In this Hindi story the beloved teaches her lover about worldliness . Lover quite ignorant of sex in boyhood learns everything & enjoys with her,
यह एक ऐसा नाम है , जो याद आते के साथ मेरे मन में वर्षों से सुसुप्तावस्था में पड़ी हुयी चेतना को जागृत कर देती है. सावित्री को भूल पाना मेरे लिए बहुत ही कठिन है. इसकी वजह हमारी अंतरंगता है. वह मेरे मोहल्ले की एक अल्ल्हड़ बाला थी. हम करीब – करीब हमउम्र थे. ऐसे तो वह कभी- कभार किसी आवश्यक कार्य से अपने मैके आया करती थी , लेकिन मैं अपने कामों में इतना उलझा रहता था कि इस ओर मुझे सोचने का मौका ही नहीं मिल पाता था. अष्टमी का दिन. ऊपर बाज़ार, गाँव भीतर, विलेज रोड, एवं वाणी मंदिर में दुर्गा माँ की भव्य प्रतिमा बनी हुयी थी.
हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी हमने शुबह चार बजे के लगभग दर्शन करने का निश्चय कर लिया था . मेरी पत्नी मेरे साथ थी . हम सप्तमी की रात को जल्द खाना खाकर सो गये ताकि शुबह जल्द उठा जाय . हुआ भी ऐसा ही . हम तीन बजे के करीब बिछवान से उठ गये . नित्य की भांति पत्नी ने चाय बना दी. हम एक – एक कप चाय पीने के बाद माँ दुर्गा के दर्शन के लिए निकल पड़े. जब वाणी मंदिर की प्रतिमा देखकर लौट रहे थे तो अचानक सामने सावित्री दिख पड़ी .
मैंने ही सवाल किया, ‘’ तुम कब आयी ?”
‘’ दो दिन पहले ही.’’
“कैसी हो ?”
“अच्छी हूँ.
घर आना ,
जरूर. लेकिन आज नहीं . आज उपवास का दिन है , कल ? हाँ, कल नवमी है. नौ दिनों तक घर में भजन – कीर्तन होता है . शाम तक समापन हो जायेगा . हम सब इतने व्यस्त रहते हैं कि नवमी भी उपयुक्त नहीं होगा. दशमी को शाम को जरूर आओ. इतने वर्षों बाद हम मिले हैं – ढेर सारी बातें होगी . हम पुरानी बातों को यादकर अपने जख्म को भरने की कोशिश करेंगे .
सावित्री क्षण भर रूकी . मेरी ओर देखी – कुछ बोलना चाहती थी , लेकिन नहीं बोल पाई ,क्योंकि साथ में कुछ महिलाएं थीं , जो चलने को उद्दत थीं . मैंने भी ज्यादा बात करना मुनासिब नहीं समझा. आत्मा ने मुझे कोसा , ‘ कैलाश ! कुछ तो शर्म करो . दादा – नाना हो गये हो . राह चलते किसी महिला को … इस तरह रास्ता रोककर बात करना शोभा देता है क्या ?. उसके साथ मुहल्ले की और महिलायें हैं , क्या सोचेगी ? ’ आत्मा की आवाज़ थी. आत्मा की आवाज़ में सच्चाई होती है . इसलिए प्रतिकार नहीं किया जा सकता . तत्क्षण मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया . मैं तेज क़दमों से सीने पर पत्थर रखकर चल दिया . मेरी आँखों के समक्ष सावित्री के साथ गुजरे हुए सुखद पल फिल्म की रील की तरह एक के बाद एक आने – जाने लगे . दृश्य इतने जीवंत थे कि मैं अतीत में खो गया . पास ही एक बेंच खाली थी – मैं उसी पर निढाल हो गया . ऐसे क्षण में लोग अचेतावस्था में चले जाते हैं – ऐसा मेरा मत है. मैं भी … मुझे एक घोडा दिखलाई देता है . उसकी पीठ पर एक अबोध बालक बैठा हुआ है – उसके पीछे एक अबोध बालिका बैठी हुयी है . घोडा समान गति से सड़क पर भागा जा रहा है . लड़का एक गाना गा रहा है चलते – चलते – ‘ बचपन के दिन भुला न देना , आज हँसे कल रुला न देना . ’
लड़का या लडकी इस गाने के अर्थ को समझते हैं कि नहीं मैं बता नहीं सकता , लेकिन दर्शक बखूबी समझते हैं :
लड़का को लडकी से प्रेम है . इसे आज की भाषा में प्यार , इश्क या मोहब्बत का नाम दे सकते हैं. लड़का लडकी को पाना चाहता है आजीवन , ताजिंदगी एक तरफ , लेकिन दूसरी तरफ वह भयभीत भी है , आशंकित है कि शायद लडकी को ( चाहे कारण या वजह जो भी हो ) वह पा न सके – वह लडकी किसी दूसरे की होकर उसे छोड़कर न चली जाय . आज लडकी के साथ है लड़का – उसके सानिध्य में उसे अपूर्ब सुख की अनुभूति हो रही है – वह लडकी को अपनी प्रसन्नता का श्रेय देता है . साथ ही साथ यह भी स्पष्ट कर देता है कि आज वह लडकी उसे प्रसन्न कर रही है आनेवाले वक़्त ( कल ) वह उसे रूला न दे. अक्सरां ऐसा होता रहता है कि प्रेम या प्यार किसी से होता है और विवाह किसी और से हो जाता है. लडकी विवाह के बंधन में बंधकर ससुराल चली जाती है . और लड़का ? उसके बाद उसका क्या हश्र होता है , मैं बताने की जरूरत नहीं समझता , क्योंकि आप मुझसे ज्यादा समझदार हैं और आपके पास वक़्त ( अवसर ) है इसे समझने के लिए. मैं तो … ?
