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Human thinking

Published by Nitesh verma in category Hindi | Hindi Article | Social and Moral with tag human | Society

This Hindi article is about Human thinking as it is most important for our society. Every human being have their own thinking which is different from others.

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Hindi Article – Human thinking

Photo credit: earl53 from morguefile.com

मानवी सोच बहोत बडी होती हैं, लेकिन सीमित होती हैं। मनुष्य जो सोचता हैं, समझता हैं, देखता हैं; उसे अपने शब्दों से परिभाषित करने का प्रयत्न करता हैं। उसके द्वारा सोची हुई विषय-वस्तु को एक नया रुप देता हैं, जो उसके सोच को प्रदर्शित करती है। मनुष्य अपने सोच को अपने शब्दों में पिरोता हैं, संजोता हैं या यों कहें उसे अपने सोचे एक क्षेत्र में बाँध देता हैं। मनुष्य अपनी बातों को एक नया स्वरूप देता हैं, बातें वो जो कही होती हैं या फिर कहीं सुनी होती हैं, हाँ निसंदेह समझाने का कार्य उसका लेख करता हैं, लेकिन प्रश्न यें है कि कहाँ तक सच हैं ये बात? क्या वो वहीं दिखाता है जो हम देखना चाहते है? क्या उसकी विषय-वस्तु अपने लेख का व्यक्तितव बनाकर पाठकों को भ्रमित करती हैं? क्या वास्तव में मनुष्य अपने लेखों से मानवी सोच को बाँध देता हैं? या कुछ ऐसा, उसके लिखे लेख के अनेक अर्थ होते हुएँ भी वो वहीं दिखाता हैं जो वो सोचता हैं या चाहता हैं? ऐसे अनेक प्रश्न जो पाठकों को किसी माया से कम प्रतीत नहीं होता। ऐसे विचार जो मनुष्य के गहन अध्ययन के फलस्वरूप उनमें समावेशित हो जाते हैं, और वो उन प्रश्नों के उत्तर जानने और समझनें के लिए व्याकुल हो उठतें है। उत्सुक इस कारण नहीं क्यूँकि उनकों अपने प्रश्नों का उत्तर किसी के सोच से नहीं समझना, उनकें बातों में अपनी सोच को नहीं धकेलना। उत्सुकता अधीरता का प्रमाण है और व्याकुलता रुकाव का। व्याकुल होकर मनुष्य केवल तनावित हो सकता है ना कि उस व्याकुलता, उत्सुकता और अधीरता से कोई पांडित्य को प्राप्त कर सकता है। मानव का गहन अध्ययन एवं उसका धैर्य, उसे उसके लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक सिद्ध होती हैं। इस वाक्य के स्पष्टीकरण या विस्तारीकरण को समझने के लिए आइयें हम एक उदाहरण लेते है..

राम एक छोटे से शहर है। वो स्वयं को एक दिन ज़िला अधिकारी बना देखने के लिए प्रयासरत है, वो दिन-रात गहन अध्ययन करता हैं। मित्रों एवं परिजनों का पूर्णं सहयोग हैं, लेकिन वो स्वयं धैर्यहीन हैं। ऐसी कठिन परिश्रम होने के बाद भी वो डरा-सहमा रहता हैं और कई बार उल्झनों में स्वयं को रखकर आते हुएं प्रश्नों के भी गलत उत्तर दिए हैं उसने। सोच उसकी यें होती थीं, या उल्झन कहो कैसे वो इतने छोटे से शहर से होकर इतनी बडी परीक्षा को सफल करेगा। कैसे वो अपने स्थान को बनाऐगा, स्वयं से किएं संकल्प को कैसे पूर्णं करेगा। किन्तु समय का चक्र इतने सोच को लेकर कहां चलता है कभी भला। समय के साथ परीक्षा शुरूआत हुई और निर्धारित समय पर आकर समाप्त हो गई। यथार्त हमने कहा समय, उसके अनुरूप परीक्षा-फल भी घोषित हुआ और प्रथम-प्रयास के फलस्वरूप राम असफल रहा। कोई दूसरा विकल्प ना होने के कारण उसने फिर से परीक्षा की तैयारी शुरू की अपने पहलें के किए हुएं गलतियों को इंगित एवं सुधारते हुए उसने उसने तैयारी समाप्त की। चूकिं तैयारी के लिए वो पिछ्ले वर्ष भी कार्यरत था बस थोडी सी सोच की कमीं के कारण वो अपनी निश्चित सफलता को ना पा सका। खैर पिछली वर्ष की तरह इस वर्ष भी समय के साथ परीक्षा शुरूआत हुई और निर्धारित समय पर आकर समाप्त हो गई। परिणाम इस बार राम के हक में हुआ और उसका निर्धारण एक ज़िला अधिकारी के रूप में हो गया।

कहने का अर्थ बस इतना हैं कि राम के साथ जैसी कम सोच वालें यहाँ अधिकतर इंसान हैं जो समाज़ी बहकाव, निम्न-स्तरीय धारणाओं में पडकर खुद को ना बल्कि अपनें समाज़ अपनें परिज़नों को भी शर्मिन्दगी का पात्र बनातें हैं। ऐसे में उनका भरपूर सहयोग कई स्वयं-चालित संस्थायें करती हैं। वो अनेक विकल्पों का सहारा लेकर बच्चों को अपनी तरफ आकर्षित करती हैं। बहकाव में बच्चें तो आ ही जाते हैं। पहले लम्बे-चौडे भाषण और आखिरकार वहीं पुराणी पदधती के अनुसार “बेटा नोटस की फोटो-कापी करा लो ना, मैंने ही लिखा हैं।” लेकिन संस्थान को इससे क्या मतलब बच्चें जब नोटस पढकर स्वयं समझ लेते तो इतने पैसे खर्च करके यहां क्यूं आते। बच्चें शर्मिन्दगी से या खुद को नीचा दिखने से बचाने के लिए उनके हां में हाँ मिला देते हैं और अपनी प्रयास में असफल हो जाते हैं। और दूसरी तरफ ऐसी संस्थानों में ना जाने वाले छात्र यें सोचते हैं “हमारे पास तो कुछ भी नहीं ना कोई परफेक्ट नोटस या कोई ज़ोरक्स कापी और वो इसी सोच में दिशाहीन हो जाते हैं और आखिर-कार चुनाव उन्हीं का हो पाता हैं जो अपने ढ्रढ-सोच के साथ सही-दिशा में तैयारी करते हैं। चुनाव निर्धारण बच्चों का काम नहीं और ना ही किसी दूसरी स्वचालित संस्था का, इसलिए जितना हो सके ऐसे प्रलोभनों से दूर रहें। सफलता की सीढी इंसान के चलने से हैं न की किसी के बनावटी स्वरूप से।यह उदाहरण मात्र एक सोच का उदाहरण हैं ना कि किसी किताब को लिखा स्वरूप। आप एक इंसान हो आप ऐसी बातों को समझ सकते हो एवं अनुप्रयोग भी कर सकते हो। इंसान अगर कोई काम एक बार अपने संकल्प के साथ करें तो वो सफलता को ज़रूर प्राप्त करेगा।

..गर करना हैं गिरफ्त किसी इंसान को..

..तो खुदा से उसकी सोच का पता पूछो..!

***

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