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Meri Dainik Bus Yatra

Published by Sandeep Bose in category Hindi | Hindi Article | Social and Moral

मेरी दैनिक बस यात्रा

AC bus white

Hindi Article – Meri Dainik Bus Yatra
Photo credit: Alvimann from morguefile.com

नमस्कार, मित्रों। जिस प्रकार सूरज अपनी रोशनी से धरा को आलोकित करती है, वैसे ही उम्मीद करता हूँ कि हर दिन भास्कर की रश्मि की भाँति आपका जीवन नव आलोक से प्रस्फुटित हो सके, आपके जीवन  में ऊर्जा की कमी न हो। आप अपना कार्य  प्रतिपल, प्रतिक्षणफूर्ति से करें।

वातानुकूलित बसें ही क्यों !?

दिनकर के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए मैं भी अपने हर दिन की शुरुआत नई ऊर्जा से करता हूँ। अपने इसी साधारण से दिन की हररोज़ की कहानी मैं आपसे साझा करना चाहता हूँ। घर से निकलते ही ऑफिस जाने के लिए मैं प्रतिदिन बस पकड़ता हूँ। दिल्ली जैसे महानगरों में बस पकड़ना भी कोई कुश्ती से कम बात नहीं है, काश! इसके लिए हमें रियो ओलंपिक की भाँति कोई स्वर्ण पदक मिल पाता। खैर, हम कल्पना की दुनिया से यथार्थ की दुनिया में आते हैं।  यहाँ मैं आपसे एक बात शेयर करना चाहूँगा कि मुझे उस बस में चढ़ना पसंद नहीं आता जिसमें भीड़ बहुत होती है। न जाने क्यों मुझे भीड़ – भाड़ वाले जगह बिल्कुल पसंद नहीं आते। न जाने क्यों मुझे  भीड़ – भाड़ वाले जगहों में अकेलापन महसूस होता है। दिल्ली के लोगों को पता होगा कि दिल्ली में दो तरह की बसें चलती है – एक सामान्य बसें और दूसरी वातानुकूलित बसें। भीड़ से बचने के लिए मैं वातानुकूलित बसों में ही चढ़ता हूँ। ऐसी बसों में चढ़ने का यह फायदा होता है कि एक तो गर्मी से निजात मिलती है, दूसरा बैठने को मिल जाता है, यदि बैठने को न भी मिले तो  कम से कम आराम से खड़े होने को तो मिल ही जाता है। कभी – कभी सोचता हूँ कि हम कितना आराममिज़ाज़ हो गए हैं। क्या हम आराम की खोज करते हुए कहीं यांत्रिक तो नहीं होते जा रहे हैं ? यह सोचकर ही मैं सहम उठता हूँ। चलो, छोड़िए, यह सब बेकार की बातें हैं। आज की भाग-दौड़ की ज़िंदगी में किसे इस बात की फिक्र रहती है। आजकल की इंसानियत की कसौटी तो रुतबे से नापी जाती है। हाँ, तो कहाँ था मैं ?  बस में। वैसे हमारी ज़िंदगी कहाँ हमारे बस मेें रहती है? फिर से बेकार की बातों में लग गया मैं। चलिए, अब वापस आते हैं हम बस की दुनिया में। जैसे ही मैं ऑफिस जाने के लिए बस की दुनिया में प्रवेश करता हूँ, तो वातानुकूलित बस होने के कारण एक ठंडक की एहसास होती है। बाहर की चिलचिलाती धूप से राहत मिलती है।  इस सिलसिले मैं आप लोगों से एक सवाल पूछना चाहूँगा । कंडक्टर को किराया चुकाने के बाद आप बस में क्या नया देखतो हो हररोज़ ?  आपका जवाब क्या होगा ?

कुछ मिनटों में कईयों के हिस्से

मैं बताऊँ? आप कई  ज़िंदगियों से रोज़ाना रूबरू होते हैं। बस में बच्चे, बूढ़े,जवान,स्त्री एकसाथ यात्रा करते हैं। दिल्ली,देश की राजधानी होने के कारण यहाँ देश के कोने – कोने से लोग विभिन्न कारणों से आते हैं और बस जाते हैं। दिल्ली को मिनी – इंडिया कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा। हाँ, तो कहाँ था मैं ? बस में, यही जवाब होगा न आपका । कंडक्टर को पैसे चुकाने के बाद मेरी नज़र मेरे आस-पास के लोगों से धक्का खाती है। कुछ खड़े हुए, कुछ सीट में बैठे हुए। कोई पेपर पढ़ता है, कोई फोन में किसी से बातें कर रहा है, तो कोई इस ठंडी – ठंडी यांत्रिक समीर में झपकी ले लेता है। इस छोटी सी यात्रा में मैं चंद मिनटों के लिए आस-पास के लोगों के जिंदगी का हिस्सा बन जाता हूँ। इस छोटी सी अवधि में, ध्यान से देखा जाए, तो लोगों के व्यक्तित्व की झाँकी मिल जाती है। आप सोचोगे, कैसे ? जो आदमी अख़बार पढ़ रहा होगा, यह इस बात की ओर रोशनी करती है कि उसे देश-दुनिया की तमाम ख़बरोंं के बारे में  रुचि है, जो फोन में हेडफोन लगाकर गाना सुन रहा है, यह इस बात का सूचक है कि उसे गाने सुनने का शौक है और जो सो रहा है, वह यह बात दर्शाती है कि वह रात को ठीक से सो नहीं पाया होगा ।