पांच दसक के बाद क्या बच जाता है आदमी के पास ?
यह सवाल आप कर सकते हैं मुझसे .
मेरे पास माकूल जबाव मेरे दिल के शोकेस में हमेशा रेडी रहता है .
सुधी पाठकों के लिए गजल सम्राट जगजीत सिंह का अति लोकप्रिय गजल – ‘ होठों से छू लो तुम , मेरा गीत अमर कर दो , बन जाओ मीत मेरे , मेरी प्रीत अमर कर दो . ’ इस सवाल के जबाव के सन्दर्भ में ये पंक्यियाँ उद्धृत है :
‘ न उम्र की सीमा हो , न जन्म का हो बंधन , जब प्यार करे कोई तो देखे केवल मन . ’
इन पक्तियों की व्याख्या करने की आवश्यकता मैं नहीं समझता . अर्थ सरल व सहज है.
प्रेम या प्यार एकबार किसी लड़के का किसी लडकी से हो जाय तो वे एक दूसरे को ताजिंदगी भूल नहीं पाते . उम्र के साथ – साथ स्मृति पर परत जम जाती है , लेकिन एक दूसरे के आमने – सामने होते ही वह परत स्वतः हट जाती है. जब मैंने पांच दसक के बाद सावित्री को देखा तो मोहब्बत की दबी चिंगारी प्रजवल्लित हो उठी . जब हमारा प्यार हुआ उन दिनों आज की तरह प्रसार – प्रचार के माध्यम , न ही साधन उपलब्ध थे . आज दूर दर्शन है , इंटरनेट है … घर बैठे लड़के – लड़कियां , युवक – युवतियां बहुत सी अंदरूनी बातों को भी अपरिपक्क ( कच्चे ) उम्र में ही जान जाते हैं जबकि हम दुनियादारी से इस उम्र में महफूज थे.
मेरी उम्र ग्यारह बारह रही होगी और सावित्री का भी करीब – करीब उतना ही. मैं दुनियादारी से बिलकूल महफूज था , लेकिन सावित्री इसमें अच्छा खासा अनुभव रखती थी. ऐसे भी शोध कर्तावों ने पता लगा लिया है कि लड़कों की अपेक्षा लडकियों को दुनियादारी का ज्ञान चार – पांच साल पहले ही हो जाता है . हमलोग शाम को बाहर में लुक्का – चोरी खेल रहे थे. हम एक जगह छुपना चाहते थे , लेकिन वह मुझे अपने घर के एक कमरे में ले गयी – मुझे चूमने लगी – एक के बाद दूसरा – तीसरा … कई बार . मैं जबतक सम्हलता वह बोल उठी :
तुम भी इसी तरह मुझे भी … बहुत अच्छा लगेगा .
कोशिश करता हूँ – कहकर मैंने उसे चूमा तो एक अजीब तरह की सिहरन व उन्माद का एहसास हुआ मुझे . मैं फिर अपनी सबल बाहों में पकड़कर वहीं … और कई बार लगातार चूमता रहा . फिर उसने भी मुझे … वह बोली :
आज इतना ही , फिर कल …
सात दिनों में दुनियादारी सीख जाओगे .
यह दुनियादारी क्या होती है ? – मैंने उत्सुकतावश पूछ दिया .
वह खिलखिलाकर हंसने लगी और बोली : दुनियादारी ? धीरे – धीरे सीख जाओगे तो इसका अर्थ भी समझ जाओगे. आज दुनियादारी का पहला अक्षर दु सिखाया है मैंने तुम्हें , कल नि , परसों या – इस तरह पांच ही दिनों में … सात दिनों की जगह , लेकिन जैसा कहूंगी वैसा तुम्हें करना है . तैयार हो ?
