This is a Hindi story of a policeman trying to prevail upon everyone just on the merit of wearing the khakee dress. He got a befitting treatment by the bank manager when he went to get some work done in the bank.
मेरा ऑफिस मुख्य शहर से ढाई घंटे दूर है। दूरी को घंटों में नापने की कोई नई इकाई का सुझाव देने का मेरा इरादा बिलकुल नहीँ है। यह दूरी बस से तय करनी मेरी मजबूरी है। बस की स्पीड, उसके जगह – जगह रुकते हुए, किसी भी यात्री को बिना निराश किये हुए , सीटिंग और स्टैंडिंग क्षमता का पूरी तरह उपयोग करते हुए , अपने गंतब्य तक पहुंचते – पहुंचते इतना समय लग ही जाता है। उसी को देखते हुए हुए मैंने दूरी को समय के साथ जोड़कर समय की इकाई में उसे ब्यक्त किया है। वैसे दूरी की इकाई में अगर कहा जाय तो करीब ६५-७० किलोमीटर होगी।इतनी दूरी बस को अधिकतम एक से डेढ़ घंटे में तो तय कर ही लेनी चाहिए।
बस जब बस – स्टैंड से खुली तो वहां से जितने भी यात्री चढ़े सबों को सीट मिल चुकी थी। सभी यात्री अपनी सीटों पर बैठकर थोड़ा सुस्ता रहे थे। इतने में कंघी और नेल – कटर बेचने वाले सरदारजी जिनकी उम्र ५०-५५ के पार कर ही गयी होगी, बस पर चढ़े । लेकिन मेरा जबसे गोपालकेरा स्थानांतरण हुआ है यानि पिछले करीब डेढ़ – दो सालों से तबसे मैं इस बस में सरदार जी को बस खुलने के ठीक उतने ही समय पहले चढ़ते हुए देखा है जितने समय पहले, पहले दिन की गोपालकेरा की यात्रा में देखा था। बस खुलने में भले ही विलम्ब हो जाय परन्तु सरदार जी की टाइमिंग बिलकुल परफेक्ट रहती थी। यद्यपि कि बाकी के चल – विक्रेता भी बस खुलने के ठीक कुछ देर पहले ही चढ़ते थे। जैसे कि आरती और चालीसा की किताब बेचने वाले, एक ही बार पढ़के सामान्य – ज्ञान के पंडित बना देने वाली किताब बेचने वाले और उन्हीं किताबों के बीच में गावं – देहात के नवयुवकों को लुभाने वाली मस्तराम की सेक्सी स्टोरीज और न्यूड तश्वीरों तथा रति – क्रियाओं की विभिन्न अवस्थाओं की तश्वीरों वाली किताबें बेचने वाले भी बस खुलने के ठीक पहले ही चढ़ते थे। यह उस्समय की बात है जब मोबाइल क्रांति इतनी स्मार्ट और क्षमतापूर्ण नहीं हुयी थी कि सारे सेक्स साइट और न्यूड तश्वीरें एक टच (स्पर्श ) मात्र से मोबाइल स्क्रीन पर आ जाएँ। बस खुलने के ठीक पहले चढ़ने और बिक्री करने के लिए प्रयास के कई फायदे थे। एक: जब बस खुलने वाली होती थी तो लगभग सारे यात्री अपने सीटों पर बैठे होते थे। ऐसे समय में ग्राहकों की सर्वाधिक संख्या के बीच अपने उत्पाद को प्रचारित करने और बिक्री के लिए उपलब्ध कराने का प्रयास रहता था। दूसरे: गाड़ी खुलने में कम समय होने के कारण ग्राहकों को पूरी तरह से उत्पाद को परखने का मौका कम रहता था। इसमें कुछ त्रुटिपूर्ण या दोषयुक्त उत्पाद भी उसी दाम में बिक जाया करते थे जिस दाम में अच्छे उत्पाद बिकते थे। यह रोज का ही घटनाक्रम था जिसे मैं पिछले डेढ़ सालों से देखता आ रहा हूँ।
