• Home
  • About Us
  • Contact Us
  • FAQ
  • Testimonials

Your Story Club

Read, Write & Publish Short Stories

  • Read All
  • Editor’s Choice
  • Story Archive
  • Discussion
You are here: Home / Hindi / An Untold Conversation

An Untold Conversation

Published by Jyotindra Nath Choudhary in category Hindi | Hindi Story | Love and Romance with tag bridge | Love

“एक अनकहा संवाद”…….जो शायद कभी हुआ ही नहीं…

“An Untold Conversation” That’s maybe never happened..
This is a Hindi story where Conversation between two famous lead character of Indian literature. i.e. from the novel of Parineeta & Devdas…This is the conversation on their sadness, separation, loneliness, deprecation And angriness about their love.

girls-lips-pink

Hindi Story – An Untold Conversation
Photo credit: taliesin from morguefile.com

मौसम के बदलते मिजाज ने पुरे भूगोल को बदल कर रख दिया है.. सुखी हुई नदी में अचानक जल की प्रवाह ने अपना स्थान बना लिया है.. पतझर में गिरे पत्ते आज फिर अचानक पेड़ पर उग आये हैं…आकाश में सफ़ेद और काले बादलों का समां गहराने लगा है… ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे आज इन दोनों को बहुत गहरी बात चीत में खो कर किसी दुर्लभ प्रश्न का उत्तर ढूँढना है.. वैसे बादलों का प्रवास कुछ क्षणिक समय के लिये ही एक स्थान पर होता है.. लेकिन पिछले कई दिनों से ये प्रवास होते-होते आज अचानक थम गया है.. हवा की प्रवाह में अजीब सी कसावट आ गयी है.. बादल थम गये हैं.. लेकिन बादलों की जमावट से पुरे श्रृष्टि में एक उमस सी छा गयी है… अचानक दूर बादलों की गङगङाहट ने एक रुके हुए हाथी को चाबुक से अपने तबेले में जाने का इशारा कर दिया है.. नदी में उठती तरंगो ने प्रवाह को भी अनियंत्रित कर दिया है.. छोटे-छोटे नौका किनारे लगने की टोह ढूंढ रहे हैं.. तो वहीँ छोटे-बड़े जहाज अपने स्थान पर न जाने विज्ञान का कौन सा नियम सिद्ध कर जहाज को वहीँ डगमग-डगमग नाचने दे रहे हैं…

