एन्टीक्राईस्ट (Antichrist): Satan, which is called antichrist in Christian mythology, entices man’s greed for committing sin. Today’s man is greedy and thus vulnerable to sin.
“कुरूक्षेत्र रणभूमि माहीं, धर्म-अधर्म के निर्णय ताहीं ।
कौरव-पांडव दोनो भाई, सम्मुख सेना आन सजाई ।।
यह दृष्य है धर्मस्थान कुरूक्षेत्र का । एक ओर अर्जुन, जिसके रथ का संचालन स्वयं भगवान श्री कृष्ण कर रहे हैं, और जिसकी शिखा पर बजरंगबली का ध्वज फहरा रहा है, दृष्टिगोचर होता है ।
’हाथ जोड़ विनय है करता, हे केशव, हे दुख के हरता ।
देखा चाहूं मैं बृजनाथ, मुझे है लड़ना जिनके साथ ।।’
भगवान उवाच :- ’हे अर्जुन, ले तेरी इच्छा शीघ्र ही पूरी होने जा रही है । वह देख सामने से कौन आ रहा है ! वह है, पाप-स्वरूप अधर्म का पक्षपाती कर्ण । अपनी दक्षता के गर्व में चूर, रथ को तेरे ही समक्ष ला रहा है । अब उपदेश का समय नहीं । सावधान हो जा । यह कोई साधारण योद्धा नहीं, महारथी कर्ण है । मैं फिर कहूंगा कि यह कर्ण है । इसको आंकने में किसी प्रकार की कोताही न कर बैठना ।’
एकाएक कर्ण का बाण चल निकलता है और अर्जुन के रथ को टंकारता हुआ मुड़ जाता है । जिससे रथ का रुख़ ही पलट जाता है । भगवान प्रशंसात्मक स्वर में कह उठते हैं, ’वाह कर्ण वाह !’
अबकि अर्जुन के बाण की चोट खाकर कर्ण का रथ कई हाथ पीछे हट जाता है । परन्तु श्री कृष्ण अनदेखी कर जाते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो । अर्जुन असमंजस में पड़ जाता है कि भगवान की यह क्या लीला है ! कर्ण की अपेक्षा तो मेरा प्रहार बहुत भारी था । ख़ैर युद्ध चलता रहता है ।”
रेलगाड़ी का यह पहला अथवा दूसरा स्टेशन था । मैं बच्चों सहित उसी गाड़ी में यात्रा कर रहा था जहां यह कथा चल रही थी । बैठने लायक उपयुक्त स्थान पाकर मैं सन्तुष्ट था । अभी-अभी यात्रा की हफड़ा-दफड़ी से कुछ शान्ति मिली थी । मेरा बड़ा बेटा माँ के समीप बैठा गोद में लेटे हुए अपने छोटे भाई के साथ खेल रहा था । समाचारपत्र, जो प्राय: पिछले दिन से ही मेरे पास था, मैं बहुत अरुचि से पढ़ रहा था । अचानक डिब्बे के दूसरे छोर से कथा का यह प्रसंग मेरे कानों में पड़ा । वातावरण अनुकूल था । मन शान्त था । इसलिये सोचा कि मैं भी कहीं समीप जाकर कथा का आनन्द ले लूं ।
हम इन दिनों गर्मियों की छुट्टियाँ दार्जिलिंग में बिताने का प्रोग्राम लेकर निकले थे । रेलवे की नौकरी में यह तो विशेषकर लाभ है ही कि सैर-सपाटे के लिये दूर-नज़दीक के फ़्री पास मिल जाते हैं । चाहे यात्रा के लिये सफ़र ख़र्च हो या न हो । गाड़ी में ही एक यात्री से बातचीत करते हुए हमें जानकारी हुई कि माता सीता का जन्मस्थान ’सीतामढ़ी’ पास ही कहीं पड़ता है और जो अगले स्टेशन से पास ही था । जिज्ञासावश, तथा भ्रमण का और आनन्द लेने के लिये हम अगले स्टेशन ’समस्तीपुर’ उतर गये । सीतामढ़ी की गाड़ी चूंकि हमारे वहां पहुंचने से पूर्व जा चुकी थी, हम स्टेशन से ही, किसी के बताने पर, जयनगर निकल गये जिसकी गाड़ी वहीं तैयार खड़ी थी । जयनगर, नेपाल में भारत के साथ लगता हुआ स्टेशन है । इच्छा तो बहुत है कि आप को यात्रा का पूरा वृतान्त सुनाऊँ, परन्तु इस से लेख बहुत लम्बा हो जायेगा । इसलिये संक्षेप में ही बताये देता हूं कि नेपाल रेल पर यात्रा करना भी अपने में एक विलक्षण अनुभव है । धीमी गति से चलती हुई एक खिलौने की भांति खड़खड़ाती यह गाड़ी, जिसमें कन्डक्टर स्वयं आपके पास आकर टिकट दे जाता है, और वही स्टेशनों पर उतर कर टिकटें बटोर लेता है और वापिस आकर गार्ड की ड्यूटी भी निभाता है । तब तक गाड़ी वहीं स्टेशन पर खड़ी रहती है । आपकी जानकारी के लिये एक अच्छा विषय होगा कि पैंतालीस किलोमीटर का यह सफ़र आठ-नौ घंटे में कहीं जाकर पूरा होता है । जयनगर स्टेशन पर ही साधारण सी कार्यवाही से नेपाली मुद्रा प्राप्त हो जाती है । हम नेपाल रेल द्वारा जयनगर आये थे । राम मन्दिर, सीता मन्दिर तथा धनुआं होते हुए बस द्वारा सीतामढ़ी पहुँचे थे जहां से मैं बाल-बच्चों सहित वापिस इस रेल द्वारा समस्तीपुर जा रहा था । मस्तिष्क में अभी तक धर्म-परायणता विद्यमान थी । इस कारण भी कथा में कुछ विशेष आनन्द आ रहा था । पत्नी को संकेत से सूचित करते हुए, मैं अपने स्थान से उठा और कथा सुनने के लिये डिब्बे के दूसरे छोर तक पहुँच गया । एक महात्माजी अब ऊपर लिखे दोहों की व्याख्या कर रहे थे ।