बस गोपालकेरा के लिए चली थी। यह बस वहां से आगे भी जाती थी परन्तु मेरी आगे के गंतब्य के बारे में जानने की कोई दिलचस्पी नहीं थी। बस नियत समय पर स्टैंड से तो खुल गयी थी। क्योंकि दूसरी प्राइवेट बसों के खुलने का भी समय हो रहा था। ऐसी स्थिति में प्राइवेट बसों को अपना टाइम सीदुल कायम रखना उनकी जरूरत भी थी और मजबूरी भी। इसीलिये प्राइवेट बसों को समय पर बस स्टैंड छोड़ देना पड़ता था। यह प्राइवेट बसों के टाइम पर चलने की एक अनिवार्यता या उसे उनकी विवशता भी कह सकते हैं , जाने – अनजाने अवश्य पूरी हो जाती थी। सही समय पर भी बस स्टैंड से प्रस्थान करने वाली बसें आगे चलकर आउटर सिग्नल पर अवश्य रुक जाया करती थी। यह आउटर सिग्नल ट्रैन की तरह सिग्नल के लाइट सहित पोस्ट या खम्भे पर के सूचक जैसा नहीं था। बस एक अनौपचारिक ठहराव था जिसे लोगों ने आउटर सिग्नल का नाम दे दिया था। यहीं पर हड़बड़ाते हुए एक पुलिशवर्दीधारी नामक मानवीय आकृति बस पर चढ़ी और उसी क्रम में त्वरित प्रतिक्रिया की बिना प्रतीक्षा किये मेरे बगल वाली सीट पर विराजमान हो गए। बैठने के बाद उन्होंने पूछा था ,”यह सीट किसी के लिए तो आपने नहीं रक्खी है न। ”
मैंने कहा था,”आप बैठिए। इन बसों में वैसे भी सीट सुरक्षित करने – कराने के नियम की कोई प्रतिबद्धता तो है नहीं।”
“मेरे पूछने का मतलब था कि आपने किसी अपने के लिए सीट तो नहीं रक्खी है। बाकी तो मैं बस कंडक्टर से निपट ही लूंगा।” बड़े आत्मविश्वास के साथ उन्होंने कहा।
“आप भी गोपालकेरा ही जा रहे है क्या?”
उनके पूछने पर मैंने “हाँ” में सर हिला दिया। उनके ब्यवहार और हाव् – भाव से ऐसा लग रहा था कि वे अपनी वर्दी का अहसास पूरे बस के यात्रियों को दिलाना चाहते थे। और उन बस यात्रियों में मैं भी एक था। उसमें वे कितना सफल हुए यह तो एक अलग सर्वे का विषय हो सकता था। मैं उनसे कम – से – कम शब्दों में बातें कर रहा था। लेकिन वे बातों के द्वारा कुछ ज्यादा हावी होने या कहें कि ज्यादा हावी हुआ समझने की स्थिति बनाने की कोशिश लगातार कर रहे थे।
उन्होंने ने खुद ही बोलना शुरू किया, “आजकल हमारे समाज में लड़कियों की शादी कितनी मुश्किल हो गयी है। बिन पढ़ी – लिखी लड़की से आजकल कोई शादी नहीं करना चाहता। शायद हमलोगों को भी अगर फिर से शादी करने का विकल्प मिले तो हमलोग भी खूब पढ़ी लिखी लड़की ही चाहेंगे। ” उन्होंने हँसते हुए और अपनी समझ से अपने कथ्य को हास्य का ऐसा पुट देकर और भी प्रभावशाली बनाने की दृष्टी से ही ऐसा कहा। परन्तु उनके इस भौंडे हास्य ने शायद ही कोई समयोचित प्रभाव पैदा किया हो।