अब सब जल्दी-जल्दी अपने गंतव्य को भाग रहे हैं.. कोई रिक्शा पर तो कोई टमटम पे.. जिसके पास कुछ नहीं है वह पैदल ही भाग रहा है.. और कुछ लोगों को कोई जल्दी नहीं है… बस वो इस तूफान के रुकने का इंतजार कर रहे हैं..
वहीँ इन सबसे बेपरवाह, लोहे का वो पूल जिसे अंग्रेजों बनवा तो दिया, किन्तु ज्यादा दिन इसका सुख नहीं भोग पाये.. हमारे लिये छोड़ गये, दो शहरों को एक करने वाला “हावड़ा-ब्रिज”.. जो न जाने कितने कहानियों, नाटकों, लोक कथाओं, कविताओं, गीतों और राजों का राजदार होगा.. वो आज भी चुप-चाप वैसे ही खड़ा है जैसे पिछले कई वर्षों से खड़ा था… बेपरवाही का आलम तो ये था कि पुल के नीचे बहती वो नदी, गंगा को भी नहीं पता था कि अंत में उसे भी तो अपने प्रियतम सागर से ही तो मिलना है.. बस वो बह रही थी.. न जाने वो कौन सी विलक्षण शक्ति थी जो उसे रोक नहीं पा रही थी.. बस उसे निरंतर बह कर कहीं पहुँचने की बहुत जल्दी थी..
लेकिन पूर्णिमा की रात को न जाने क्या हो जाता है.. नदी सागर से जैसे रूठ सी जाती है.. नदी अपनी उल्टी दिशा में बहने लगती है और सागर जैसे उसे मनाने के लिये काफी अन्दर तक दाखिल हो जाता है… लेकिन फिर वो कहाँ खो जाता है कि नदी वापस उससे मिलने उसके द्वार तक जाती है.. मिलती है, रूठती है, शिकायत करती है और सागर मुस्कुराकर नदी को आलिंगन में भर लेता है.. और फिर अगली पूर्णिमा की रात सागर आवारा आशिक की तरह नदी का पिछा करते हुये शहर में दाखिल होता है और फिर न जाने कहाँ खो जाता है…
यही तो होता आ रहा है सदियों से, प्रकृति ने वही नियम मानव समाज के लिये भी लागू किये हैं.. पहले कोई एक आकर्षित होता है और उसकी वही आकर्षण शक्ति दुसरे को भी प्रभावित कर उसमें भी वही उर्जा निर्मित कर देती है.. जिससे “मिलन” जैसे आकर्षण का निर्माण होता है.. और जब “विरह” का समय आता है तो वियोग, विषाद, विरोध जैसी उर्जा का भी निर्माण होता है.. कुछ वियोग से प्रभावित होते हैं तो कुछ विषाद और विरोध से.. यहाँ एक (लोलिता) वियोगी है तो एक (देवदास) विषादग्रस्त विरोधी है.. जिसमें एक गरीबी से त्रस्त है तो एक अपने परिजनों के व्यव्हार से…
देवदास एक कायर नायक मगर दमदार कथानक है…. जो प्रेम में असफल होने के बाद उसकी छवि- विरह, वियोग, विषाद और विरोध जैसे सौर्य-मंडल के इर्द-गिर्द घूमते हुये पिंड जैसे नजर आते हैं.. जो अपनी उपस्थिति को कायम करने के लिये शराब का सहारा लेता है… होश में रहकर तो उसने सभी किताबी बातें की हैं.. जैसे पारो का रात को आकर अपने प्रेम का उससे इजहार करना और फिर समाज का हवाला देकर प्रेम से देवदास का मुकर जाना.. और वहीँ नशे में चंद्रमुखी को औरत और वैश्या में अंतर समझाना… ये बताता है कि देवदास के पास बुद्धि थी..
लेकिन ठहरे हुये जल में कंकर मारेंगे तो लहरें तो उठेंगी ही.. देवदास के परेशान मगर शांत मन में वही कंकर तो मारा था, चुन्नी बाबु ने… सालों गुजर गए थे, वो शांत सरोवर अब जल की जगह शराब से लबालब झील बन चुका था.. कोई पूछ लेता- भाई शराब क्यों पीते हो?
तो देवदास कभी कहता, “हम तो पीते हैं ताकि रात को नींद आ जाये”.. तो कभी कहता, “हम थोड़े न पीते हैं, वो तो देवदास पिता है.. हम तो देवा हैं देवा, पारो के देवा”..
तभी अचानक एक मधुर ध्वनी कान के डमरू पर धमकती है… केमोन आछे..?
आँख मूंदे हुये, घोर सोच में डूबे हुये, उत्तर में अपनी कर्कश भरी मर्दानगी आवाज में कोई कहता है… भालो आछी, तुमी…?
और फिर जवाब में, भालो…
