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Bharat Mata

Published by Jagdish Luthra 'Naqaad' in category Hindi | Hindi Story | Social and Moral with tag hospital | India-Pakistan partition | maid | Mother | pain | son

भारत माता – Bharat Mata (In my childhood, name of my maid was ‘Bharat Mata’. This Hindi short story is about her struggles for life before and after India-Pakistan partition)

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Hindi Short Story – Bharat Mata
Photo credit: clarita from morguefile.com
(Note: Image does not illustrate or has any resemblance with characters depicted in the story)

भारत माता को मैं कब से जानता हूं, इसका आप अनुमान भी नहीं लगा सकते। उससे मेरा सम्बन्ध बहुत पुराना है। यूं कह लीजिये कि अपने जन्म लेने के उपरान्त अपनी माँ की गोद में पहुँचने से भी पूर्व मेरे शरीर को जिस के सुखद स्पर्श का सर्वप्रथम अनुभव हुआ, वो भारत माता ही थी। इतना घनिष्ट सम्बन्ध, परन्तु परिचय बस यूं ही सा रहा। आज इतने वर्ष उपरान्त, मुझे ऐसा लगता है, जैसे कि मैंने उसके प्रति अपने नैतिक कर्तव्य की अवहेलना ही की हो।

भारत माता मेरी दाया थी। मैली कुचैली धोती में लिपटी हुई साधारण सी स्त्री। उसका वास्तव में क्या नाम था, मैं आज तक नहीं जान पाया। नाम तो उसका अवश्य रहा होगा। कोई सार्वजनिक पुराना सा नाम। परन्तु मैं उसे बस भारत माता के नाम से ही जानता हूं क्योंकि जहां तक याद पड़ता है, मैने उसे किसी और नाम से पुकारा जाते नहीं सुना।

माता शब्द का प्रयोग देश के उस खण्ड में – जहां मेरा जन्म हुआ था – कम ही होता था। दरअसल भारत माता के दो लड़के थे। सम्भवत: वे उसके पुत्र ही रहे होंगे। एक का नाम था भारत रत्न और दूसरे का नाम भारत भूषण – जिनके साथ मैं बचपन में खेला करता था – उसे माता ही कहते थे। इसलिये सभी छोटे-बड़े उसको भारत की माता, अथवा भारत माता कहकर ही सम्बोधित करते। वो कहां से ओर कब से ’हमारे देश’ में आकर बस गये थे, मुझे इसका ज्ञान नहीं। परन्तु लोग उन्हें पुरबिया कहा करते थे। सम्भवत: ’उस देश में’- जहां के वो मूल निवासी थे – माँ को माता कहकर पुकारा जाता होगा।

वैसे उन दिनों स्वतंत्रता की लहर भी चल रही थी और भारत माता का शब्द जनसाधारण की जिव्हा पर चढ़ा भी हुआ था। शायद इसलिये भी – मज़ाक के तौर पर, अथवा किसी और कारण से – सभी उसे भारत माता के नाम से ही पुकारते थे। और यही सम्बोधन मैने भी अपना लिया था। जैसे ही वो गली के छोर पर दिखाई पड़ती, सभी बच्चे पुकार उठते -“भारत माता की जय”, जिसमें मैं भी शामिल होता था।

वो इसका बुरा मानती हो अथवा चिढ़ती हो, ऐसा नहीं लगता था। वो धीरे-धीरे पास से गुज़र जाती जैसे इसका उससे कोई सम्बन्ध ही न हो। वैसे माता और जय चिढ़ने या चिढ़ाने वाले शब्द थे भी नहीं। परन्तु इनके पीछे क्या भाव छिपा रहता, मैं यह तब समझने योग्य नहीं था। मगर अब मैं जान गया हूं कि जिस शब्द की आड़ में कुकर्म किये जाते हैं, उसकी जय बोलना ही लाभदायक रहता है।