फिर कुछ झेंपते हुए ही अपनी वार्ता जारी रक्खी,” पहले लड़कियों की पढाई में खर्च कीजिये। फिर उनकी शादी में खर्च कीजिये। आप शादी के बारे में बात करने के लिए किसी वर – पक्ष के यहाँ जाइये। ‘वे लोग कहेंगे , अच्छा आपकी लड़की यहाँ तक पढ़ी है। तब आपको चिंता करने की जरुरत ही नहीं है। उनके प्रत्यक्ष या परोक्ष दहेज़ मांगने का तरीका देखिये। कहेंगे कि फलां बाबू आये थे। उन्होंने अपनी लड़की की शादी में इतना खर्च करने का बजट रखा है। आपका भी तो कोई बजट होगा?’ अरे हमारी लड़की नहीं हुई कोई वस्तु हो गयी।”
कभी – कभी रामबली बाबू जैसे लोगों के सर पर जब ऐसी जिम्मेवारी आती है, तब शुभाषित सुनने को मिल जाया करता है, जैसे शूपणखा ने भी नाक – कान कट जाने के बाद रावण के दरबार में कहा था
“राजनीति बिनु धन बिनु धर्मा, प्रभुहि समर्पि बिनु सत्कर्मा।
विद्या बिनु विवेक उपजाएँ, श्रमफल पढ़े किएँ अरु पाएँ।
संग ते जती कुमंत्र ते राजा, मान ते ज्ञान पान ते लाजा।
प्रीती प्रणय बिनु मद ते गुनी, नासही वेगि नीति अस सुनी।
(नीति के बिना राज्य और धर्म के बिना धन प्राप्त करने से, भगवान को समर्पण किये बिना उत्तम कर्म करने से और विवेक उत्पन्न किये बिना विद्या पढने से परिणाम में श्रम ही हाथ लगता है। विषयों के संग से सन्यासी, बुरी सलाह से राजा, मान से ज्ञान, मदिरा पान से लज्जा, नम्रता के बिना प्रीति और मद (अहंकार) से गुणवान शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं , इस प्रकार की नीति सुनी है।)
“क्या नाम बताया आपने अपना?” मैंने उनकी लम्बी होती जा रही वार्ता को बीच में ही काटते हुए पूछा था।
“रामबली सिंह नाम है मेरा।”
“रामबली बाबू आप समारोह पूर्वक शादी करना चाहते हैं या बिना समारोह के?”
मेरे प्रश्न के उत्तर में उन्होंने भी जिज्ञासा जाहिर करते हुए पूछा था, “इससे आपका क्या मतलब?”
“मतलब साफ़ है, समारोह पूर्वक शादी करेंगे तो खर्च आएगा , वधु और वर पक्ष दोनों को। इसलिए मैं तो कहूँगा कि बिना समारोह के ही अपने दो – चार रिश्तेदारों के बीच ही शादी की जाय तो ज्यादा अच्छा हो। इसतरह खर्चीली शादियों को कम करने में समाज के समक्ष एक मिशाल प्रस्तुत कर सकते हैं।”
मेरा इशारा वे नहीं समझ पा रहे थे या समझते हुए भी नहीं समझने का उपक्रम कर रहे थे। फिर वे अपनी ही बात को आगे बढ़ाते हुए कहने लगे ,”अगर किसी का लड़का पढ़ जाय और नौकरी पर लग जाय तो गार्जियन का दिमाग और भी सातवें आसमान पर पहुँच जाता है।”
“वह कैसे?” मैंने उन्हें कुरेदते हुए प्रश्न किया।
उनके अंदर का रोष और कड़वाहट उभरकर सामने आ रहा था,”मैं अपने ही एक कटु अनुभव के बारे में बताता हूँ। मैं अपनी ही लड़की की शादी का प्रस्ताव लेकर भद्रोही गावं , वही भोरे – भद्रोही गावं गया था। वहां के एक बाबू साहब हैं , अखिलेश सिंह , उन्ही के यहाँ। काफी स्वागत – सत्कार हुआ। लड़का सरकारी बैंक में क्लेर्क होगया है। अब देखिये, उनका दिमाग तो सचमुच आसमान पर पहुँच गया है। ”