कुछ देर की ख़ामोशी के बाद… वही कर्कश आवाज… माफ़ कीजियेगा मैंने आपको पहचाना नहीं..
वही मधुर ध्वनि.. जी, मैं पारो की सहेली..
अब वो कर्कश आवाज एक दम शांत हो गया था.. मुख की भंगिमाएं बदल गयीं थीं, होंठ मानो किसी ने सिल दिये थे.. आखें खुल गयीं थीं, जो हल्का लाल थीं.. सांसों को गहराई तक ले जाने का कोई योग-आसन शुरू हो गया था.. वो अब कुछ कह नहीं पा रहा था..
तभी ख़ामोशी को तोरते हुए, एक बार फिर वो मधुर श्वर— “आप देव-बाबू हैं न”..?
मुश्कुराते हुए, जी हूँ तो देव ही या कह लीजिये देवदास.. लेकिन इसने कभी कोई “बाबू” वाला काम नहीं किया है.. खैर आपका परिचय..?
जी मैं लोलिता..
देवदास सोचते हुए, लोलिता..लोलिता… क्या मैं आपको जनता हूँ..
लोलिता : जी नहीं..
देवदास : तो आप मुझे कैसे जानती हैं…
लोलिता : जी पारो ने बताया था…
देवदास : अरे हाँ, आपने कहा था.. पारो आपकी सहेली है.. फिर तो आपको सब पता ही होगा हमारे बारे में..
लोलिता बात को छेप गयी.. उसने “जी” शब्द को जीभ पर आने से पहले ही कहीं निगल लिया था.. लेकिन उसकी गिरती हुई पलकें और मायूस ख़ामोशी ने सब कुछ कह दिया था.. “हाँ मैं आपके बारे में सब कुछ जानती हूँ”..
देवदास : ख़ामोशी को तोड़ते हुये.. कभी आपको देखा नहीं… आप कहाँ रहती हैं..?
लोलिता :जी “ठाकुर मोहल्ला”..
देवदास : अरे “ठाकुर मोहल्ले” के तो हमारे मित्र भी हैं.. “शेखर बाबू”..
लोलिता :”शेखर” जो वकालत करते हैं..?
देवदास : जी हाँ….. कुछ सोचते हुए, क्या आप उनकी कोई रिश्तेदार हैं…?
लोलिता :कुछ सोचने के बाद, जी नहीं… उनके पड़ोस में रहती हूँ..
देवदास : चलिये बढ़िया है, किसी के बहाने हम एक-दुसरे को जानते तो हैं..
लोलिता :आप उन्हें कैसे जानते हैं..?
देवदास : जब प्यासे को प्यास लगती है तो वो पानी के पास जाता है.. दिन भर किसान थकने के बाद शाम को मनोरंजन की तलाश में ठकुरवाड़ी जाता है… अध्यात्मिक मंदिर-मंदिर भगवन को खोजता है.. रोगी दवा खाने ढूंढता है… और प्यार में गम खाये गम भुलाने मैंखाने जाता है..
लोलिता घोर आश्चर्य से पूछती है, वो पिने लगे हैं…?
देवदास : जी नहीं ! बस शराब का एक पैक लेकर मेरे साथ ही बैठते हैं.. और अंत में उसे भी मैं ही पी लेता हूँ ….
लोलिता : देवबाबु आप शराब नहीं पिया कीजिये…
देवदास : कौन कम्बख्त कहता है हम शराब पीते हैं..
लोलिता :हर शराबी यही कहता है..
देवदास : अरे हमें तो शराब पीती है.. जो हमें इतना पीती है कि एक दिन हमें ख़त्म करके ही छोरेगी… न किया तो कहना…
लोलिता :अशुभ मत कहिये..
देवदास : तो शुभ कह देते हैं.. मैं पागल, आवारा, आशिक हूँ.. जिसे हर किसी से प्यार है, बस लोग ही उससे भागते हैं..
लोलिता :आप तो बहुत पढ़े लिखे हैं.. आप कोई काम क्यों नहीं करते..?
देवदास : आप ठीक कहती हैं.. मैं काम तो कर सकता हूँ.. मगर किसके लिये करूँ..? पिताजी रहे नहीं, भाई बैमान हो गया, माँ को मुझसे कोई उम्मीद नहीं है, और प्यार करने वाली को कोई चुरा कर ले गया… बचा-खुचा जो धन दौलत है, मुझे उनसे कोई मोह नहीं है और अब शायद जिन्दगी भी बस मौत का इंतजार कर रही है..
लोलिता गमगीन आँखों में आंसू लिये मुंह फेर लेती है.. जैसे किसी ने पत्थर मारा हो.. सिसक कर रोना चाहती है मगर रो नहीं सकती..
देवदास :देखा मैं सबको दुखी कर देता हूँ.. आपको भी कर दिया.. मैं अच्छा इंसान नहीं हूँ… मेरे पास जो आता है वो दुखी हो जाता है..
आंसू पोंछते हुये लोलिता कहती है.. नहीं ऐसी कोई बात नहीं है..
फिर थोड़ी देर की शांति के बाद, अच्छा देव बाबु मैं चलती हूँ.. देर बहुत हो गयी है..