“अन्तर्यामी मगवान ने अर्जुन के मन की बात जान ली कि उसे अपनी वीरता का घमंड है । प्रभु की यह अनुकम्पा है कि वे अपने भक्तों के मन में पाप का बीज पनपने नहीं देते । इस कारण जानबूझकर हाथ में ली हुई चाबुक रथ से नीचे गिरा दी । अर्जुन को सचेत करते हुए चाबुक उठाने के लिये कूद कर नीचे उतर गये । इसी बीच कर्ण का बाण चल निकला और रथ को छूकर ही एक ओर निकल गया जिसके वेगमात्र से अर्जुन का रथ चरमरा उठा और कई हाथ पीछे जा पड़ा । अर्जुन घबरा उठा । भगवान ने झट से रथ को थाम लिया और आक्रमण की दिशा से हटाकर उसे एक सुरक्षित स्थान पर ले गये तथा हंस कर बोले, ‘देखा अर्जुन, कर्ण का पराक्रम ! मैने तुम्हें पहले ही सचेत कर दिया था । मेरे अतिरिक्त तुम्हारे रथ की शिखा पर बजरंगबली का ध्वज ही नहीं, वे स्वयं विराजमान हैं । और यदि तुम मुझे पहचान लो तो यह कहना अनुचित नहीं होगा कि मैं तीन लोक का भार लेकर तुम्हारे रथ पर बैठा हूं । ऐसे में कर्ण का बाण रथ को पीछे तो नहीं ढकेल पाता, परन्तु डगमगा अवश्य देता है । इसीलिये तेरा अपने गाण्डीव पर गर्व करना व्यर्थ ही है ।'”
अब महात्माजी ने अपनी तरफ़ से नुक़्ता जोड़ते हुए कहा, “आप सज्जन समझ ही गये होंगे कि पाप कितना प्रबल होता है । किसी भी व्यक्ति के लिये, चाहे वह कितना भी बलवान हो, धर्मपरायण हो, सदाचारी हो, नियमी हो अथवा ज्ञानी हो, भगवान की कृपा के बिना पाप पर पार नहीं पा सकता। यह कठिन ही नहीं, असम्भव भी है । ऐसी ही सनातन धारणा है ।”
एक व्यक्ति, जिसे सम्भवत: यह धार्मिक वार्ता रुचिकर नहीं थी, टोकते हुए बोला, “परन्तु आजकल पाप पर विजय पाना ही कौन चाहता है ! सभी तो उससे समझौता किये बैठे हैं । केवल तिलक लगाने से, अथवा कथा बांचने से कोई धार्मिक नहीं हो जाता ।” उसका इस प्रकार कथा में विघ्न डालना किसी को अच्छा नहीं लगा । वह व्यक्ति ईसाई धर्म का अनुयायी जान पड़ता था । कुछ समय की चुप्पी से साहस जुटाकर बात को बढ़ाते हुए कहने लगा, “पाप, अथवा शैतान, जिसको हम क्रिश्चियन माइथोलौजी में एन्टीक्राईस्ट कहते हैं, मनुष्य को हर प्रकार का प्रलोभन देकर पाप में प्रेरित करता रहता है । और आज का मनुष्य और कुछ हो न हो, लोभी अवश्य है ।”
बात काफ़ी वज़नदार थी । माननी ही पड़ी । महात्माजी – लगता था – निरुत्तर हो गये थे अथवा बहस में नहीं पड़ना चाहते थे । कुछ सकुचाते हुए बोले, “यह व्यक्तिगत धारणा है । शास्त्र तो यही कहते हैं कि पाप से जूझे बिना तथा मद, लोभ, मोह और क्रोध को छोड़े बिना मनुष्य का कल्याण नहीं हो सकता । वह सदा दुखी ही रहेगा ।”
वह व्यक्ति बाज़ी पलटते देख तुरन्त बोल उठा, “होगा । परन्तु देखने में यही आया है कि हर व्यक्ति ईश्वर का नहीं, एन्टीक्राईस्ट का ही अनुयायी है और उसके दिये गये प्रलोभनों का शिकार । यीशू ने आश्वासन दिया है कि -’लोगो, मैंने तुम्हारे लिये अपना ख़ून दिया है, तुम केवल मुझमें ईमान लाओ और जन्नत के हकदार बनो ।’ परन्तु इस आश्वासन के बावजूद फ़ादर पर ईमान लाने वाले बहुत कम हैं । वे फ़ादर से नहीं, पैसों से ज़्यादा प्यार करते हैं । यहां तक कि ख़ुद यीशू के निकटतम साथी ने ही उन्हें बीस टके में दुश्मनों के हाथ सौंप दिया था ।”
महात्माजी तो चुप रह गये, परन्तु दुर्भाग्यवश, मुझसे न रहा गया । बात मेरी पकड़ में आ गई थी । झट से बोल उठा, “फ़ादर को फ़ादर मान लेने मात्र से भी तो प्रेम उत्पन्न नहीं होता ! मनुष्य की प्रकृति है कि वह माता-पिता की अपेक्षा अपनी सन्तान को अधिक प्रेम करता है । हिन्दू धर्म की यही विशेषता है कि वे भगवान के बालस्वरूप के उपासक हैं । वे भक्ति की उस पराकाष्ठा को – जो ऋषि-मुनियों के कठिन तपस्या करने पर भी दुर्लभ है – भगवान की बाल लीलाओं में रुचि लेने पर सहज ही प्राप्त कर लेते हैं । तथा संसार को लीलाजगत मान कर गोपी-ग्वालों के समान खेल ही खेल में उस परम पिता परमात्मा के समीप हो जाते हैं ।”
