अलमारी से मैंने अपना पसंदीदा सूट निकाला.. आज मेरे ऑफिस में प्रेजेंटेशन था. सूट में काफी सिलवटें थी, इसलिए आधे घंटे तक इस्तरी करके एक -एक सिलवट को अलग किया. और जब वो सलीके का दिखने लगा, तो इस मेहनत के लिए मैंने अपनी पीठ थपथपा दी..क्योंकि किसी और की नज़र में ये काम, काम नहीं होगा…पर मेरी लिए ये हर रोज़ एक नई जंग लड़ने जैसा था.. इस्तरी किय हुए कपडे पहनना, मुझे जैसी स्त्री की कमजोरी भी थी, और सनक भी. अगर कपडे में एक भी सिलवट दिख जाए, तो मेरा पारा बढ़ने लगता. घंटो मैं उस सिलवट को हटाने में जुट जाती… आज वैसे भी client के सामने प्रेजेंटेशन देना था. ऐसे मौकों पर आईने के सामने आधे से ज्यादा वक़्त गुज़र जाता है. तो इन सारी जद्दोजहद के साथ, अपने आप को OK सर्टिफाइड करके मैं मुस्कुराते हए घर से निकली.
स्टेशन और लोकल ट्रेन की भीड़ ने चेहरे के भावों को बदल दिया.
“८.३० बजे इतनी भीड़….इन लोगों को घर में और कोई काम-धंधा नहीं है क्या….सुबह-सुबह मुंह धोये बिना ट्रेन पे चढ़ गए…” मेरा गुस्सा भीड़ पे कम और अपने आप को भीड़ के बीच दब जाने की कल्पना से ज्यादा विचलित हो गया…
“१० बजे से पहले मुझे पुहुँच है, अरे प्रेजेंटेशन है मेरा…तो मेरा इतने बजे निकलना तो जायज़ है…”- मैं बडबडाईं.
सलवार सूट में सिलवटों का विचार मुझे स्टेशन से बाहर ले गया…टैक्सी वाले को आवाज़ दी….
“churchgate चलिए भैया.”-
टैक्सी वाले ने मीटर डाउन किया और टैक्सी चल पड़ी.. मैंने टैक्सी के मिरर में खुद की शकल देखी, और फिर बिना बात के मुस्कुरा दी…मानो किसी ने मेरी प्रशंसा कर दी हो…
सफ़र उम्मीद से ज्यादा लम्बा था. गोरेगांव से churchgate…जैसे-जैसे मीटर के नंबर तेज़ी से बढ़ रहे थी, उसी तरह मेरी हार्ट बीट भी…रास्ते में काफी ट्रैफिक था, जो दिल की धड़कन को और बड़ा देता….ऊपर से तेज़ गर्मी…जब टैक्सी मेरे ऑफिस से १ किलो मीटर पीछे थी…अचानक गाडी जाम में फँस गई…१०-१५ मिनट हो गए, लेकिन ट्रैफिक आगे बढ़ने का नाम ही नहीं ले रहा… घडी पर 9.45 हो चुका था…थक हार के मैं टैक्सी से उतरी, और वहां से पैदल ही ऑफिस जाने का निर्णय लिया.. टैक्सी वाले को देने के लिए पैसे निकाले तो पता लगा, जितना टैक्सी में खर्च हुआ है, उतने में नया सूट आ जाता….
मैं ऑफिस की ओर भागी…गर्मी तेज़ थी, पसीना से पूरा शरीर गीला हो रहा था…१० बजने से ५ मिनट पहले ऑफिस पहुंची…वहां वाशरूम में आईने के सामने खड़ी हुई… तो देखती क्या हूँ… बाल बेतरतीब बिखरे पड़े हैं..
“क्या ज़रुरत थी टैक्सी से इतनी दूर आने की” – कई बार खुद को कोसा…
सूट पे नज़र डाली….सूट पर सिलवटों का अम्बार लगा था…५०० रूपये सिलवटों से बचने के लिए टैक्सी की बलि चढ़ चुके थे….मैंने मुंह धोया….हाथ से सिलवटें किसी तरह ठीक की, कंघी की ….और लम्बी सांस खींच के प्रेजेंटेशन की तैयारी में जुट गई..
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