देवदास : देखिये मौसम बहुत ख़राब है, आपको बहुत दिक्कत होगी.. आप कुछ देर यहीं विश्राम कर लें… (और सच भी यही था आज बारिश ऐसे गिर रहा था मानो सावन की सारी झरी आज ही झर जायेगी..)
लोलिता कहती है, जी नहीं बस मैं चली जाउंगी..
लोलिता जैसे ही बाहर जाने का प्रयास करती है.. तो बादलों की गड़गड़ाहट में कोई कमी नहीं आई होती है.. वही मुसलाधार बारिश… लोलिता वापस गंगा किनारे उस कॉटेज में वापस लौट आती है..
उधर देवबाबू लोलिता को देखते ही आवाज देते हैं.. अरे भाई इनको ज़रा कोई गरमा-गर्म चाय पिलाइये… पता नहीं किस बात की जल्दी है..
लोलिता :जी जल्दी नहीं.. फिक्र हो रही है… फिर न जाने वो क्या सोचेंगे..
देवदास : कौन..?
लोलिता :मेरे आराध्य..
देवदास : आपकी शादी हो चुकी है.. (आश्चर्य/विश्मय और प्रश्न दोनों था इसमें…)
लोलिता : आँखों को नीचे और गहरी सांस लेते हुए… जी..
देवदास : और आपका सिंदूर..?
लोलिता :सही समय के इंतजार और उनके प्रेम से लिप्त अविश्वास के नीचे दबा हुआ है….
देवदास : लगता है मामला बहुत गंभीर है..
लोलिता : जी नहीं.. बस किसी के चरित्र को अमीरों ने अपना दास बनाना चाहा है.. कोई गुरु शिष्य की सारी सीमा लांघ कर प्रेम करता है तो कोई मदद के बदले प्रेम की अपेक्षा रखता है..
देवदास बात बदलते हुए व्यंग करता है… चलो अच्छा है, अकेले मैं ही नहीं पागल हूँ इस दुनिया में.. स्त्रियां भी होती हैं..
लोलिता के मुख पर हल्की सी मुस्कान आ जाती है.. और कहती है.. सही कहा आपने..
देवदास कहता है… ऐसे ही मुस्कुराया कीजिये, सुना है मुस्कुराने से सेहत अच्छी रहती है..
लोलिता :फिर आप क्यों नहीं मुस्कुराते हैं..?
देवदास :कौन कम्बख्त कहता है.. हम नहीं मुस्कुराते.. हम तो पिते ही हैं मुस्कुराने के लिये…
लेकिन कुछ देर की शांति के बाद देवदास कहता है.. मगर आप कभी मत पीजियेगा.. ये सेहत के लिये अच्छा नहीं होता है..
लोलिता सुनते ही रौशनी के विपरीत हलके अँधेरे की ओर पलट जाती है, और फिर एक बार आंसू की कुछ बूंदें गिरा देती है..
देवदास मौन को तोड़ते हुए कहता है.. आप भी रोइयेगा और आज ये बादल भी.. बाढ़ लाने की कोई योजना है क्या..?
लोलिता : नहीं, रोकर मन हल्का कर लेती हूँ.. आपकी तरह पीने की लिये हमारे पास पैसे नहीं हैं..
देवदास : क्षमा कर दीजिये, मुझे आपको दुखी करने की कोई मंशा नहीं थी…
लोलिता : गरीबों का उपहास हमेशा होता रहा है..
देवदास : देखिये आप बहुत गलत समझ रहीं हैं..
लोलिता : जी नहीं, आप मुझे गलत समझ रहे हैं…
देवदास : चलिये छोड़िये इस विषय को…
लोलिता : यही सही रहेगा..
देवदास : आपकी चाय…….
लोलिता : हां मुझे पता है, वो ठंडी हो चुकी है.. कृप्या करके कुछ देर के लिये मुझे अकेला छोड़ दें..
देवदास कुछ देर की शांति के बाद, पास में ही बैठे अंजान व्यक्ति के साथ मेज़ साजा करने आ जाता है… और कहता, और दादा केमोन आछे..?
और जवाब में वो अंजान व्यक्ति कहता है… “जी भालो आछे”…
देवदास : ओह! तो आप हिंदी वासी हैं..
अंजान व्यक्ति: आपको कैसे पता चला..?
देवदास : “जी भालो आछे” नहीं होता है.. “आमी भालो आछे” होता है..
अंजान व्यक्ति : माफ़ कीजियेगा…
देवदास : चलता है दादा… कम से कम आपने कोशिश तो की..
अंजान व्यक्ति: हँसते हुये.. जी शुक्रिया.. हाँ, सो तो है. थोड़ी सी कोशिश तो की है मैंने…
देवदास : यहाँ किसी काम के सिलसिले में..?
अंजान व्यक्ति : नहीं, बस इस तूफान में फंस गया हूँ…
देवदास : चलिये बढ़िया है, इस बहाने आपसे मुलाकात तो हुई..
अंजान व्यक्ति :होठों पे हल्की मुस्कान और हाथ में चाय का प्याला लिये… जी बिल्कुल..