मेरा तर्क उपस्थित सज्जनों के मन को छू सा गया । श्रद्धा पूर्वक प्रशंसा करते हुए वे मुझे आगे आने को आमंत्रित करने लगे और महात्माजी के सम्मुख मेरे लिये भी स्थान बना दिया । मैं उनके अनुरोध पर सकुचाते हुए, महात्माजी के चरण-स्पर्श कर, उक्त स्थान पर बैठ गया । महात्मा जी ने भी मुझे कोई व्यक्ति-विशेष जानकर संकोचपूर्वक पैर खींच लिये और कहा,”क्या करते हैं महाराज ! इसकी आवश्यकता नहीं । मैं तो एक साधारण गृहस्थ हूं । जन्म से ब्राह्मण अवश्य हूं, परन्तु पंडित नहीं । बस यूं ही कुछ कथा बांच लेता हूं ।”
यश प्राप्ति का मेरे लिये अब उचित अवसर था । हाथ जोड़कर कहने लगा,”पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम के, पढ़े सो पंडित होय । आपकी कथा से जो प्रेम उत्पन्न हुआ, मैं उसी से तो खिंचा चला आया हूं । इसलिये आप के समान और कौन पंडित होगा ! मेरे लिये तो आप सर्वथा पूज्यनीय हैं ।”
महात्माजी कुछ और सकुचाकर बोले, “यह सब आपकी महानता है । नहीं तो आज कौन किसी को इतना आदर देता है ! समाज की व्यवस्था ही बदल गई है ।”
एक और सज्जन, जो अब तक मौन बैठे थे, बोल उठे, “यह तो आपने ठीक कहा । आज न धर्म है, न शर्म । जिसे देखो, लूट-खसोट में लगा हुआ है । न राम याद है न रहीम । हर समय पैसे का नशा सवार रहता है । एक समय था जब सभी धर्म की मर्यादा में बंधे हुए थे । ब्राह्मणों से तिलक लगवाकर, आशीर्वाद प्राप्त किया जाता था । शिखा, चोटी तथा तिलक सम्मान पाते थे । हाथ में बंधा मौली सूत्र आचार-विचार में अनैतिकता के विरुद्ध अवरोधक बन जाता था । तथा सूचक था कि यह व्यक्ति मायावी प्रलोभनों से परे है । मगर आज ये सब बातें बीते युग की हो गई हैं । और तो और, अपने ही बच्चे अपने धर्म का उपहास करते हैं ।”
पास ही बैठा एक और व्यक्ति बोल उठा, “आजकल सम्मान के विशेष मापदण्ड हैं । सूट-टाई पहनकर लोग यह दर्शाने का प्रयत्न करते हैं कि वे आधुनिक विचारधारा के हैं । उनको कभी भी यह विचार नहीं आता कि इस पाश्चात्य सभ्यता के कारण ही हम अपने जीवन-मूल्यों को भूल चुके हैं ।”
लग रहा था कि उस व्यक्ति के – जो वेशभूषा से कोई पादरी लग रहा था – कथा में विघ्न डालने पर सभी रुष्ट थे । इसीलिये उस व्यक्ति ने उनपर सीधा व्यंग कस दिया था । मुझे उसके शब्दों के तीखेपन का बोध तो था, मगर चूंकि सभी उस पादरी महाशय से रुष्ट थे, इसलिये मैं चुप रहा ।
परन्तु लगा कि वह व्यक्ति उस क्षेत्र में ईसाईयत का प्रचार करने के लिये ही नियुक्त था । खीझ कर बोला, “जो प्रभु यीशू पर ईमान नहीं लाते, अथवा उनके प्रचार में बाधा डालते हैं, वे नर्क के पात्र होंगे । ऐसा यीशू का आदेश है ।”
“इसका अर्थ तो यह हुआ कि…” मैंने उत्तर देते हुए कहा, “…क्राइस्ट से पूर्व तो सभी नर्क में गये होंगे ! और क्रिश्चियन वर्ल्ड के बाहर सभी नर्क के भागी बनेंगे !” जल्द ही मैंने – इस आशंका से कि कहीं वार्ता साम्प्रदायिक रंग न ले ले – अपने वक्तव्य को सम्हालते हुये बड़ी नम्रता से कहा, “ऐसा तो नहीं होना चाहिये । प्रभु यीशू से पूर्व भी तो अवतार हुए होंगे ! और हमारी धारणा है कि आगे भी होते रहेंगे । क्योंकि भगवान कृष्ण ने कहा है कि, ’जब जब धर्म की ग्लानि होती है, और अनैतिकता उग्र रूप धारण कर लेती है, मैं भक्तों की रक्षा हेतु, और दुष्टों के संहार के लिये अवतार लेता हूं ।’ यह ईसा-पूर्व भी होता रहा है और आगे भी होता रहेगा । जैसे एक पिता अपने बच्चों को साम, दाम, दण्ड, भेद, किसी भी युक्ति से सुधारने का प्रयास करता है, उसी प्रकार वह परम पिता परमात्मा समय-समय पर सृष्टि के सुचारू संचालन के लिये अवतार लेते हैं और दुष्टों का नाश करते हैं । यह सनातन धर्म की धारणा है ।”
वार्ता में खिंचाव आ गया था । इसलिये कटुता को कम करने के लिये महात्माजी हंस कर बोले, “आप तो शास्त्रों के अच्छे खासे ज्ञाता जान पड़ते हैं । क्या करते हैं अपनी जीविका के लिये?”
मैं कुछ उत्तर देता, इसके पूर्व ही वे महाशय, जो अब खीझे बैठे थे, झट से बोल उठे, “करते क्या होंगे, इसी प्रकार बिना सिर पैर की हांक कर जन-साधारण को मूर्ख बनाते होंगे !”