माता अथवा माई, और दाया अथवा दाई, ऐसी भावात्मक संज्ञायें हैं जिनका अपना कोई आस्तित्व ही नहीं होता। ये शब्द कितने भी आदर के सूचक हों, प्राय: इनका प्रयोग निज-स्वार्थ के लिये ही होता है। सामाजिक दृष्टि से इनके व्यक्तित्व को हमेशा नकारा गया है। आम बोलचाल की भाषा में माई हम उसे कहते हैं जो घर-घर जाकर झाड़ू बर्तन करके अपना और अपने बाल बच्चों का पेट भरती हो। इसी प्रकार दाया अथवा दाई का कार्य क्षेत्र भी प्रसव करवाना तथा जननी और नवजात शिशु की मैल धोना है जिसका प्राय: सभी कुछ दे दिला कर चुकता कर देते हैं। हां माता की आवश्यकता के अनुसार उसका स्थान कुछ शीर्ष माना गया है। जब तक शरीर अपनी देखभाल करने, और दिमाग संसार को समझने योग्य नहीं होता, केवल माँ ही माँ नज़र आती है। परन्तु वृद्धावस्था में जब वो हमारी आवश्यकता अथवा अपनत्व की अपेक्षा रखती है, हम प्राय: उसे भूल से जाते हैं। यही हमारी सभ्यता की विडम्बना रही है कि ’नाम बड़े और दर्शन छोटे’। स्त्री को उसका उचित स्थान देने में हम हमेशा आनाकानी करते रहे हैं।

ख़ैर, भारत माता एक सीधी, एकरस रहने वाली साधारण सी स्त्री थी जो दाया के कार्य के अलावा, आसपास साहब लोगों के बंगलों में झाड़ू-बर्तन करके अपने छोटे से परिवार का पेट पालती थी। उसके घर में रतन और भूषण के अतिरिक्त एक वृद्ध सा व्यक्ति था जो खटिया पर पड़ा, शून्य में न जाने क्या ढूंढता रहता। वो सम्भवत: भारत माता और उसके बच्चों के प्रति चिन्तित रहता था।

हम उन दिनों सरगोधा शहर में, जो ज़िला मुकाम भी था, रहा करते थे। मेरे पिताजी वहां के मुख्य डाकघर में मुलाज़िम थे। डाकघर के आसपास कर्मचारियों के क्वार्टर और उच्चाधिकारियों के बंगले बने हुए थे। वहीं एक सर्वेन्ट क्वार्टर में भारत माता और उसका परिवार रहता था।

जो लोग कभी सरगोधा गये हों, वे जानते होंगे कि यह एक नई आबादी थी जो पंजाब की कई एक चुनी हुई अनाज मंडियों में से एक थी। शहर के दक्षिण में एक बहुत बड़ा कम्पनी बाग था और सिविल लाईन्स का क्षेत्र पड़ता था। उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम में एक नहर पड़ती थी। सरगोधा शहर कम्पनी बाग और इस नहर के दर्मियान बसा हुआ था जो लगभग समान क्षेत्रफल के चौबीस खन्डों अथवा ब्लॉकों में बंटा हुअ था।