वे बैंक – क्लर्क की सीधे बुराई करने पर उतारू हो रहे थे,”अरे, बैंकमें क्लर्क ही है न, कोई जज, कलेक्टर, एस पी, डीएस पी तो है नहीं। लेकिन उनके परिवार का दिमाग तो देखिये। आप ही बताइये बैंक के क्लर्क का क्या काम है? पब्लिक के पैसों की जमा – निकासी। क्या कोई रुतबा है, बैंक के क्लर्क का? क्या कोई इज्जत है, बैंक के क्लर्क की? बैंक से बाहर निकलिए तो कौड़ी बराबर भी नहीं। बैंक के अंदर भी थोड़ी देर हुई नहीं कि पब्लिक चढ़ जाती है। क्या वह कुछ कर सकता है ? नौकर से बदतर ब्यवहार किया जाता है, उनसे। बैंक में मैनेजर डांटता है, काउंटर पर पब्लिक डांटती है। बैंक से हताश – निराश घर पहुंचते हैं तो वहां बीबी डांटती है। ऐसी नौकरी करने वाले लडके के गार्जियन का ठसक तो देखिये।”
मैंने थोड़ी और हवा देते हुए पूछा,” आपका रिश्ता तय हुआ या नहीं?”
“नहीं साहब, सब कुछ लगभग ठीक हो गया था। फिर उस लडके के बाबा ने लडके के बाप को बुलाकर कान में कुछ कहा। उसके बाद ही सबकुछ बदल गया। उसके बाप ने आकर सीधे इंकार करते हुए कहा था कि आपके यहाँ रिश्ता नहीं हो सकता। मैंने पूछा भी , क्यों अभी तक तो सब ठीक – ठाक बात हो रही थी, अचानक क्या हो गया?”
‘उन्होंने कहा, बस नहीं हो सकता तो नहीं हो सकता। आप तशरीफ़ ले जाइये। ‘
मैं तो हतप्रभ हो गया, उनके इस ब्यवहार से। मैं बिलकुल आहत हो गया था। मैंने भी काफी खरी – खोटी सुनाई उन्हें। लेकिन यह तो मेरे गुस्से का इजहार था, रिश्ता कायम करने वाला ब्यवहार तो नहीं था न।
तब मैंने उन्हें टोका था। हालाँकि उन्हें कुछ अजीब सा जरूर लगा होगा, मेरे इसतरह टोकने से,” क्या आप वर्दी में उनके यहाँ गए थे?”
“हाँ मैं वर्दी में था।”
“क्या आपकी इनके यहाँ ड्यटी लगाई गई थी?”
“नहीं भाई, मैंने बताया न ,उनके यहाँ मैं शादी की बात करने गया था। मेरे साथ एक – दो सिपाही मित्र भी थे। और थाना इंचार्ज से कहकर मैंने गाड़ी भी ले ली थी। ये सारी सुविधाये ऐसे कार्यों के लिए कन्विंस करने पर हमें मिल जाया करती है। ”
“और ऐसे मौके पर थोड़ा रौब भी पड़ जाने से काम बन जाता है। ” मैंने परोक्ष रूप में उनके अंदर छुपी भावना को हल्का – सा खरोच देकर उजागर तो कर दिया था। लेकिन इसका अहसास होना शायद उनकी ग्रहणशीलता से परे था। इसीलिये मैंने थोड़ा वातावरण में हास्य घोलने की दृष्टि से कहा था ,”अच्छा ही हुआ न , आपको इससे अच्छा रिश्ता मिल जायेगा। ”
तब तक गोपालकेरा आ चूका था। बस रुकते ही मैं अपने बैंक के ऑफिस के तरफ तेजी से बढ़ गया था। ऑफिस पहुंचकर मैं ऑफिस के काम में मशगूल हो गया। मुझे याद भी नहीं रहा कि बस में मैंने किनके साथ सफर किया था।
करीब ग्यारह बजे के आसपास मैंने देखा कि एक काउंटर पर हंगामा जैसा दृश्य उपस्थित हो गया है। मैं काउंटर पर पहुंचकर डीलिंग क्लर्क से पूछा,” क्या हुआ?”