आप सोच रहे होगे  कि मुझे इतना समय कैसे मिल जाता है लोगों को देखने – समझने में ? अरे भई, मैं दिल्ली में हूँ। दिल्ली में जाम होना आम बात है। और इस जाम में दिल्ली की बसें गाँव की बैलगाड़ियों की तरह हो जाती है। चलिए, यह सब बेकार की बातें हैं। हाँ. तो कहाँ था मैं ? आप बोलोगे, बस में। वैसे हम चाहे तो हम हमारी ज़िंदगी को अपने बस में कर सकते हैं। फिर से वही बेकार की बातें। सचमुच, मैं भी ना, मैं भी कभी-कभी अपने बस के बाहर आ जाता हूँ।  चलिए, लौटते हैं हम फिर वही बस की दुनिया में। वैसे कभी – कभी मैं यह सोचता हूँ कि यह दुनिया हमारे बस में है या हम इस दुनिया मैं बस ऐवैं हीं हैं। फिर से वही फ़िजूल की बातें। यह मन भी कभी – कभी बस के बाहर चला जाता है।

गहन आलोकपात

बस मेें सफ़र करते हुए हम अगर गौर करें तो हमें किसी भी आदमी की चरित्रगत विशिष्टता का अनुमान कर सकते हैं। इसका अनुमान हम कैसें कर सकते हैं ? आप कोयल और कौए को बिना देखे कैसे पहचानोगे ? ज़ाहिर सी बात है उनके आवाज़ से, उनके कंठ ध्वनि से ही पहचानोगे। ठीक वैसे ही बस में जब भी दो आदमी के बीच झगड़ा होता है, किसी भी बात को लेकर कहा – सुनी होती है, उनकी चरित्र का बखान अपने आप हो जाता है। यदि कोई  ह्रष्ट-पुष्ट आदमी जबरन किसी वरिष्ठ आदमी के लिए संरक्षित सीट पर बैठता है और किसी बुजुर्ग के लाख अनुनय – विनय करने के बाद भी नहीं उठता है, तो उस आदमी की स्पष्ट धारणा हमारे सामने  होती है।

आँखों की किरकिरी

इसके साथ ही एक और छवि मेरे आँखों को हमेशा खटकती है। अधिकतर लोग बस में पैसे चुकाने के तुरंत बाद सीट पर बैठते ही या कहीं खड़े होते ही अपना पॉकेट टटोलते हैं  और अपने पॉकेट से मोबाइल फोन निकाल कर उसकी दुनिया में तबतक के लिए खो जाते हैं जब तक कि उनकी मंज़िल नहीं आ जाती। कभी – कभी तो लगता है कि इस मोबाइल ने हमें जड़ बना दिया है। लोग न जाने कैसे इस मोबाइल से चिपके रहते हैं। फेविकल भी शायद इनके सामने अपनी हार मान लेे। काश ! लोग इस तरह अपने माँ – बाप से, अपने रिश्तेदारोंं से, इंसानियत से चिपके रहते हैं। अक्सर हम गलत चीज़ों मेें उलझ जाते हैं और रास्ता भटक जाते हैं। चलो, अच्छा है कि बस अपना रास्ते में न उलझता  है और न अपना रास्ता भटकता है, वरना यात्री अपने मुकाम तक कभी नहीं पहुँच पाते। बस अगर बीच रास्ते में रुक जाती है तो लगता है कि जैसे हमारी ज़िंदगी बीच रास्ते में गटक गई। काश, हम भी बस हो पाते । हमारी कल्पना की बसों की तो  न कोई सीमा होती है और न कोई दिशा। हो भी क्यों, हमेें थोड़ी न कोई टोल टैक्स देना पड़ता है।

विशेषता

बस – यात्रा के दौरान एक बात मैंने विशेष रूप से देखी है, कि लोग थोड़ा सा भी कुछ ऊँच – नीच हो जाए, अपना आपा जल्दी खो बैठते हेैं। किसी का गलती से पैर के ऊपर पैर लग गया,तो कोई सही से खड़ा नहीं हो रहा है, वगैरह, वगैरह…. । कभी – कभी सोचता हूँ कि अगर ज़िंदगी भी अगर अपना आपा खो बैठे तो ?

ओफ्हो…. मै फिर से बेकार की बातों में आ गया।काश इस बस की तरह मैं होता । काश, इस बस की तरह हम सब होते।

अहा… मेरी मंज़िल आ गयी, उतरने का वक़्त हो आया है, बेकार की बातों में आप लोगों को उलझाने के लिए माफ़ी माँगता हूँ।

क्या करूँ, मेरा मन मेरे बस में नहीं रहता । अच्छा होता अगर विचारों की भी कोई बस होती।
–END–

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