सरगोधा शहर का नाम सरगोधा क्यों पड़ा, इसके पीछे एक कहानी है। इस नई बस्ती – जिसे महकमा आबकारी में तो कुछ और ही नाम दिया होगा – के दक्षिण-पूर्व में एक पहाड़ी थी जिसे किराणा पहाड़ी के नाम से जाना जाता था। उसमें कोई गोधा नाम का साधू धूनी रमाये रहता – एक तालाब के किनारे। इसलिये इस स्थान का नाम सरगोधा पड़ गया। और इसी से उस नहरी क्षेत्र को भी यह नाम मिला। यह कोई विशेष लिखने योग्य वृतान्त नहीं था क्योंकि अनेकों शहरों, कस्बों आदि का नाम उनके निकट के किसी स्थान के नाम पर आधारित हो, पड़ जाता है। परन्तु एक बात विशेष उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र में लोगों की विचारधारा धार्मिक तथा समाजसेवा से परिपूर्ण थी। मिसाल के तौर पर एक व्यक्ति ने मकान बनवाने के लिये ज़मीन पर कुआं खुदवाया तो संयोगवश उसका पानी बहुत मीठा और बर्फ़ के समान ठंडा निकल आया। और उस व्यक्ति ने उसी समाजसेवी तथा धार्मिक भावना के अन्तर्गत वहां अपना मकान बनवाने का ध्यान छोड़कर एक सार्वजनिक प्याऊ तथा विश्रामस्थल का निर्माण करवा दिया और उस स्थान का नाम अपने नाम के साथ न जोड़ते हुए ’राम निवास’ रख दिया। कहानी तो प्रचलित थी, परन्तु लोग प्राय: उस व्यक्ति को भूल चुके होंगे। उल्लेखनीय केवल यह है कि इतना उत्तम कार्य करने के पश्चात् उस व्यक्ति-विशेष को यश की सम्भवत: कहीं कामना नहीं रही होगी। प्राय: लोगों में ऐसी प्रवृति थी उन दिनों। धर्म और सेवा कार्यों में अधिक रुचि रहती। शाम होते होते युवक तथा अधेड़ उम्र के व्यक्ति बड़ी बड़ी रेड़ियों में राम निवास का शीतल जल भरकर प्राय: सभी ब्लॉकों की गलियों-कूचों में ऊँची आवाज़ से पुकारते फिरते “राम निवास का ठंडा पानी” और लोग घरों से छोटे-बड़े बर्तन लेकर पहुँच जाते। यह कहना अनावश्यक ही है कि यह सेवा नि:शुल्क, बिना किसी भेद-भाव के की जाती। लगता है आपको विश्वास नहीं हो रहा। पर यकीन कीजिये, मैं किसी बीते युग की बात नहीं कर रहा। यह सब मेरे देखते देखते हुआ है। हां, यदि युग परिवर्तन एक ही जीवनकाल में हो जाना सम्भव हो तो ऐसा भी हो सकता है।

फिर एक दिन सुना कि वो बूढ़ा लड़ झगड़कर रतन और भूषण को साथ ले, ’अपने देश’ चला गया। उसने भारतमाता को भी साथ चलने को कहा था, परन्तु वो न जाने किस मिट्टी की बनी थी, उसने जाने से साफ़ इन्कार कर दिया। उनका झगड़ा भी शायद इसीलिये हुआ होगा। अब मैं सोचता हूं कि यदि वो तभी बूढ़े की बात मान लेती तो दुखी न होती। मैं छोटा था, इस कारण मुझे अधिक ज्ञान नहीं कि इस बीच राजनीतिक क्या कुछ घटा। इन्हीं दिनों पिताजी ने शहर में एक मकान ख़रीद लिया था जो मेरे स्कूल के बिल्कुल पास ही पड़ता था – शहर के उत्तरी क्षेत्र में। इस कारण भी भारत माता के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं जान पाया।

