जैसे कि कहा गया, मानव-आत्मा की क्षमता महान है। किसी भी समस्या का जिज्ञासा और आशा के साथ हम सामना कर सकते हैं। हम समस्याओं का समाधान आसानी से निकाल सकते हैं। हम भेदों का निपटारा कर सकते हैं। मगर जब यह क्षमता दुर्बल होती है, डर और अंधविश्वास की चपेट में कैद हो जाती है तब आशा का तो अंत हो जाता है।
एक गुरु के पास तीन शिष्य रहते थे। गुरु का नाम था सदानंद। गुरु के सारे काम शिष्यों को ही करना पड़ता था। फिर भी शिष्य चिंता नहीं करते थे। शिष्यों के नाम हैं योग, भोग और त्याग। योग जल्दी योगी बनना चाहता था। भोग अपनी विद्या से सुख भोग प्राप्त करना चाहता था। त्याग सब कुछ त्याग करके अपनी सेवाओं से स्वयं एक महान व्यक्ति बनना चाहता था।
सदानंद के आश्रम के सामने एक और गुरु था। उसका नाम था क्षुधानंद। उसे दूसरों को कष्टों में देखने की भूख थी। उसके पास कोई भी शिष्य सप्ताह भर भी नहीं रहता। इसका कारण था कि उसको हमेशा दूसरों को दुखी देखने की भूख थी और लोग इसे ज़ल्दी समझ लेते थे। इसी भूख की परेशानी से वह अपने शिष्यों को खो रहा था। वास्तव में वह चाहता था कि उसके भी कई शिष्य हों जो उसकी सेवा करते रहें। लेकिन एक भी शिष्य उसका नहीं बचा। इस लिए, कई सालों से सदानंद के पास रहने वाले तीनों शिष्यों को देखकर वह बहुत दुखी रहता था। किसी तरह उनको गुरु से अलग करके, उस गुरु को बिना शिष्य का दुख समझने देगा, यही उस अबोध गुरु की चाहत थी। इस कार्य को पूरा करने के लिए क्षुधानंद हमेशा कोई न कोई नया उपाय खोजता रहता था।
एक दिन नदी के किनारे बैठकर क्षुधानंद अपनी भूख से बेहद पीडित था। किसी को दुखी बनाने तक उसकी भूख नहीं मिटती। तभी योग नदी में पानी भरने के लिए घड़ा लेकर आया। क्षुधानंद को देखकर योग चिंतित था। वह जानता था कि क्षुधानंद उसका मन विकल कर देगा। उससे बचने का अब अपने पास कोई उपाय भी नहीं था।
“तुम्हारा नाम क्या है बालक?” क्षुधानंद ने पूछा।
“मेरा नाम योग है महाशय। मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?” क्षुधानंद से योग ने पूछा।
“तुम बहुत अच्छे बालक हो योग। उस गुरु के पास रहकर तुम्हारा समय व्यर्थ नहीं करना। योग्य गुरु के पास ही शिष्य योग्य बन सकते हैं।” क्षुधानंद ने कहा।
“आप कैसे कह सकते हैं कि मेरे गुरु योग्य नहीं हैं?” योग ने संदेह प्रकट किया।
“योग, तुम्हारा गुरुवर योग्य है तो अपने काम स्वयं करता है। इस तरह वह तुम लोगों से अपने काम नहीं करवाता। उनके कपड़े कौन धोते हैं? तुम लोग ही यह काम करते हो। उन्हें खाना तुम लोग ही बनाते हो। उनकी हर सेवा तुम लोग करते हो। इससे तुमको इतने सोलों से क्या मिला?”