मुझे इन अपमानजनक शब्दों पर रोष तो बहुत आया, परन्तु बड़े शान्त स्वर में बोला, “महाशय, आप तो बुरा मान गये ! मेरा तात्पर्य कदाचित आपके धर्म का खंडन करना नहीं था । हम आपकी तरह क्रिश्चियन नहीं हैं तो क्या, आप ही की तरह हम भी यीशू को पूरा सम्मान देते हैं । उन्हें महापुरुष मानते हैं – जिन्होंने अपने समय में अन्ध-विश्वासों तथा विकारों में लिप्त धर्म के ठेकेदारों के विरुद्ध जन-साधारण को सचेत किया और इस आन्दोलन में अपने प्राण तक न्योछावर कर दिये । इसी प्रकार सिखों के पंचम गुरू – श्री गुरू अर्जुन देव – ने भी सत्य के लिये मुगल साम्राज्य से टक्कर ली थी । बाल शहीद हकीकत राय – जिसने हर प्रकार के प्रलोभनों को अस्वीकार किया, परन्तु अपना धर्म नहीं छोड़ा । ये सब महापुरुष हमें सच्चे जीवन की राह दिखाते हैं । परन्तु हम उनके अनुयायी कहलाने वाले – जानते बूझते हुए – सत्ता, धन, सम्पत्ति तथा प्रतिष्ठा के प्रलोभनों अथवा अधर्म की ओर झुक जाते हैं । हमारी सनातन संस्कृति, जिसको सनातन धर्म के नाम से जाना जाता है, एक ऐसे महामानव की कल्पना करती है जो मन, बल तथा बुद्धि में असाधारण हो, सर्वकला सम्पन्न हो, और जो हर प्रकार की वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक तथा आत्मिक उपलब्धियों का स्वामी हो। जो समाज-कल्याण के लिये रिद्धियों और सिद्धियों का स्वामी ही नहीं, दाता भी हो । अभिमान का हनन करने वाला हनुमान हो, परन्तु सदा अपने को श्री राम के चरणों का दास मानता हो और स्वयं को कर्ता न मान कर जीवन-संग्राम में आसुरी प्रकृतियों का नाश कर अधर्म पर विजय प्राप्त करने की योग्यता रखता हो । पाप की प्रेरणा तो हमें हर काल और हर समाज में हमेशा से मिलती आई है, जिसे जताने के लिये आपने कथा में विघ्न डाला । परन्तु क्या हमें उसके विरुद्ध अपने को तैयार करने की आवश्यकता नहीं ! हिन्दू विचार के अनुसार लक्ष्मीपति भगवान नारायण अपने भक्तों पर कृपा करते हैं तो लक्ष्मी जी के साथ गरुड़ पर सवार होकर आते हैं और सभी विषैले सर्प रूपी तत्वों का नाश कर सुख और शान्ति प्रदान करते हैं । विपरीत इसके, जब कभी ईश्वर-विमुख मनुष्य किन्हीं पूर्व-जन्मों के फलस्वरूप लक्ष्मी को निमन्त्रण देता है तो – शास्त्रों के अनुसार – लक्ष्मी भगवान नारायण से अलग जब भी आती है – और आती अवश्य है – तो उसका वाहन उलूक होता है । अर्थात, वह व्यक्ति को उल्लू बनाकर छोड़ती है । यह सब कुछ प्रतिदिन देखने में आता है । और यही ज्ञान है जगत गुरू भारत की विश्व को देन, जिसको हम अज्ञानतावश बिना सिर पैर की हांकना कहते हैं । वास्तव में तो यह मानव धर्म है । सनातन धर्म है । तथा इसे हिन्दू धर्म की संज्ञा दी जाती है ।”
मैं विशेष रूप से उन पादरी महोदय को सम्बोधित करके कहने लगा, “आप कहीं यह न समझ लेना कि मैं इस प्रकार हिन्दू धर्म की बढ़ाई कर रहा हूं । वास्तव में तो हम सब का एक ही धर्म है, एक ही पूर्वज हैं । चाहे स्थान, काल अथवा परिस्थितियों के वश हमारी पूजन-पद्धति भिन्न हो गई हो, हम हैं तो सभी भारतीय । और एक ही पूर्वजों की सन्तान ।”
उपस्थित सत्संगी मेरे प्रेम भरे शब्दों से मुग्ध हो गये । महात्माजी को भी मेरे विचारों से बल मिला । प्रसंग को पुन: आरम्भ करते हुए बोले, “हां तो बन्धुओ, मैं श्री कृष्ण की लीला का वर्णन कर रहा था । युद्ध तो चल ही रहा था, दैवी प्रकोप से कर्ण के रथ का पहिया पृथ्वी में धंस गया । कर्ण ने ऊँची आवाज़ में अर्जुन को युद्ध-विराम के लिये कहा । उसके संकेत पर अर्जुन ने बाण रोक लिया । उस समय धर्म-युद्ध के यही नियम हुआ करते थे । परन्तु श्री कृष्ण ने अर्जुन को निहत्थे कर्ण पर बाण चलाने का खुले शब्दों में आदेश दिया, जिसका धर्म-युद्ध के विरुद्ध कहकर कर्ण ने भरसक विरोध प्रकट किया । भगवान श्री कृष्ण ने घृणा और क्रोध करते हुए कहा, ’अब धर्म-युद्ध याद आ रहा है ! उस समय तुम्हारा धर्म-युद्ध कहाँ था जब सात-सात महारथियों ने मिलकर एक अबोध और निहत्थे बालक अभिमन्यु की हत्या की थी ! जिसमें कर्ण, तुम भी शामिल थे । तुम अधर्मी हो, पशुतुल्य हो – जिसका छल, बल, अथवा किसी भी युक्ति से वध करना ही धर्म है । अर्जुन, चला अपना अमोघ बाण और इस दुष्ट का अन्त कर दे ।”
मेरे विचार में महात्माजी ने अपने भोलेपन में विपक्ष को फिर से आलोचना का अवसर दे दिया था क्योंकि मैंने देखा कि वह पादरी मुंह पर रूमाल रखकर मन्द-मन्द मुस्करा रहा था और सत्संगी सज्जनों के मन में भी आशंका का बीज उत्पन्न हो गया था ।