मैने सुन रखा है कि किसी राजा ने एक दिन अपने मंत्री से पूछा कि, “तुम तो मेरे बाप दादा के समय से हो, किसका राज अच्छा है? मेरा अथवा मेरे बाप दादा का?” मंत्री क्या कहता! राज सम्मान का पूर्ण ध्यान रखते हुए बोला,”महाराज आपके दादा के समय मैं घोड़े पर जंगल से गुज़र रहा था कि एक जवान कन्या को भटकते हुए देखा। मैने तुरन्त उसे अपने पीछे बिठा लिया और पूरे सम्मान के साथ उसके घर छोड़ आया। आप जानते हैं, मेरा बेटा मस्तिष्क से कुछ कमज़ोर है और उसका ब्याह नहीं हो पाया। आपके पिताजी के समय मुझमें विचार उठा कि उस कन्या के पिता की आर्थिक स्थिति कुछ ठीक नहीं लगती। यदि लड़की का ब्याह अपने बेटे से कर दूं तो चिन्ता नहीं रहेगी। अब मैं बूढ़ा हो गया हूं और मेरी पत्नी को मरे कुछ समय बीत चुका है। अब सोचता हूं कि उस समय उस कन्या से मैं ही दूसरी शादी कर लेता तो घर का सब सुख तो मिलता।” राजा ने क्या सोचा होगा, नहीं कह सकता। परन्तु लगता है कि कहावत ’यथा राजा तथा प्रजा’ ठीक ही है। अपने जीवनकाल में मैने सतयुग, त्रेता तो नहीं देखा, हां द्वापर का अन्त और कलयुग का आरम्भ ज़रूर देखा है। क्योंकि अब भाई-भाई में द्वेष की भावना जाग उठी है।

मैं चौथी कक्षा में पढ़ता था और चलते चलते आपको उस समय की धारणाओं का उल्लेख कर ही दूं कि जब हम छुट्टी के समय घर के लिये उठते तो बहुत छिप-छिपा कर स्कूल से निकलते थे कि कहीं हैडमास्टर साहब की नज़र – जो प्राय: बरामदे में कुर्सी बिछाकर बैठे होते थे – हमपर न पड़ जाये, क्योंकि यह उनकी आदत सी बन गई थी कि कुछ बच्चों को डेढ़-दो घन्टों के लिये रोक लिया करते थे और उनकी कक्षा के अनुसार कुछ न कुछ पढ़ाई का काम दे देते थे जो उनके सामने ही निपटाना होता था। मुझे अभी तक यह समझ नहीं आया कि वे ऐसा क्यों करते थे। क्या उन्हें आराम की आवश्यकता नहीं लगती थी! या वे घर से लड़कर आते थे! यह बात केवल उन्हीं के साथ नहीं थी, और भी अध्यापकों का यही रवैया था। एक थे मास्टर सन्तराम जी – जो मुझे गणित पढ़ाया करते थे। उनको भी न जाने क्या सनक सवार रहती कि छुट्टी के दिन भी दो-चार विद्यार्थी अपनी पढ़ाई सम्बन्धी समस्यायें लेकर उनके घर आया करें। हालांकि मास्टरजी की पत्नी बहुत खीझतीं मगर इसकी उनको विशेष परवाह नहीं थी। अब मैं सोचता हूं कि उस समय व्यक्तियों को धर्म, कर्म, सेवाभाव के अतिरिक्त कर्तव्यपरायणता का भी विचार रहा होगा। उनको किसी से कुछ आशा नहीं रहती थी। सरल जीवन और सन्तोष, प्राय: उनके जीवन के अभिन्न अंग रहे होंगे। अपने अधिकारों की अपेक्षा वे अपने काम में ज़्यादा रुचि रखते थे।

सनातन धर्म स्कूल के अतिरिक्त सरगोधा शहर में दो स्कूल और भी थे जिनमें सभी धर्मों के बच्चे पढ़ते थे। परन्तु गवर्नमेंट स्कूल में अधिकतर मुस्लिम समुदाय के बच्चे पढ़ने आते। उस समय सरकारी घोषणा के अनुसार, मुस्लिम समुदाय की जाट जाति की – जिन्हें खेतिहर कहते थे – पढ़ाई पर विशेष ध्यान दिया जाता, और उनके लिये – विशेषकर – छात्रवृत्ति दी जाती थी। मैं तो कहूंगा कि इस वर्गीकरण द्वारा सरकार, शायद जानबूझकर, लोगों में द्वेष के बीज बो रही थी जो बाद में बहुत ही घातक सिद्ध होने वाला था। हालांकि थोड़ा बहुत पढ़ जाने के बावजूद इस जाति के व्यक्ति ज़्यादा पढ़े लिखे नहीं होते थे। इस कारण अधिकतर कृषि कार्य में ही जुटे रहते। हिन्दू समाज अल्पमत होने पर भी उनपर हावी था। गांव में हिन्दू साहूकार होते थे जो उन भोले-भाले अनपढ़ लोगों को जी भर कर लूटते थे। इसके बावजूद आपस में प्रेमभाव बना हुआ था।