थोड़ा ठहरने के बाद अंजान व्यक्ति, दादा एक बात पूंछूं..
देवदास : हाँ बिल्कुल…
अंजान व्यक्ति :आप दोनों के बीच में माज़रा क्या है, कोई गंभीर विषय…?
देवदास : अरे नहीं, वो मेरे मित्र की पड़ोसन हैं, बस यहीं पहचान हुई है…
अंजान व्यक्ति :माफ़ कीजियेगा.. मित्र की पड़ोसन या आपकी प्रेमिका की सहेली…
देवदास.. नाराजगी व्यक्त करते हुए.. आप हमारी बात सुन रहे थे…
अंजान व्यक्ति :इन बादलों की गड़गड़ाहट में, इस लकड़ी के चार दिवारी के कमरे में और इन कुछ मेज़-कुर्सियों के अलावा यहाँ कोई और है तो शायद हम तीन जीव ही हैं… और मैं आपकी बात सुन नहीं रहा था.. बस आप दोनों के कुछ अनकहे संवादों को समझने की कोशिश कर रहा हूँ…
देवदास कुछ कह नहीं पाता है.. अपने ही उधेर-बुन में गंभीरता से उस अंजान व्यक्ति को देखता तो कभी कुछ सोचने लगता..
अंजान व्यक्ति :दादा माफ़ कर दीजिये, मुझे ऐसे नहीं कहना चाहिए था…
देवदास अभी भी अवचेतना से बाहर नहीं आया था..
अंजान व्यक्ति वहां से जाने लगता है.. तभी लोलिता कहती है.. कहाँ जा रहे हैं…? बारिश अभी बंद नहीं हुई है..
अंजान व्यक्ति :नहीं बस चलता हूँ, देर हो रही है..
देवदास : क्यों, कोई इंतजार कर रहा है..?
अंजान व्यक्ति : जी ! जी नहीं..
देवदास : फिर बैठिये… सुनिए और सुनाइए किस्से.. अरे बनवारी (चिल्लाते हुये) अरे तीन गर्मा- गरम चाय देना..
बनवारी : (सड़क के उस पार से चिल्लाते हुए), जी लाया सरकार…
बनवारी दौर के सड़क के उस पार से इस पार चाय ले कर आ जाता है.. ई लीजिये सरकार.. चाय और …..
देवदास :और ये क्या है..?
बनवारी : ई सरकार.. लिट्टी है.. हमरे हिंयां इसको ठंडा में खाते हैं… देखियेगा, ई बार मेघ ठंडा लाईये के छोड़ेगा… बहुत देर से थे आप लोग यहाँ, तो सोचे कुछ खा लीजियेगा तो राहत मिलेगा…
ई कलमुही बारिश को भी आजे आना था..
अंजान व्यक्ति :क्यों, क्या हुआ..?
बनवारी : ऊ हमरी लुगाई आने वाली थी.. पता नहीं इस तूफान में कहाँ फंस गयी…
अंजान व्यक्ति : तो अब..?
बनवारी : तो अब का… ऐसे हाथ-पे-हाथ धरे थोरे न बैठे रहेंगे.. कुछ देर और इंतजार करते हैं… नहीं तो इस तूफान में भी तो जईबे न करेंगे… ऊ आखिर हमरी जिम्मेदारी है.. आप लोगों को कुच्छो जरुअत होगा तो मंगा लीजियेगा… दुकानवा पे छोटुवा रहेगा…
देवदास : गंभीरता से कहता है, जी….
बनवारी वहां से चला जाता है…. सभी अपनी-अपनी चाय की प्याली और एक-एक लिट्टी उठा के न जाने सोच के किस उपन्यास को पढने की कोशिश कर रहे थे.. बनवारी के इस वार्तालाप से इनका कोई सम्बन्ध नहीं था… हाँ, मगर उसके बहुत कम शब्दों में ये जरुर पता चल गया था कि “प्रेम सिर्फ प्राप्ति नहीं है अपितु उसका निर्वहन ही उसके सम्बन्ध की प्रकाष्ठा है”..
कभी-कभी एक अनपढ़ भी प्रेम को वासना या किसी चीज की उपलब्धी मात्र न समझ कर उसकी भावनाओं को समझने और सम्मान देने की कोशिश करने लगता है.. और यही कोशिश और सम्मान उसके प्रेम को सफल बनाता है..
बनवारी के जाने के बाद सभी अभी भी गंभीर थे.. बस जरा सी चेतना भी आई थी.. उसने मीठे चाय पे चटकारे-दार लिट्टी जो दे दिया था..
ख़ामोशी को तोड़ते हुये, एक बार फिर देवदास ही कुछ गुनगुनाने लगता है.. तभी अंजान व्यक्ति कहता है… दादा गीत जोर से गाइयेगा तो सावन के इस छम-छम संगीत में शायद मनोरंजन हमारा भी हो जाये…
देवदास: नहीं बस, जुबां पे कुछ शब्द आ गए थे..
अंजान व्यक्ति : तो हमें भी सुना दीजिये…
देवदास के मुह से हलकी सी मुस्कान निकल जाती है और कहता है…