महात्माजी का सम्भवत: इसमें भी कोई उद्देश्य रहा होगा । झट से बोले, “है न मर्यादा विरुद्ध प्रसंग ! और इसी प्रकार की घटना रामायण में भी आती है जब मर्यादा-पुरुषोत्तम राम ने पेड़ के पीछे छिपकर बालि का वध किया था । हमारे शास्त्रों की यही तो विशेषता है कि आप ही विपरीत परिस्थितियाँ उत्पन्न करके धर्म के गूढ़ रहस्य भी बड़ी सरलता से जन-साधारण को समझा देते हैं । पहले तो कर्ण और उसके साथी अधर्मी, और रामायण में बालि का पात्र अनीति और अनैतिकता में लिप्त असुर पशु-तुल्य ही थे – जिन हिंसक जन्तुओं का वध करना धर्म ही है । इसके अतिरिक्त हर काल में सिवाय कुछेक मूल सिद्धान्तों के, धर्म भी परिवर्तनशील रहा है । जिसका उद्देश्य जन-साधारण का कल्याण और समाज का सुचारू संचालन है – और जो मर्यादायें युगपुरुष अथवा महापुरुष समय-समय पर निर्धारित करते हैं । वह परम पिता परमात्मा, जो सत्य और असत्य के भी परे है, अजन्मा, अनन्त, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्व-व्यापी, नितपवित्र और सृष्टि कर्ता है, वह अवतार लेता है तो अपने किसी संकल्प के वश नहीं । क्योंकि वह तो संकल्प से भी परे है । केवल भक्तों के लिये ही, जो अपने नैनों से उसके दर्शन के उत्सुक होते हैं । जगत जननी जगदम्बा को प्रेरित कर, संसार में आकर लीला रचता है । वह किसी मानवी धर्म से बंधा हुआ नहीं है । उसकी रचना अलौकिक और बुद्धि से परे है । इसीलिये मनुष्य को संशय नहीं करना चाहिये । भगवान स्वयं ही तो कहते हैं कि, ’अर्जुन, तू सब धर्मों को तज । मेरी शरण में आ जा । मैं तुझे मोक्ष प्रदान करूंगा ।’”
“यह तो कुछ तर्कसंगत न हुआ ।” वे पादरी साहब पुन: हिम्मत करके बोले, “जब आपका भगवान शरीर धारण करता ही है तो प्रकृति के सभी नियम उस पर भी लागू होने चाहियें । केवल आप के कह देने मात्र से तो जनता इन नियम विरुद्ध कार्यों को अपनी सम्मति नहीं दे सकती !”
मैं जान गया कि वे सज्जन काफ़ी सिखाये पढ़ाये हुए हैं । सम्भवत: उनका उद्देश्य महात्माजी को नीचा दिखाना है । इसलिये सोचा कि इन्हें इन्हीं के तर्क से पछाड़ना चाहिये । पुन: वार्ता में हिस्सा लेते हुए मैंने कहा, “प्रभु यीशू भी तो प्रकृति के नियमों के विरुद्ध मृतक को जीवन देने और विकलांगों को स्वस्थ करने में सक्षम थे ! उनका अपना जन्म ही कौन सा प्रकृति के अनुसार हुआ था ! यह तो सब धार्मिक आस्थाओं पर निर्भर करता है ।”
“धार्मिक आस्थाओं का कोई आधार भी तो हो ! न कहीं राम था न रावण । और न महाभारत का ही कोई प्रमाण है । अब तो खोजबीन से यह भी सिद्ध हो चुका है कि श्री लंका में भी कोई रावण नहीं हुआ । और उस सभ्यता के कहीं भी कोई अवशेष नहीं मिलते । परन्तु बैथलहम में प्राचीन मस्जिद तथा दूसरे सारे सबूत मौजूद हैं ।”
उन महाशय के अचानक उबल पड़ने पर मैंने कहा कि, “यह तो कल की बात है । मनुष्य का इतिहास तो बहुत प्राचीन है । जब पाश्चात्य सभ्यता अभी अज्ञानता के अन्धकार में डूबी हुई थी तो पूर्वी सभ्यता अपने चरम पर थी, जिसकी नींव उन आधारभूत नियमों, तथ्यों, तथा सिद्धान्तों पर रखी हुई है जिनका ज्ञान ऋषियों-मुनियों ने कठिन तपस्या के बाद प्राप्त किया और निस्वार्थ भाव से जन-कल्याण हेतु ग्रन्थों की रचना की । मेरा तात्पर्य केवल यह सिद्ध करना है कि पौराणिक गाथायें शत-प्रतिशत वास्तविकता पर आधारित हों, ऐसा भी नहीं है । इनके पीछे – लगता है – कुछ गूढ़ तत्व, जो जन-साधारण की समझ से बाहर थे, गाथाओं द्वारा आज के व्यक्ति तक पहुँचाने का प्रयास किया गया है । इन गाथाओं में छिपे गूढ़ रहस्यों को हम अपनी अल्प बुद्धि के आधार पर मापने का प्रयत्न करते हैं और न समझ पाने पर नकार देते हैं । आदिकाल से चली आई इस सृष्टि को मनुष्य की अल्प-बुद्धि कितना कुछ समझ पाई है – जिसको विज्ञान का नाम देकर इस विस्तृत सृष्टि की छानबीन का काम सौंपा गया है ! यह तो आज वैज्ञानिक भी मानते हैं कि मनुष्य के छोटे से मस्तिष्क की सीमा जहां तक है, उसका अभी दसवां भाग भी विज्ञान समझ पाने में असमर्थ है । आज जो कुछ हम विज्ञान की देन मानते हैं, पहले कब मौजूद नहीं था? फ़र्क इतना है कि यंत्र बदल गये हैं । प्राचीन काल में यंत्रों के साथ-साथ मंत्रों का भी प्रयोग किया जाता था । यदि यह मान लिया जाये कि ये सब मनघड़न्त बातें हैं, तो भी भगवान राम के चरित्र पर क्या आक्षेप लग सकता है कि वे एक आदर्श मनुष्य, आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श भाई और आदर्श राजा के प्रतीक के रूप में खरे नहीं उतरे? वे मर्यादा-पुरुषोत्तम सिद्ध करते हैं कि मानव की शान्ति, जिसको अभिमान रूपी रावण हर कर ले गया है, उसे पुन: प्राप्त करने के लिये आवश्यक है कि मनुष्य अपने मन के हनुमान को खोज करने के लिये भेजे और मद, मोह, लोभ और अहंकार रूपी रावण को परास्त कर पुन: आनन्द से जिये ।”
पादरी जी, जिनकी शिक्षा अपने तौर पर धार्मिक ढंग से हुई थी, कुछ समझे अथवा नहीं, पर मौन अवश्य हो गये और किसी स्टेशन पर – जहां अब गाड़ी रुकने वाली थी – उतर गये ।
परन्तु अब एक और व्यक्ति सूट-बूट पहने, हाथ में बड़ा सा बैग लिये, न जाने कहां से प्रकट हो गया और ज़ोरदार शब्दों में कहने लगा, “शायद आप मुझे नहीं जानते । परन्तु मैं आपकी रग रग से वाकिफ़ हूं । एक भोले भाले पादरी को निशाना बनाकर सब उसके पीछे पड़ गये । आपकी बातों में लेशमात्र भी सत्य नहीं है । और आपको यह अधिकार किसने दिया कि सार्वजनिक स्थान पर पोथी खोल कर भोले भाले लोगों को उल्लू बनायें !”