हाँ , तैयार हूँ .
मन से ?
मुझे चुम्मन का स्वाद मिल चूका था , इसलिए झट से जबाव दे दिया :
मन से भी और तन से भी .
उसने इस बार आँखें उठाकर मुझे देखी – जादूगरनी की तरह .
वह समझ भी गयी कि लड़का अब उसकी मुठ्ठी में आ गया है . हकीकत भी यही थी. मुझमें उत्तेजना व उन्माद के अतिरिक्त सम्मोहन ने भी घर कर लिया था. घर आया तो किसी काम में मेरा मन नहीं लगने लगा . रात को आखों से नींद गायब थी . मैं इसी दुश्चिंता में रातभर करवट बदलता रहा कि जब दु इतना सुखद है तो नि कैसा होगा ?
दूसरी शाम सावित्री अँधेरा फैलते ही आ गयी और मेरा हाथ पकड़ कर छत पर ले गयी. वहां एक कमरा था . हम चौकी पर बैठ गये यह देखने के लिए कि आज मुझे नि के अंतर्गत क्या पाठ पढ़ाती है . उसने कलवाले पाठ को दोहराना शुरू कर दिया और मेरी तरफ मुखातिब होकर बोली :
नि सीखने के लिए दु को दोहराना जरूरी है. मैं समझ गया कि ऐसा करने का मकसद क्या है . मैंने पूछा :
क्यों ?
सबकुछ पता चल जाएगा जल्द ही. उसने जब पाठ दोहराया तो मैंने भी पाठ सिखने में कोई कोताही नहीं की. मैंने उसे कसकर पकड़ लिया और … कई बार … जड़ दीये . वह चाहती भी यही थी .
फिर उसने मेरी कमीज के बटम एक के बाद दूसरा … खोल दिया और मुझे गुदगुदाने लगी .
बोली : तुम भी इस तरह मुझे भी …
इतना सुनना था कि सारी बातें मेरी समझ में आ गयी कि मुझे क्या करना है . मैंने गुदगुदाया ही नहीं बल्कि …
वह हंस हंसकर लौट – पौट हो गयी.
मैंने पूछा : क्यों इतनी खुश हो रही हो ?
तुम मेरा कहने का तात्पर्य समझ गये और उसी के अनुरूप मेरे …
पता नहीं ये भाव मेरे में कैसे पैदा हो गये कि मैंने ऐसा …
अब आज चली , बहुत देर हो गयी .
हम घायल शिकारी की तरह घर चले आये. न रात को नींद न दिन को चैन .
शाम की दुल्हन की तरह बदन चुराए सावित्री कहाँ से टपक पडी . आज मैंने ही प्रस्ताव दिया :
आज मेरे छत पर खेलने चलो . बहुत ही अच्छी जगह है , पलंग , तोशक – तकिया सब है. अतिथि – गृह है और मेरे लिए तुमसे बड़ा अतिथि कौन हो सकता है ! वह तुरंत ताड़ गयी . बोली : तब तो आज या और दा दोनों पाठ …
दोनों क्यों ? आज री भी हो जाएगा . सावित्री ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा , ‘ ऐसा ?
हाँ. ऐसा ! मैंने विश्वास के साथ उत्तर दिया .
उस जमाने में मेरी उम्र के लड़के हाफपेंट पहना करते थे . बटन की जगह नाड़ा लगा रहता था पेंट में . मैं भी हाफपैंट पहना हुआ था.
आज हम निश्चिन्त होकर अगल – बगल लेट गये . उसने पाठ एक , फिर पाठ दो दोहराई – एक नहीं कई बार . मैंने भी उसी की तरह दोहराया – एक नहीं कई बार. उसने फिर धीरे – धीरे … मैंने भी फिर दोहराया धीरे – धीरे … हम ढ़लान की ओर फिसलते चले गये – आहिस्ते – आहिस्ते – एक नयी उमंग ओर स्फूर्ति के साथ .
अबतक हम एक दूसरे को समझ गये थे कि हमें एक दूसरे के साथ क्या करना है.
हम एक दुसरे में इतने तल्लीन हो गये कि हमें वक़्त का पता ही न चला . चाँद निकल आया – सितारों की महफील सज़ गयी. फिर भी हम एक – दूसरे में खोये रहे – बेखुदी में.