पिया जीना नहीं जाने जिया थारे बगैर,
पता बता दे तू है आखिर कौनो शहर…
मन भावे न, मन भावे न..
मन भावे है तो जियरा गावे न…
अंजान व्यक्ति : वाह ! वाह ! क्या खुब कही…

लोलिता टोंट मारते हुए अंजान व्यक्ति को देखते हुये कहती है… जब कोई बहुत अजीज छुट जाता है, प्यार में दिल टूट जाता है न दादा, तो ख़ुशी में भी दर्द ही बाहर आता है…
देवदास तिर्छी निगाहों से अपनी ख़ामोशी समेटे हुए, मुट्ठी को कसते हुए, अपनी नजरें नीचे कर लेता है..
एक बार फिर लोलिता बोल उठती है, अब विरह गीत गाने से क्या फायदा जब पारो आपसे मिलने आती है तब तो उसे आप मर्यादा का पाठ पढ़ाते हैं..
देवदास : मैं मानता हूँ, मुझसे गलती हुई है..
लोलिता : आप इसे गलती कहते हैं..! जिसने आपकी प्रतीक्षा में अपना बचपन भुला दिया… हर एक रोज़ आपकी टोह के लिए घर में मार खाई.. और जवानी में जब वो समाज के सारे बंधनों को तोड़कर आपसे मिलने आती है, तब सज्जनता और मर्यादा-पुरुषोतम होने का ढोंग करते है…
देवदास : मैं मानता हूँ मैं अपराधी हूँ और मैं इसके लिये पश्चाताप भी कर रहा हूँ..
लोलिता :पश्चाताप ! पश्चाताप के नाम पर अब बैरागी बनने से क्या फायदा, जब मात्र स्मृतियों के सिवा कुछ बचा ही नहीं.. आप पुरुषों के पास ह्रदय है, प्रेम है, रस है, रूप है, गठीला शरीर है.. बस पुरुषार्थ के नाम पे जग-हंसाई से डरते हैं.. और जब प्रेम की परिभाषा समझ आती है… तब भटके आशिक की तरह, फिर किसी का सहारा ढूंढते फिरते हैं…
लोलिता मानो देवदास को ढाल बना कर शेखर को कहना चाहती हो.. लेकिन लोलिता ने जो कहा था, वो उसके अन्दर पल रहे क्रोध और असफल प्रेम का प्रतिउत्तर था…
किन्तु अब जो ख़ामोशी छाई थी, इसे भंग करने की हिम्मत शायद किसी में न थी…
अंजान व्यक्ति एक हाथ में लिट्टी और दुसरे हाथ में चाय लिये स्तब्ध था.. देवदास उस ख़ामोशी में भी चाय की चुस्कियां ले रहा था … और लोलिता चाय का आधा प्याला छोड़ कर, खिड़की की और बढ़ चुकी थी …. और न जाने कितनी देर वो हुगली में उठते और गिरते हुये उफानों को देख रही थी..
कुछ देर बाद देवदास लोलिता के थोड़ा पिछे खड़ा होकर उसी हुगली नदी को देखते हुये कहता है.. जिंदगी भी ऐसी ही उठती और गिरती लहरों की तरह है.. और हम उसपे तैरते हुये नावों की तरह… अब ये हमारे कर्मों के हिशाब से तय होता है कि जिन्दगी की परीक्षाओं में हम डूबेंगे या लहरों में बह कर अपने अंतिम लक्ष्य को पायेंगे..
लोलिता की ख़ामोशी में कोई अंतर नहीं आया था..