मुस्लिम समुदाय की गणना व्यापारिक क्षेत्र में न के बराबर थी। वो छोटी मोटी सेवाओं के लिये शहरों में रहते थे – सिवाय धोबी, नाई और कुम्हार वगैरह के। परन्तु समाज में विशेष स्थान न होने पर भी उनमें भी सेवाभाव की कमी नहीं थी। सुबह हजामत बनाने के बाद – कचहरी बाज़ार के छोर पर जो एक गोल कुआं था – वहां तीन-चार पेड़ों की छांव में दरियाँ या चटाई बिछाकर वे लोग मरहम-पट्टी का सामान लेकर बैठ जाते थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैं भागते दौड़ते में गिर जाता और चोट खा बैठता तो अपने घर सूचना दिये बग़ैर सीधा वहां पर जाकर फाहा लगवा लेता। मेरी जानकारी के अनुसार वे किसी से कुछ मांगते नहीं थे। सहर्ष पैर को साफ़ करके फाहा गरम करके लगा दिया करते। कहने का अर्थ यह है कि बड़ा सौहार्दपूर्ण वातावरण था। हां कभी-कभी गुरूपूरब अथवा होली-वोली में कहीं कुछ खटपट होने लगती या जलूस पर किसी प्रकार की शरारत भी हो जाती थी। लेकिन प्राय: ये घटनायें कभी-कभार ही होती थीं और इनके पीछे किनका हाथ होता, कुछ कहा नहीं जा सकता।

एक बार स्थानीय कांग्रेस ने न जाने किस विषय को लेकर जलूस निकाला जिसमें कई स्कूली छात्र भी शामिल हुए। गवर्नमेंट स्कूल के सामने से गुज़रते समय किसी एक शरारती ने जुलूस पर ढेला दे मारा। देखते ही देखते कोहराम सा मच गया। धड़ाधड़ दुकानें बन्द होने लगीं। बात तो कहने को कुछ मामूली सी रही होगी परन्तु भारत माता की जय और अल्ला-हू-अकबर के नारे लगने लगे। जैसे भारत माता और अल्लाह मियां के बीच लड़ाई छिड़ गई हो। इस सब का मैं मूक दर्शक था जो इस खेल का आनन्द ले रहा था। घर पहुँचने पर ज्ञात हुआ कि पिछली रात लाहौर में विधानसभा के सैशन में कुछ तू-तू मैं-मैं हो गई थी, जिसके फलस्वरूप हिन्दू और मुसलमान, दोनों, बाहर सड़कों पर निकल आये और फ़साद शुरू हो गया।

जानकारी के साधन तो उस समय बहुत सीमित ही थे। और प्राय: लोग भी अनपढ़। हमें जो कुछ सूचना प्राप्त हुई, वो केवल पिताजी के माध्यम से जो रोज़ शाम माँ को आकर बताते कि हिन्दुओं और मुसलमानों में खिंचाव बढ़ता जा रहा है। यह तब की बात है जब पंजाब में उमर हयात मिनिस्ट्री बनी थी। पूरे सैशन में भारत माता और अल्ला-हू-अकबर का शोर मचा रहता। हवा का एक ऐसा ज़ोरदार झोंका आया कि सरगोधा उस से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। बाकियों के बारे में तो जानकारी कम थी, किन्तु वो ग़रीब मूक स्त्री – भारत माता – इस कलह की पहली शिकार हुई। क्योंकि बंगलों का माहौल अकेला और सुनसान था, किसी ने भारत माता पर आक्रमण कर दिया और उसका दायां बाज़ू कट गया तथा वो निस्सहाय सरकारी अस्पताल में बिस्तर पर पड़ गई।