हम चोरी – चोरी , चुपके – चुपके अपने – अपने घर चले आये . खाना खाकर सोये तो इतनी गहरी नींद हुयी कि दिन सर पर चढ़ आया फिर भी नींद नहीं टूटी . ऐसी नींद जैसे घोड़े बेचकर कोई सो गया है . मेरी नींद तब टूटी जब सावित्री ने मेरे मुखारविंद पर पानी के छींटें डाले. मैं आँखें मलते – मलते उठा तो सावित्री पूछ बैठी :
मुझे अब यकीन हो गया कि दुनियादारी सीख ली तुमने . मैं क्या जबाव देता क्योंकि उसकी बातों में दम था .
यह दुनियादारी दो – चार कदम ही चल पाई थी कि रंग में भंग हो गया . जिधर नज़र दौड़ी , उधर विलेन ही विलेन – बाहर के तो थे ही , हमारे घर में भी . हमारे अभिआवकों ने बैठ कर मंत्रणा की – एक निष्कर्ष पर पहुंचे . लडकी की शादी कर दी गयी और ? दोस्तों ! मेरी दुनिया लूट चुकी थी और लोग मेरी नज़रों के सामने ही जश्न मना रहे थे . दोस्तों ! जिन्दगी थमती नहीं – रूकती नहीं – आगे निरंतर बढ़ती ही जाती है – अबाध गति से . मेरे साथ भी यही हुआ. विदाई के वक़्त मैं एक कोने में सिसक रहा था और मेरे जख्म पर नमक छिडकने के लिये वो गाना ही प्रयाप्त था :
बाबुल की दुआएं लेती जा , जा तुझको सुखी संसार मिले ,
मैके की कभी न याद आये , ससुराल में इतना प्यार मिले |
यहीं मेरी बात ख़त्म नहीं हुयी . मेरे साथ क्या हुआ जानना नहीं चाहेंगे आप ?
मुझे दूसरे ही दिन कालापानी ( बोर्डिंग स्कूल ) भेज दिया गया .
आज विजया दशमी की शुभ घड़ी है . मैंने सावित्री को आमंत्रित किया है . बाहर बैठकर उसकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ . सांझ की दुल्हन की तरह बदन चुराए अपनी भाभी के साथ आती है . मैं उसके स्वागत में कह पड़ता हूँ – आओ साविय्री . करीब पचास वर्षों के बाद आयी , हम धन्य हुए !
हमसब साथ – साथ कमरे में प्रवेश किये. मेरी पत्नी प्रतीक्षारत थी . बैठी हुयी थी . हमें देखते ही खड़ी हो गयी स्वागत में . हमसब पलंग पर ही बैठ गये . बहुत सी बातें हुईं. कुछ नयी , कुछ पुरानी . सावित्री को रसगुल्ला और समोसे बहुत पसंद है . मैंने पहले से ही ला कर रख दिये थे. मेरी पत्नी प्लेट में रसगुल्ले और समोसे ले आयी . मैंने एक रसगुल्ला अपने हाथ से सावित्री को खिलाया चाहा तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और ? और उस रसगुल्ले के दो टुकड़े करके एक टुकड़ा मुझे खिलाई – दूसरा अपने खाई .
उसकी भाभी एवं पत्नी से मैंने कहा : हमलोग बचपन में लुक्का – चोरी बहुत खेलते थे . देखा सावित्री का कोमल कपोल लज्जा से लाल हो गया .
जाते समय मैंने एक जोड़ी पायल उसके हाथों में थमा दी और बोला :
मैंने बचपन में वादा किया था कि मेरे पास पैसे होंगे तो मैं तुम्हें एक जोड़ी पायल दूंगा , सो मैं अपना वचन पूरा कर रहा हूँ .
सावित्री ने ले तो लिया , लेकिन चोट कर दी :
आप पुरुषलोग कुछ भी भेंट करते हैं तो उसकी कीमत ( Price ) वसूलने के फेर में रहते हैं . क्या मैं गलत हूँ ?
नहीं . तुम सही बोल रही हो आज के परिप्रेक्ष्य में , लेकिन … ?
लेकिन क्या ?
लेकिन मैं तो तुम्हारा पुराना कर्ज उतार रहा हूँ .
एक बात पूछता हूँ तुमसे मैं आज अपनी पत्नी और तुम्हारी भाभी के समक्ष कि जो कुछ भी तुमने मुझे बचपन में दिया , क्या तुमने कभी उसकी कीमत मांगी मुझसे ?
वह निरुत्तर हो गयी और सोच में डूब गयी . मैं उसे अपलक निहारता रहा .
वह उठी और बुझे मन से मुझे छोड़कर चली गयी. और मैं ?
और मैं अतीत की वादियों में भटक गया – एक निरीह प्राणी की तरह .
लेखक : दुर्गा प्रसाद , गोबिंदपुर , धनबाद , दिनांक : ८ जूलाई २०१३ , दिन : सोमवार |
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