क्षुधानंद के इस सवाल से योग का मन विकल हो उठा।
“कुछ नहीं मिला। मुझे उन्हों ने अभी तक योगी नहीं बनाया।” योग ने उदास स्वर में कहा।
“मेरी बात मानकर तुम वाराणसी जाओ। वहाँ अनेक योग्य गुरु हैं। किसी भी गुरु के हाथों में तुम को योग विद्या मिल सकती है। तुम कुछ महीनों में महान योगी बन जाओगे।” क्षुधानंद ने निर्देश दिया।
इन बातों का प्रभाव योग पर इतना गहरा पड़ा कि उसी दिन वह वाराणसी के लिए निकल पड़ा। एक शिष्य को खोने का कोई असर सदानंद पर दिखाई नहीं पड़ा। क्षुधानंद की क्षुधा शांत नहीं हुई।
एक और दिन क्षुधानंद को एकांत में भोग मिला। भोग पर उसने अपना प्रताप दिखाया।
“बालक, तुम्हारा क्या नाम है?” क्षुधानंद ने पूछा।
“महाशय, मैं भोग हूँ। मैं सदानंद जी का प्रिय शिष्य हूँ।” भोग ने विनीत स्वर में कहा।
“भोग, तुम नहीं जानते हो, तुम्हारे गुरु के पास तुम अनेक कष्ट भोग रहे हो। सुख भोग नहीं।”
“महाशय, आप क्या कह रहे हैं?” भोग ने आश्चर्य से पूछा।
“भोग, तुम्हारा गुरुवर अपने काम स्वयं नहीं करते। तुम लोग ही उनके कपड़े धोते हैं। है ना? फिर तुम लोग ही उनके सारे काम करते हैं। उन्हें खाना तुम बनाते हो। उनके बिस्तर तुम बनाते हो। उनकी हर सेवा तुम लोग ही करते हैं। क्या यही तुमको सुख जैसा लगता है?” क्षुधानंद ने पूछा।
भोग गहरी सोच में पड़ गया। “महाशय, सुख कहाँ मिलता है?” भोग ने पूछा।
“तुम सेठ माखनलाल के पास नौकर बनो। वहाँ अच्छा वेतन मिलेगा। सुख का अर्थ वहीं तुम को मिलेगा।” क्षुधानंद ने उसे सलाह दे ही दी।
अब भोग गुरु से अलग हो गया। वह किसी सेठ की तलाश में निकल पड़ा।
अब सदानंद के साथ उसका एक ही शिष्य बचा रहा। त्याग के लिए अपना गुरुवर महान हैं। इस लिए गुरुवर के सारे काम वह स्वयं करता था। गुरु सेवा में ही उसे आनंद मिलता था।
एक दिन क्षुधानंमद ने त्याग को भी तनहाई में पकड़कर, उसका मन विकल करने की योजना बनाई।
“तुम अबोध बालक हो। उस गुरु को महान मानकर अपना जीवन व्यर्थ कर रहे हो। उनकी सेवा में तुम को क्या मिल रहा है?” क्षुधानंद ने पूछा।
“महाशय, आप महान ज्ञानी हैं। अपके मुँह से ऐसी बातें निकलना अपको शोभा नहीं देता।” त्याग ने कहा।
“बालक, तुम स्वयं अपने गुरु के काम करते हो। तुम्हारा गुरु अकर्मण्य है। वह कुछ नहीं करता। फिर भी तुम उसे महान समझते हो। वह कैसे महान हैं?” क्षुधानंद ने पूछा।
“महाशय, वे मेरे गुरु हैं। उनकी सेवा करना मेरा कर्तव्य है।” त्याग ने कहा।
“बालक, कभी उसने तुम को कोई उपदेश दिया?” क्षुधानंद ने पूछा।
“नहीं तो!” त्याग ने कहा।
“फिर वह कैसे महान है ?” क्षुधानंद ने पूछा।
त्याग सोच रहा था कि उस क्षुद्र आत्मा को सच कैसे समझाना चाहिये। तभी क्षुधानंद और कहने लगा।
“तुम्हारा गुरु अकर्मण्य है। आलसी है। मेहनत का मूल्य उसे मालूम नहीं है। वह अपने कार्य तुम से करवाकर तुम्हारा संपूर्ण श्रम व्यर्थ कर रहा है। तुम उसे छोड़ दो। इस तरह उसे मेहनत का मूल्य समझने दो। ” क्षुधानंद ने कहा।
इस पर त्याग विकल नहीं हुआ। वह सिर्फ मंदहास करने लगा।
“मैं तो अपने भगवान की पूजा कर रहा हूँ। इसमें आपको क्या बाधा है? मुझे अपने भगवान की सेवा करने दीजिये ना !” त्याग ने कहा।