देवदास फिर एक बार कहता है.. “प्रेम में सफलता किसी चीज को हाशिल करने से प्रतिलक्षित नहीं होता है.. सामने वाले को वो प्रेम महसूस हो जाये वही सफल प्रेम है”… हां, मगर वो भावनात्मक जुड़ाव, उसका नाम सुनते ही ह्रदय का तेज धड़कना, शर्म को ताक पे रखना, हया को भूल जाना, मन का अनियंत्रित विचरण करना, उस संग जिन्दगी जीने का सपना देखना, उसके सिवा किसी और को अपना जीवन साथी न बनाने का इरादा, नैतिक असफलता और पतन का कारण जरुर बन जाता है… और सबसे बड़ा दुःख तो तब होता है जब हम सामने वाले से भी उम्मीद लगा बैठते हैं…
लोलिता ने इस दौरान हुगली की तरफ देखते हुये न जाने विचारों के कितने गोते खाये.. इसका ज्ञान तो शायद लोलीता को भी न था.. हां, मगर देवदास की बात सुनते वक़्त आंसुओं की एक हुगली लोलिता के गालों पर भी बह चुकी थी.. अचानक धीरे से सिस्कारियां भरते हुए जैसे ही लोलिता अपने आंचल को आंसू पोंछने के लिये उठाती है. देवदास कहता है… आप फिर रो रही हैं.. आप स्त्रियों को सिर्फ आंसू बहाना आता है…
लोलिता कुछ नहीं कहती है.. अंजान व्यक्ति इनकी बातों में ऐसा खोता है कि आँख मुंद कर के कहीं खो गया हो…
देवदास कुर्सी लाकर लोलिता को देता है… कृपया कर के आप बैठ जाइये.. आप रोइए मत.. मैं माफ़ी चाहता हूँ… मैं कहीं भी शुरू हो जाता हूँ.. आपको कोई ठेस पहुंची हो तो कृपया करके माफ़ कर दीजिये.. वर्ना आप शेखर बाबू से हमारी शिकायत कर देंगी और वो हमारी खबर ले लेंगे… आखिर वो आपके पडोसी हैं हमारे मित्र तो बाद में हैं..
फिर एक बार लोलिता के मुख से हंसी निकल पड़ती है.. और कहती है “आप बोलते बहुत हैं”..
देवदास : माफ़ कीजियेगा “आप सुनती बहुत है इसलिये (आपको लगता है) मैं बोलता बहुत हूँ.. पारो होती तो कुछ सुनती भी नहीं.. बस अपना सुनाते रहती.. आज ये हुआ, आज वो हुआ.. और न जाने दिन भर के कितने खिस्से..
लोलिता : प्रेम मात्र भावों से भरे संवाद हैं.. जिसकी पहचान या तो उसकी अनुउपस्थति में होती है या उसके खो जाने के डर में..
देवदास : माफ़ कीजियेगा, प्रेम संवादों से ज्यादा किसी के साथ रहने से उत्पन होता है.. और पहचान के लिये कोई राशन-कार्ड बनवाने की जरुरत नहीं है… बस अपने मन की बात उसे कहने की देर है… बस दो चीजों का डर हमेशा बना रहता है.. पहला दुनिया क्या कहेगी.. और दूसरा कहीं वो खो गया तो मैं क्या करुँगी या करूँगा..?
अंजान व्यक्ति बीच में आते हुए कहता है.. आप दोनों के वाद-विवाद से लगता है.. “खोने का डर” प्रेम में ज्यादा प्रबल है.. उसे कोई चुरा न ले, कहीं वो खो न जाये, वो कहीं बेवफा न बन जाये और न जाने क्या-क्या….
और आप दोनों की जैसी हालत है.. इसमें आपकी स्थिति विरह में फंस कर विषादग्रस्त चकोर की भांति है.. और विषाद का कारण और कुछ नहीं,