“देखिये न सर, ये सिपाही जी। …”
“सिपाही जी मत बोलिए, हेड कांस्टेबल बोलिए। कुछ ही महीने पहले हम यहाँ के थाना इंचार्ज के साथ थे। …अभी मेरा ट्रांसफर हो गया है… तो आपलोग हंगामा का इल्जाम हमपर लगा रहे हैं …।“
“अरे भाई, तो फिर लाइन से आइये न, लाइन क्यों तोड़ रहे हैं?” लाइन में खड़े एक ब्यक्ति ने कहा था। मुझे मामला समझने में देर नहीं लगी।
मैंने उन्हें कहा , “आइये, आइये दरोगा जी , आप मेरे साथ मेरे चैम्बर में आइये।” मैं उन्हें लेकर अपने चैम्बर में ले आया। हालाँकि वे दरोगा नहीं थे , लेकिन मैंने ब्यँग्यपूर्वक ही उन्हें दरोगा जी कहा था। उन्हें बैठने केलिए इशारा करके, पानी और चाय लाने के लिए बेल दबाकर आदेश देते हुए मैं अपने काम में लग गया। मैं काम करते हुए उनकी ब्यग्रता और उनके अन्य क्रियाकलाप को भी एक नजर से भांप लिया करता था। थोड़ी देर बीतने पर जब मैं उनके काम को छोड़कर बाकी काम निपटने में मशगूल हो गया तो उनसे रहा नहीं गया।
उन्होंने मुझे झिझकते हुए, संकोचित भाव से ही टोका था,” सर, मेरा काम भी देख लीजिये न जरा। ”
“अच्छा, अच्छा आप यहीं पर बैठे हैं। मुझे बिलकुल ख्याल नहीं रहा। इतना काम रहता हैं कि सामने कौन बैठा है इसकी भी सुध नहीं रहती। आप देख रहे हैं न। ” मैं, बैंक में भी काफी काम रहता है, इस बात का अहसास दिलाने की कोशिश कर रहा था।
“हाँ सर, बैंक में तो अफसर सहित सबों को बहुत काम रहता है।”
इसतरह मैं उन्हें करीब दो घंटे बैठाये रहा। वे कभी इधर उचकते, कभी उधर उचकते। उन्हें कभी पानी का ग्लास दिया जाता, कभी चाय दी जाती रही। उनकी हालत वैसे ही हो रही थी जैसी थाने के हाजत में किसी अपराध के लिए बंद किये गए किसी ऐसे मुजरिम की होती है, जिसे कोई छुड़ानेवाले भी नहीं आ रहा हो।
इसतरह जब तीन घंटे बीत गए, तब उनकी तरफ ध्यान करके मैंने उन्हें कहा,”देखें आपका क्या काम है?” उन्होंने अपने अकाउंट का पासबुक दिखाते हुए कहा था,”मैं पहले यहीं पोस्टेड था। इसी अकाउंट में मैं पैसे जमा करता था। कुछ पैसे इस अकाउंट में हैं। मैं इसे बंद करके पैसे लेना चाहता हूँ।”
“आप अकाउंट क्लोज करके पैसे लेना चाहते हैं, यह तो आज नहीं हो सकेगा। आपका पिछला ट्रांज़ैक्शन चेक करना होगा। अगर ५०,००० रुपये से अधिक की निकासी एक साथ हुयी होगी तो उसके लिए आपको प्रमाण सहित एक स्टेटमेंट देना होगा कि आपने क्यों निकला? ये सारी औपचारिकताएं पूरी करनी होगी। साथ ही आपका पैन कार्ड का ओरिजिनल डॉक्यूमेंट भी चाहिए। इसलिए आज तो यह काम नहीं हो सकेगा। बिलकुल नहीं हो सकेगा। ” मैं उनके चेहरे के हाव् – भाव को पढने की कोशिश कर रहा था।