मैंने इसके पूर्व उसका नोटिस नहीं लिया था और न ही उस से पूर्व परिचित था । सीधा प्रहार होता देखकर अवाक् रह गया । वह व्यक्ति अब भी बोले जा रहा था, “जब से यह दुनिया बनी है, हज़ारों मत-मतान्तर पैदा हुए । परन्तु अपने समय में कुछ भी सिद्ध नहीं कर पाये और मानव जाति पर बिना कुछ विशेष प्रभाव डाले दुनिया से लोप हो गये । सत्य यही है कि मानव की प्रतिभा ही समाज को आगे बढ़ाने में सफ़ल हुई है । जितना ज्ञान-विज्ञान बढ़ेगा, उसी से मानव का कल्याण हो सकता है । आप लोग तो वह पत्थर हैं जो समाज के गले पड़े हुए हैं । ख़ुद तो डूबेंगे ही, औरों को भी ले डूबेंगे । कौन समझदार व्यक्ति है जो धन, बल, यश नहीं चाहता? और ज़्यादा से ज़्यादा सुख साधनों के साथ जीना नहीं चाहता? आप के कहने से वह सब त्याग कर स्वयं अपने को और अपनी सन्तान को विपत्ति में क्यों डाले? मैं इसी जागृति का प्रचारक हूं और अपने मिशन का प्रचार करता हूं । यदि मानव चाहे तो वह स्वयं सर्व-कला-सम्पूर्ण अपना भाग्य-विधाता बन सकता है । इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे आप लोग पाप-पुण्य की संज्ञा देते हैं ।”
इससे पहले कि मैं सम्भल पाता और कुछ बोलता, उसने अपने थैले से कुछ पुस्तिकायें निकालीं और आसपास बैठे हुए व्यक्तियों को थमाता गया । देखते ही देखते प्राय: सभी के हाथों में प्रतियाँ पहुँच चुकी थीं । एक प्रति मेरी गोद में भी थी । मेरा ध्यान उस पुस्तिका पर नहीं गया था और मैं सोच रहा था कि अपनी जाति की इस कमज़ोरी का लाभ उठाकर किस प्रकार लोग मुफ़्त में कुछ बांट देते हैं और हम प्रसाद स्वरूप उसे ग्रहण करने में संकोच नहीं करते । चाहे वह वस्तु घातक ही सिद्ध क्यों न हो । मैं अपनी दशा से उबरा और मुझे बोध होने लगा कि समय किस गति से व्यतीत हो गया है ।
गाड़ी अब समस्तीपुर स्टेशन के बाहर सिगनल पर खड़ी थी और सभी यात्री अपनी अपनी पुस्तिका अपने सामान के साथ लपेटते हुए स्टेशन पर उतरने की तैयारी कर रहे थे । मुझे इस चीज़ का होश नहीं था कि महात्माजी न जाने कब उस व्यक्ति के आने के पश्चात् – शायद पिछले स्टेशन पर – कहीं उतर गये थे और मैं उनको नमस्कार भी नहीं कर पाया था ।
मैं भी उठकर अपने बच्चों के पास जाने को हुआ तो महसूस किया कि वह व्यक्ति मेरे ही पीछे खड़ा था । मन में कुछ शंका हुई और थोड़ी घबराहट भी, परन्तु फिर भी हिम्मत करके पूछ ही बैठा, “आपके इससे पूर्व तो दर्शन कभी नहीं हुए ! आप मुझे कैसे जानते हैं ?”
वह व्यक्ति अजीब प्रकार की मन्द मन्द हंसी हंसते हुए धीरे से बोला, “मैं सदा से ही आपके साथ रहा हूं । आपको शायद ध्यान नहीं, मगर जब आपको इधर आने का परामर्श दिया जा रहा था, मैं वहीं मौजूद था ।”
उसी समय गाड़ी प्लेटफ़ॉर्म पर लग रही थी । मैं पुस्तिका थामे शीघ्रता से अपने बच्चों के पास पहुँचा । पलटकर देखा तो वह व्यक्ति मेरी आँखों से ओझल हो चुका था । सामान सम्हालते हुए मैंने महसूस किया कि पुस्तिका, जो मैं अब थैले में रख रहा था, काफ़ी वज़नी थी । इतनी वज़नी और मोटी कि उसे पुस्तिका के बजाय पुस्तक कहना ही अधिक उपयुक्त होगा । मेरे अनुमान के अनुसार वहां उपस्थित तीस-चालीस व्यक्तियों में तो वह पुस्तक अवश्य बंटी होगी । जिसका भार एक व्यक्ति के लिये तो उठाना सम्भव नहीं था । प्राय: उसके लिये तो कई लोगों की ज़रूरत पड़नी चाहिये ! यह सोचते हुए मुझे कुछ डर सा लगने लगा ।
गाड़ी समस्तीपुर स्टेशन पहुँच चुकी थी । यह विचार मेरे मस्तिष्क में घर सा कर गया कि इतनी सारी किताबें एक थैले में कैसे आ गईं ! और उस व्यक्ति ने कितनी आसानी से वह थैला उठा रखा था ! समस्तीपुर से आगे सिलीगुड़ी जाकर दार्जिलिंग के लिये गाड़ी पकड़नी थी । समस्तीपुर से आगे रात का सफ़र था । थोड़ी फ़ुरसत पाने पर मैंने उस पुस्तक को पढ़ना आरम्भ कर दिया । विशेषकर किसी प्राचीन भाषा में लिखी हुई थी । कई प्रकार के चित्रों से आलंकृत बहुत सुन्दर गिरिजा घरों जैसे स्थानों के चित्र बने हुए थे और बहुत सुन्दर छपाई में छपी वह एक बहुत सुन्दर पुस्तक थी । उसमें दिये चित्र मेरी जानकारी के अनुसार सभ्य जगत के किसी गिरिजाघर से मेल नहीं खाते थे । तस्वीरें रहस्यमयी, विलक्षण और रुचिकर थीं । मेरी श्रीमतीजी, जिनको हिन्दी के अतिरिक्त किसी भाषा का ज्ञान नहीं, उनमें काफ़ी समय तक डूबी रहीं । यहां तक कि मेरा अबोध बालक भी वह पुस्तक हाथ में लेने के लिये रोने लगा और किसी को देने को तैयार नहीं था ।