वही उम्मीद लगा बैठे हैं उनसे,
जो चकोर लगा बैठा है चाँद से…
मिलेगा ! मात्र यह एक भ्रम है…
बस इस भ्रम के भ्रमर में फंस कर,
चकोर एक प्रश्न नहीं करता करता है खुद से…
क्या सही है और क्या गलत है..

लोलिता : हमारी स्थिति अलग है..
सावन के दिन,
जब अमिया पर झूल गये वो..
क्या हुआ, जब विरह के दिन भूल गये वो..
वो तो आये थे अपना मन बहलाने..
क्या पता था,
खुशियों के दिन अपना दिल भूल गए वो..

अंजान व्यक्ति : क्या बात है.. आप भी अच्छी कविता कर लेती हैं…
लोलिता : पता नहीं, बस ज़रा सी कोशीश की है…
अंजान व्यक्ति : सही में, देव बाबु के गीत में भी कुछ ऐसा ही था..

पिया जीना नहीं जाने जिया थारे बगैर,
पता बता दे तू है आखिर कौनो शहर…

लोलिता : देव बाबु मुझे चलना चाहिये , काफी देर हो चुकी है.. अब शाम भी होने वाली है.. इस बारिश का पता नहीं और कितनों को डूबोयेगी.. वैसे भी दूर से पहले आदमी के शरीर का मुल्यांकन होता है, फिर करीब आने पर उसके व्यव्हार का और जाने के बाद उसके चरित्र का… और मन में अगर गलत-फहमी पल गयी तो सिर्फ चरित्र ही दाग-दार होता है..
देवदास तिर्छी नजरों से जमीन को देखते हुए, गंभीर मुद्रा में कहता है, चलिये मैं आपको छोड़ देता हूँ..
लोलिता : जी नहीं, मैं चली जाऊँगी.. आपको बताया न गलत-फहमी पल गयी तो सिर्फ चारित्र ही दाग-दार होता है… बस एक चिट्ठी लिखे देती हूँ “शेखर” के नाम, कभी मिलें तो कहियेगा “लोलिता” मिली थी…
लोलिता चिट्ठी देकर जा रही थी और हम दरवाजे से उसे भीगते हुये जाते देख रहे थे.. न जाने कितने अनकहे सवाल के अनकहे जवाब छोड़ गयी थी वो..
देवबाबू लोलिता की चिट्ठी को चाय के प्याले से दबाकर न जाने क्या सोच रहे थे… करीब एक घंटा रुकने के बाद देवबाबू उठते हैं और कहते हैं मैं चलता हूँ..
अंजान व्यक्ति : कहाँ..?
देवदास : वहीँ, जहाँ जाने से लोग कतराते हैं..
अंजान व्यक्ति अभी “चन्द्र” बोला ही था कि देवदास बात काटते हुये कहता है, शायद और शायद नहीं भी…
अंजान व्यक्ति सोच में डूबते हुये कहता है.. शायद तो समझ में आ गया, शायद नहीं का क्या मतलब है.. लोग कहाँ जाने से कतराते हैं.. अंजान व्यक्ति आंखें मुंद कर सोचते हुये बङबङाता है.. शायद पारो या कहीं और…
अचानक देवदास की तरफ अंजान व्यक्ति पलटता है.. वहां देवदास नहीं था, दरवाजा खुला हुआ था.. अंजान व्यक्ति दौड़कर दरवाजे पर भागता है… सड़क पर कोई नहीं था.. अंजान व्यक्ति बारिश में सड़क पर आ जाता है.. कहीं तो देवदास दिख जाये.. लेकिन नहीं…. यहाँ बनवारी की दुकान भी बंद थी… आखिर कहाँ गया देवदास, यही सोचते हुये अपने भीगे शरीर के साथ उसी कमरे में खिड़की की तरफ दोड़ता है.. और वहीं स्तब्ध हो जाता है.. एक छींक के बाद अचानक उसकी स्तब्ध मुद्रिका भंग हो जाती है और वो कुर्सी की तरफ बढ़ जाता है…
वहां मेज़ पर रखे प्याले के नीचे लोलिता की चिट्ठी अब भी प्याले से दबी पड़ी थी.. जैसे ही वो चिट्ठी उठाता है.. तो उसके ऊपर लिखा हुआ था … “देवदास कभी नहीं मरेगा – देवदास”.. अब जाके अंजान व्यक्ति को चैन पड़ा था.. लेकिन उसी चिट्ठी में लोलिता ने भी तो कुछ लिखा था, शेखर बाबू के लिए… परन्तु मैं उन्हें कहाँ ढूंढता.. गुस्ताखी माफ़ हो, किन्तु एक प्रेमिका के ह्रदय की बात चिट्ठी के इन परतों को खोलते हुये झांक लेता हूँ.. क्या पता, कुछ अनसुलझे सवालों के सुलझे सवाल मिल जायें..

प्रिय शेखर,
तुम अगर तन्हा नहीं छोड़ गए होते,
तो शायद हम भी यहाँ नहीं रो रहे होते…
आधी जिन्दगी तो बसर हो गयी
मात्र इन समझौतों के टकरार में..
कब टूटेगा यह व्रत विरह का,
लिखना प्रियतम,
एक सुखी हुई नदी है भादो के इंतजार में…

तुम्हारी लोलिता..

अंजान व्यक्ति नि:शब्द था.. इतने कम शब्द, इतनी गहराई, शेखर ही इस परिणीता के स्वामी हैं..

बस इतना ही था ये संवाद…

***

Written By: ज्योतिन्द्र नाथ चौधरी

Read more like this: by Author Jyotindra Nath Choudhary in category Hindi | Hindi Story | Love and Romance with tag bridge | Love

Story Categories

  • Book Review
  • Childhood and Kids
  • Editor's Choice
  • Editorial
  • Family
  • Featured Stories
  • Friends
  • Funny and Hilarious
  • Hindi
  • Inspirational
  • Kids' Bedtime
  • Love and Romance
  • Paranormal Experience
  • Poetry
  • School and College
  • Science Fiction
  • Social and Moral
  • Suspense and Thriller
  • Travel

Author’s Area

  • Where is dashboard?
  • Terms of Service
  • Privacy Policy
  • Contact Us

How To

  • Write short story
  • Change name
  • Change password
  • Add profile image

Story Contests

  • Love Letter Contest
  • Creative Writing
  • Story from Picture
  • Love Story Contest

Featured

  • Featured Stories
  • Editor’s Choice
  • Selected Stories
  • Kids’ Bedtime

Hindi

  • Hindi Story
  • Hindi Poetry
  • Hindi Article
  • Write in Hindi

Contact Us

admin AT yourstoryclub DOT com

Facebook | Twitter | Tumblr | Linkedin | Youtube