उनके चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। अब क्या होगा? अभी – अभी बस में मैं बैंक वाले को जीभर गलियां दे रहा था. उनकी बुराई कर रहा था। उन्हें नीचे और गिरा हुआ दिखने की कोशिश कर रहा था अब उन्हें अपनी सारी करतूतों और बड़बोलेपन के लिए पछतावा हो रहा था।
ऐसे दम्भी और अहंकारी पुरुष जब अपनी ही करतूतों के द्वारा बुने गए जाल में फंस जाते हैं , तो उनकी हालत जाल में फंसे हुए उस भेड़िये की तरह होती है जो जाल से निकलने के लिए छटपटाता रहता है लेकिन उसे कोई मदद करने वाला पास नहीं होता है। अब उनके पास मुझसे मदद मांगने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।
करीब चार बजे जब मेरा चैम्बर खाली हो गया , कोई भी वहां नहीं रहा , मेरे और उनके बीच , वे अचानक मेरे पैरों पर गिर पड़े और गिड़गिड़ाने लगे ,”मैनेजर साहब आप ही मेरी मदद कर सकते हैं। मैंने लड़की की शादी के लिए लड़कों वाला से वादा किया है। अगर ये पैसे नहीं मिले तो मेरी लड़की की शादी टूट जाएगी। ”
उनकी आँखों में आंसू देखकर लगा कि उनकी चिंता जायज है। मैंने उन्हें सांत्वना देते हुए उठाते हुए कहा ,” उठिए , उठिए अरे ये क्या कर रहे हैं। आपको यह शोभा नहेीं देता। आप वर्दी में होकर ऐसी हरकत कर रहे हैं।”
मैंने उनका अकाउंट क्लोज करनेवाला वाला आवेदन लिया। चेक बुक जमा करने को कहा। अकाउंट क्लोज करके उनके बैलेंस अमाउंट का चेक बनवाकर उसपर साइन किया। उन्हें चेक थमाते हुए कहा ,” वर्दी का इस्तेमाल जब ड्यूटी पर हों तभी कीजिये। अनवश्यक प्रभाव पैदा करने के लिए इसका इस्तेमाल आपके बनते कार्य को आपकी लड़की की शादी ठीक करते समय बिगड़ चूका था। आज भी आपका काम बिगड़ने ही वाला था , लेकिन आपके कारुण्य – भाव ने मुझे द्रवित कर दिया। ”
उन्होंने चेक लिया और धीरे – धीरे कदमों से कुछ सोचनीय मुद्रा में चैम्बर से बाहर निकल गए।
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Date: 12-10-2014, Jamshedpur.
— ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र, 3A, सुन्दर गार्डन, संजय पथ, डिमना रोग, मानगो, जमशेदपुर।
मेतल्लुर्गी*(धातुकी) में इंजीनियरिंग , पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन मार्केटिंग मैनेजमेंट । टाटा स्टील में 39 साल तक कार्यरत । पत्र पत्रिकाओं में टेक्निकल और साहित्यिक रचनाओं का प्रकाशन । सम्प्रति जनवरी से ‘रूबरू दुनिया ‘ भोपाल से प्रकाशित पत्रिका से जुड़े है । जनवरी 2014 से सेवानिवृति के बाद साहित्यिक लेखन कार्य में निरंतर संलग्न ।