क्योंकि ज़्यादातर सफ़र रात का था, कुछ सोते, कुछ जागते, प्रात: नौ बजे हम सिलीगुड़ी जा पहुँचे जहां सामने दार्जिलिंग की छोटी लाईन की गाड़ी लगी हुई थी । नाश्ता-पानी करते कराते गाड़ी का समय हो गया और हम दार्जिलिंग की तरफ़ चल निकले । मन तो चाहता है कि आपको पूरा वृतान्त सुनाऊँ, परन्तु आप बोर हो जायेंगे । गाड़ी क्या थी, मानव बुद्धि का विलक्षण नमूना थी । गाड़ी के दोनों सिरों पर छोटे-छोटे इंजन लगे हुए थे । कैंचीदार पटरियों पर गाड़ी कुछ समय एक दिशा में और थोड़ा रुक कर विपरीत दिशा में चल देती । और नीचे सतह से अधिक से अधिक दो तीन गज़ ऊपर पहुँचती । बहुत मनमोहक दृष्य था । इसी प्रकार कैंचियाँ पार करके गाड़ी एक स्थान पर रुक गई । पता चला कि कहीं आगे दुर्घटना हो गई है । इसीलिये गाड़ी ज़्यादा रुक-रुक कर निर्धारित समय से चार-पाँच घंटे देर से चल रही थी । हमारी इस गाड़ी पर यह प्रथम यात्रा थी । वह इतनी रोचक थी कि हमें समय का विशेष ध्यान नहीं रहा । खाने को भी काफ़ी कुछ था । इस कारण भी हम यात्रा का विशेष आनन्द लेते रहे । अब अंधेरा होने को था और गाड़ी में रौशनी की सुचारू व्यवस्था नहीं थी । बाहर के दृष्य भी अब धुंधले पड़ गये थे । विशेष कुछ करने को भी नहीं था । बच्चों के साथ हंसता खेलता रहा । अचानक डिब्बे में हलचल हुई । कोई धर्मगुरू लम्बा काला चोगा पहने डिब्बे में चढ़ आया था और स्थानीय भाषा में लोगों को आशीर्वाद तथा उपदेश देता आ रहा था । और साथ ही साथ एक मोटी अथवा चमड़े की थैली से किसी प्रकार की काली सी वस्तु, प्रसाद स्वरूप, सबमें बांटता आ रहा था । प्राय: सभी व्यक्ति उठ-उठ कर उसके चरण स्पर्श कर रहे थे । मैं सामने की लम्बी सीट पर अपने परिवार सहित बैठा था । वह लम्बा जैसा लगने वाला व्यक्ति मेरे सम्मुख भी आकर खड़ा हो गया । उसके चेहरे पर वही मन्द -मन्द मुस्कान खिल रही थी, जिससे मैं पूर्व परिचित था । लगा, हो न हो, यह वही व्यक्ति है । परन्तु मस्तिष्क मानने को तैयार नहीं था । मुझे फिर से डर लगने लगा । मेरी पत्नी ने तो विशेष ध्यान नहीं दिया, और दिया गया प्रसाद झट से मुंह में रख लिया । परन्तु अपने हाथों में पकड़े अफ़ीम जैसे पदार्थ की गोली को मैं मुंह तक लाने में झिझक रहा था जिसकी प्राय: तीक्ष्ण प्रतिक्रिया हुई । वह व्यक्ति खीझ कर अपनी भाषा में कुछ कह रहा था । आसपास बैठे व्यक्ति विशेषकर मुझे घूरने लगे । स्थिति को अपने विपरीत होते देखकर, मैंने भी राम का नाम लेते हुए झट से गोली निगल ली और झुककर उसके चरण स्पर्श भी किये । उसने अपना भारी भरकम हाथ मेरे सिर पर रखा । मुझे लगा जैसे कोई मेरे कानों में फुसफुसा रहा हो कि, “अब हाथ-पैर पटकना व्यर्थ है क्योंकि तुम पूरी तरह मेरे वश में हो ।” इस से विशेष तो कुछ नहीं हुआ, और गाड़ी धीरे-धीरे आगे खिसक ली । रात के नौ बजते बजते हम दार्जिलिंग पहुँच गये और मैंने सुख की सांस ली ।
स्टेशन मास्टर कोई सज्जन व्यक्ति थे और स्टाफ़ का आदमी जानकर मेरी प्रार्थना पर प्रथम श्रेणी का प्रतीक्षालय, जिसका मैं अधिकारी नहीं था, खोल दिया और रात भर निश्चिन्त ठहरने की व्यवस्था कर, अन्दर से चिटखनी लगाने की हिदायत दे गये । थके हारे बच्चे तो जल्दी ही सो गये, परन्तु मुझपर तो जैसे अब तक शैतान सवार था । सुविधाजनक अकेलापन पा… आज जब मुझे अपने व्यवहार की याद हो आती है तो बहुत संकोच होता है । स्वाभाविक रूप से मैं शान्त प्रकृति का व्यक्ति हूं । दूसरे दिन सुबह सवेरे स्टेशन के पास ही धर्मशाला में स्थानांतरित हो गया । वहां भी जगह बहुत सुविधा जनक थी । खिड़की से दार्जिलिंग का रोचक दृष्य, और घाटियाँ । हम वहां तीन दिन रहे – और मेरी पत्नी के कहे अनुसार – उसने मेरा ऐसा कामुक स्वरूप कभी नहीं देखा था । ख़ैर, ख़ुदा-ख़ुदा