“भगवान की पूजा? तुम्हारे गुरु की भगवान से कैसे तुलना होगी? तुम्हारा गुरु एकदम कामचोर और आलसी है। वह कोई भी काम नहीं करता।” क्षुधानंद ने कहा।
“आप रोज भगवान की पूजा करते हैं ना? ” त्याग ने पूछा।
“हाँ, रोज मैं भगवान की पूजा करके ही कुछ खाता या पीता हूँ। इसमें क्या संदेह है? ” क्षुधानंद ने कहा।
“अच्छा, सुनिये महाशय। जिस तरह आपका भगवान कोई काम नहीं करता, वैसे ही मेरा भगवान कोई काम नहीं करता। या इसे यूँ कह सकते हैं कि जिस तरह आप कोई काम नहीं करने वाले भगवान की पूजा करते हैं, उसी प्रकार मैं भी अपने कोई काम नहीं करने वाले मेरे गुरु की सेवा कर रहा हूँ। मेरे लिए मेरा गुरु ही मेरा भगवान है।” त्याग ने कहा।
इस पर क्षुधानंद निरुत्तर हो गया। उसके मुंह से बात नहीं निकली। तब त्याग कहने लगा।
“आप मुझ पर नाराज नहीं हैं ना महाशय ? मेरी बातें सुनिये और उन पर विचार कीजिये। अगर हमारे शरीर से कोई भाग काम नहीं करे तो क्या हम उसे शरीर से अलग करेंगे? हम उसकी सेवा करेंगे और उसे काम करने तक हम उसका साथ देंगे। इधर मेरा गुरु कोई काम न करें, मगर वे महान ज्ञानी हैं। मैं उनसे उपदेश की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। वक्त आने पर वे मुँह खोलेंगे। आप अपने भगवान के पास जैसे प्रतीक्षा कर रहे हैं, उसी तरह मैं भी अपने चलते-फिरते भगवान की सेवा करते हुए उनकी आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। अन्यों की सेवा में ही इस शरीर के उपयोग का असली अर्थ मिल सकता है। अपनी ही सेवा में अपना शरीर का उपयोग हर कोई करता है, इस में मुझे विश्वास नहीं है।” त्याग ने कहा।
“क्या तुम्हें अपने भविष्य की चिंता नहीं? ” क्षुधानंद ने पूछा
“भविष्य के बारे में चिंता करने से कोई प्रयोजन नहीं होता। भविष्य के बारे में जानने की जिज्ञासा लोगो में होती है। भविष्य के बारे में आशाभाव बनाये रखना मानव के हित में है। बेकार है भविष्य के बारे में डरना। यह एक अंध विश्वास है कि लोग अपने भविष्य जानने के लिए ज्योतिषियों के पीछे कतार लगाकर खड़े होते हैं। क्या हम अपना भविष्य जानकर उसे टाल सकते हैं ? भविष्य नहीं जानने से अच्छा ही होता है, कालचक्र अपने आप चलता रहता है। वह किसी की पकड़ में नहीं आता। भविष्य का डर आपको क्या दुर्बल नहीं लगता? ”
क्षुधानंद प्रशांत चित्त से त्याग की बातें सुनकर, उन्हें सच्चे दिल से समझने का कोशिश कर रहा था।
“महाशय, हम जिन वस्तुओं या विषयों को देखते हैं, उन में कोई अंतर नहीं होता। लेकिन देखने वालों के मनोभावों में ही असली अंतर होता है। इसी को हम दृष्टि भेद कहते हैं। अगर हम इस भेद का निर्मूलन करें तो हमारा मन प्रशांत रहता है और हम कुछ न कुछ अच्छा कर सकते हैं। अच्छा वही होता है जो दूसरों को लाभ पहुँचा सके। लोक कल्याण ही इस जन्म का उद्देश्य है और उसी से हमारा जन्म सार्थक होता है। “ त्याग ने संपूर्ण विश्वास से कहा।
त्याग की बातों से दृष्टि भेद का मतलब क्षुधानंद की समझ में आया। अब क्षुधानंद ने परम भक्ति का अर्थ जानकर, निस्वार्थ सेवा से लोक कल्याण पर अपनी दृष्टि को केंद्रित किया।
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