, बिज़नेस पर्सन नहीं बनते।पर निरुपमा ने भी ये दान किसी फायदे को ध्यान में रखकर नहीं किया। उसे तो बिज़नेस का शौक़ था भी नहीं। उसने ये २५ लाख एक सामाजिक उद्देश्य के लिए दिए।
कार्यक्रम समाप्ति की ओर था। वहाँ मौजूद लगभग सभी के हाथ में निरुपमा शुक्ला की ११वीं पुस्तक ‘शक्तिरूपा का सत्य’ की प्रति दिखाई दे रही थी। किंतु अधरों पर मद्धम सी मुस्कान लिए निरुपमा, सबकी प्रशंसा से अछूती, बाहर की ओर चली गई। कदाचित् बहुत अधिक संघर्ष के बाद मिली सफ़लता व्यक्ति को अप्रभावित रहना सिखा देती है! व्यक्ति चीज़ों की नश्वरता को समझ जाता है! वह समझ जाता है कि इस संसार में कुछ भी शाश्वत नहीं। न सफ़लता, न संघर्ष।
साँझ का समय था। डूबते सूरज की नारंगी किरणों ने बाहर विस्मित कर देने वाला दृश्य सजा रखा था। निरुपमा अभी वहाँ खड़े इस अलौकिक सुंदरता को अपने भीतर उतार ही रही थी कि किसी ने उसे चौंकाते हुए कहा,
“२५ लाख! आज भी वैसी ही हो तुम.. आज भी दुनियादारी नहीं समझती!” निरुपमा ने पलटकर देखा और एकटक देखती रह गयी। वाह रे ज़िंदगी! कब किस मोड़ पर पुराने मुसाफ़िरों को सामने ला खड़ा करे, कहना मुश्किल है। मुसाफ़िर? नहीं। सिद्धार्थ तो उसका होने वाला हमसफ़र था, कोई आम मुसाफ़िर नहीं । निरुपमा ने उसकी आँखों में छुपे उसके प्रति क्रोध के भावों को पढ़ लिया। उसने भी उतने ही तंजपूर्ण लहज़े में जवाब दे डाला,
“तुम भी तो बिल्कुल वैसे ही हो, सिद्धार्थ । न उस दिन मुझे समझ पाये और न आज।”
‘उस दिन’ के ज़िक्र ने सिद्धार्थ के सालों से दबे गुस्से को क्षण भर में ही भड़का दिया। निरुपमा को पछताते हुए के बजाय इस तरह तंज कसता देख आपे से बाहर हो गया वह।
“हाँ! उस दिन तो मैं ही भागा था ना! शायद टाइम पास था मैं तुम्हारे लिए। इसीलिए तो जब शादी करने की बात आयी तो दूर चली गयी! ओह हाँ! अपने राइटर बनने के सपने को पूरा करना था ना तुम्हें तो! लो कर ही लिया तुमने ये भी…
“सात सालों में ११ बुक्स, जिनमें से ५ कविताओं का कलेक्शन! यार निरुपमा, तुम्हें तो दोष भी नहीं दे सकता मैं! मुझसे दूर जाने पर ही तो तुम इस मुकाम पर पहुँच पायी हो! मैं सच में तुम्हारे और तुम्हारे सपनों के बीच खड़ा था शायद।” सिद्धार्थ के स्वर में प्रशंसा नहीं, परिहास था। पर एक बात जो निरुपमा को वास्तव में परेशान कर गयी, वह था सिद्धार्थ का व्यक्तित्व। आज भी उतना ही हठी, उतना ही आवेगशील था वह। दूसरों की बातों से प्रभावित होना और उन्हें पर्सनली ले लेना स्वभाव में था उसके। पता नहीं किस प्रकार इतना बड़ा बिज़नेस संभाल रहा है! निरुपमा ने इस बार प्रत्युत्तर नहीं दिया। वह जानती थी कि सिद्धार्थ को यही बताया गया होगा। वह उसे ढूँढने की कोशिश ना करे, इसीलिए निरुपमा के अपने सपनों की खोज में उससे दूर जाने की कहानी को रच डाला गया।
“है ना, निरुपमा? था ना मैं तुम्हारे और तुम्हारे सपनों के बीच?” सिद्धार्थ के बार-बार दोहराए गये शब्द निरुपमा को उसके काँटों से भरे अतीत से भी अधिक चुभने लगे। वह स्वयं को रोक नहीं पायी।