करके कुफ़्र टूटा । दार्जिलिंग में विशेष तो कुछ बताने योग्य नहीं है । स्थान बहुत मनोरंजक है । पर्वतारोहण इन्सटीच्यूट, देवी का मन्दिर और डिस्ट्रिक्ट पार्क – जिसमें चिड़ियाघर भी था – बच्चों के बहुत मन भाया । टूरिस्ट वैन में सभी दर्शनीय स्थान देखे । विशेषकर सनराईज़ प्वाइंट और बुद्ध मोनास्ट्री । मैं डरपोक नहीं हूं, परन्तु जाने क्यों मुझे मोनास्ट्री के तंग गलियारों और अंधेरे दालानों में अपने पर मंडराता हुआ एक साया महसूस हुआ । हो सकता है वो मेरे मन की कमज़ोरी ही हो, परन्तु अब मैंने दार्जिलिंग को जल्दी से जल्दी छोड़ने का निश्चय कर लिया था । पत्नी के अनुरोध के विपरीत, प्रोग्राम कम करके चौथे ही दिन वापिस दिल्ली के लिये रवाना हो गया । मुझे सारे रास्ते वह पुस्तक उठाकर देखने का साहस नहीं हुआ । मुझे अजीब सा लग रहा है कि मेरी पत्नी ने भी उसके बारे में पूछताछ नहीं की । वापसी पर लखनऊ अपने भाई साहब के घर ठहरा । सोचा, बाकी समय यहां व्यतीत किया जाये ।
एक दिन मैं साहस जुटाकर पुस्तक पढ़ने बैठ गया । तीसरे-चौथे पृष्ठ पर ही प्राचीन अंग्रेज़ी के शब्दों में कुछ लिखा था, जिसका अनुवाद यथाशक्ति संक्षेप में मैं यहां लिख रहा हूं । उभरे हुए शब्दों में लिखा था, ’तुम सब मेरी सन्तान हो और मैं हर पल तुम्हारे साथ रहता हूं । न जाने क्यों, और किन कारणों से तुम मुझसे विमुख हो गये हो । मैं दुनिया-जहान की सब सम्पदा तुम्हारी झोली में डालना चाहता हूं । तुम मुझपर विश्वास तो करो !’ इसके आगे काफ़ी लम्बे पैराग्राफ़ में कुछ अजीब सी भाषा में लिखा था, जिसमें स्थान-स्थान पर रेखाचित्र बने हुए थे जो मेरी समझ में नहीं आये । मुझे इस बात का विश्वास हो गया कि यह पुस्तक और कुछ करे न करे, अनहित अवश्य करेगी । क्योंकि मैं परिवार को आशंकित नहीं करना चाहता था, कि कहीं उनके मन मस्तिष्क में मेरे समान भय उत्पन्न न हो जाये, चुपके से पुस्तक एक थैले में दबोच कर गोमती के पुल पर चला गया । मुझे विश्वास नहीं हो पा रहा कि उसे उछालकर दरिया में डालने की हिम्मत मुझमें नहीं हो रही थी । जैसे कोई पीछे से मुझे अपनी ओर खींच रहा हो । ख़ैर, ज्यों-त्यों कर मन को पक्का करके पुस्तक को मैंने उछाल ही दिया, जो मेरे सामने पानी में ग़र्क हो गई । अब मैंने शान्ति की सांस ली । परन्तु यह मेरा भ्रम था ।
मैं अच्छा ख़ासा पूजा-पाठ करने वाला व्यक्ति, जिसके जन्म से ही धार्मिक संस्कार रहे हों, दिन-प्रतिदिन भगवान से विमुख होता गया । अब मुझे मन्दिर, गुरूद्वारा तथा तीर्थ-यात्रा में कोई रुचि नहीं रही ।
टी. वी. पर समाचार देखते हुए मुझे कई बार लगा कि वह व्यक्ति किन्हीं विशेष लोगों में बैठा कार्यरत है । ख़ास तौर पर कई राजनीतिज्ञों में । कई बार दंगे फ़सादों के दृष्य टेलीविज़न पर आये । विशेषकर मुझे वही व्यक्ति झांकता प्रतीत हुआ । बाबरी मस्जिद के विध्वंस होने के दृष्यों में भी, तथा उसके बाद होने वाले मुम्बई के दंगों में भी, बिहार, बंगाल की घटनाओं में तथा देश के दूसरे हिस्सों में हुई जातीय हिंसा में भी मैंने उसकी झलक देखी है ।
सम्भवत: आप इसे मेरे मस्तिष्क का भ्रम मान रहे हों ! परन्तु अपने कार्य में मैं प्राय: सामान्य व्यक्ति हूं और कभी किसी ने मेरे सनकी होने का इशारा तक नहीं किया । अन्त में एक बात विशेष रूप से कहकर अपनी लेखिनी को विराम दूंगा कि मेरे सामने एक पुस्तक रखी है, जिसका नाम है, “आधुनिक रामायण”। चित्रण है, रावण-संहार के उपरान्त जब लक्ष्मण भगवान के आदेश पर रावण से सीख लेने गया तो रावण मन्द-मन्द मुस्कराते हुए कहता है, “लक्ष्मण, मुझे भास है कि जहां राम है, वहां मैं नहीं । परन्तु यह भी सत्य है कि जहां मैं हूं, वहां राम भी आने का साहस नहीं कर सकता । हमारा संघर्ष युगों से चल रहा है और आगे भी चलता रहेगा । परन्तु एक बात मैं विशेष रूप से कहना चाहता हूं । और तुम जाकर राम को मेरी चुनौती देना कि समय आ रहा है, जब कण-कण में राम नहीं, मैं ही व्याप्त हूंगा । फिर वह मुझे किस प्रकार नष्ट करेगा ! मैं अमर हूं और अमर ही रहूंगा ।”
समाप्त
लेखक :- जगदीश लूथरा ‘नक्काद’