“क्या जानते हो तुम उस दिन के बारे में, सिद्धार्थ? क्या जानते हो? क्या ये जानते हो कि बिन माँ-बाप की लड़की को उसके कमीने चाचा ने उस दिन किसी गिरोह को बेचने का प्लान बनाया था? क्या ये जानते हो कि कितनी मुश्किल से वो लड़की अपनी इज़्ज़त बचाते हुए भाग पायी थी उस दिन?” सिद्धार्थ का कॉलर अपने हाथों में दबोच, रो पड़ी निरुपमा।
“क्या ये जानते हो तुम कि कितनी बार तुमसे बात करने की कोशिश की मैंने? कि दिन-रात कितना याद किया तुम्हें? तुम्हारी पहुँच तो बहुत ऊपर तक थी न सिद्धार्थ! बहुत पैसे वाले तो तुम हमेशा से थे। तो क्यों नहीं कभी मेरा पता लगाने की कोशिश की? कहाँ था तुम्हारा ये पैसा, तुम्हारी ये पहुँच? इसी पैसे, इसी रुतबे से दुनियादारी समझने का गुरूर है न तुम्हें! तुमसे अधिक दुनियादारी मैंने देखी है सिद्धार्थ.. पिछले १० सालों में ।”
बुत बना खड़ा था सिद्धार्थ, पर उसकी आँखों से आँसू बहे जा रहे थे। उसे अपने आप से घृणा हो चली थी । १० साल पहले वह ये सोचकर लंदन चला गया था कि जब निरुपमा अपने सपनों को पूरा करने के लिए उससे दूर जा सकती है तो वो क्यों नहीं अपनी इंडस्ट्रीज़ को नयी ऊँचाई तक ले जाने की सोचे। कितना स्वार्थी है वह! कितना अहंकारी! एक बार भी निरुपमा को ढूँढने की कोशिश नहीं की! कितना कुछ अकेले सहती रही उसकी निरुपमा! और आज जब वह उसके सामने आया भी तो उस पर कटाक्ष करते हुए! धिक्कार है उस पर! आगे बढ़कर सिद्धार्थ ने जैसे ही निरुपमा का चेहरा स्पर्श किया, वह झटके से पीछे हट गयी। नहीं! भले ही सिद्धार्थ का प्रेम कभी उसके लिए सबसे प्रिय पुस्तक के समान था, जिसे वह बार-बार पढ़ना चाहती थी। खुशी में, उदासी में, हर समय; पर अतीत के कुछ अध्याय केवल अतीत में ही अच्छे लगते हैं। उन्हें वर्तमान में पढ़ने से अर्थ पहले की तरह नहीं निकलता।
निरुपमा वहाँ से जाने लगी थी। पर कुछ दूर चलने के बाद ही न जाने क्यों अचानक उसके कदम थम गये। उसने पीछे मुड़कर देखा। उम्र के ३८वें पड़ाव पर भी सिद्धार्थ अकेला खड़ा था, उसकी ही भाँति। उसे कुछ महीने पहले एक अख़बार में पढ़े लंदन बेस्ड सिद्धार्थ सक्सेना का इंटरव्यू का स्मरण हो आया। निरुपमा उसके पास आयी।
“आज तक शादी क्यों नहीं की तुमने?” आवाज़ में एक अलग तरह की नर्मी लिए, जब निरुपमा ने सवाल किया तो सिद्धार्थ को लगा जैसे ये १० साल कभी उसकी ज़िंदगी में आये ही नहीं, जैसे वो कभी निरुपमा से अलग हुआ ही नहीं ।विरह के बाद का मिलन कितना सुख देता है! आज वह निरुपमा को अपनी बाँहों में भर लेना चाहता था, इस तरह से कि फिर कभी वह उससे दूर ना जा पाए। सिद्धार्थ आज उसे पिछले १० सालों के एक-एक क्षण के बारे में बताना चाहता था, बताना चाहता था कि वह प्रतिशोध नहीं, निरुपमा के लिए उसका प्रेम था जिसने उसे आज तक किसी और का नहीं होने दिया।
“तुमसे परमिशन नहीं ली था ना! तुमसे बिना पूछे आज तक कभी कुछ किया है मैंने?”
निरुपमा खिलखिला उठी। मुस्कुराते हुए जब उसने उसके आँसू पोछे तो सिद्धार्थ उससे गले लगकर बच्चे की भाँति रोने लगा। सूरज डूब चुका था, शाम गहरी हो चली थी, पर आसमां की फीकी होती परतों पर कयी तारे जगमगा उठे थे।
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