एक शाम पिताजी ने घर आकर बताया कि देश का बंटवारा हो गया है और ऑफ़िस में उनसे पूछा गया है कि वे देश के किस खण्ड में रहना चाहेंगे! मेरी माँ क्योंकि राजनीति नहीं जानती थी, वहां से कहीं और नहीं जाना चाहती थी, परन्तु पिता जी के फ़ैसले का विरोध भी नहीं कर सकती थी। देखते ही देखते पिताजी के तबादले के ऑर्डर आ गये और हम सपरिवार, सकुशल, मय साज़ोसामान के, हिन्दुस्तान पहुँच गये। शायद इन्हीं दिनों भारत माता को भी वो देश छोड़ना पड़ा होगा।

आप समझ गये होंगे कि प्राय: यह पिछले युग की बात है। मैं भी यह सब भूल चुका था। कई वर्षों बाद, दिल्ली स्थित मैडिकल अस्पताल में अचानक फिर भारत माता से भेंट हो गई। भेंट क्या हुई, दर्शन मात्र ही हुए। उन दिनों मैं रात के समय अपने पिताजी की देख रेख के लिये उनके साथ उसी अस्पताल में ही रहा करता था, जो उन दिनों कमर के दर्द से पीड़ित, वहां दाख़िल थे। तभी अचानक एक देखी भाली सूरत अपने बैड का सहारा लिये खड़ी सामने दिखाई पड़ी। मैं सोच में पड़ गया कि हो न हो, मैंने उसे कहीं देखा ज़रूर है कि अचानक उसके हाव-भाव से मुझे एकदम याद आया कि वो भारत माता ही है। उसके पास एक दूसरा व्यक्ति भी बैठा था। ग़ौर से देखने पर लगा कि वो उसका छोटा लड़का भारत भूषण है। मैने बढ़कर उसको सम्बोधित किया परन्तु मुझे पहचानते हुए भी उसका व्यवहार मुझे कुछ रूखा सा लगा। मैं तब नहीं जान पाया कि ऐसा क्यों था! परन्तु जब जाते हुए मैने उसे एक मारुति कार में सवार होते देखा तो समझ गया कि अब वो कोई छोटा मोटा व्यक्ति नहीं है, बल्कि कोई बड़ा आदमी हो गया है। मेरे मस्तिष्क में सरगोधा की वो याद ताज़ा हो आई जब वो मुझसे मांग मांग कर बिस्किट खाया करता था।

मुझे अस्पताल में भारत माता को इस दशा में देखकर एक अवसर प्राप्त हो गया। पूछने पर उसने बताया कि रतन – जो बड़ा था – उन दिनों नोएडा क्षेत्र में कांग्रेस का नेता है और भूषण जायदादों के लेन देन का काम करता है। वे प्राय: इसी क्षेत्र के मूल निवासी थे।

नोएडा, उत्तर प्रदेश में राजधानी के साथ लगता हुआ, एक तेज़ी से उभरता औद्योगिक क्षेत्र है जहां भारत माता के नाम बहुत जायदाद थी जो पहले किसी मुसलमान ने दबा रखी थी, और जिसे छोड़ कर वो पाकिस्तान भाग गया था।

इतनी ज़मीन की स्वामिनी होने पर भी भारत माता के नसीब में यह गंदा सरकारी अस्पताल! मैं सोच में डूब गया। सम्भवत: अपने बेटों का पक्ष रखते हुए उसने बताया कि उसका केस वहां के किसी प्राइवेट अस्पताल में ख़राब हो गया था। ध्यान आता है कि कोई चौधरी अस्पताल था जिसके सामने भारत माता की एक ट्रक से टक्कर हो गई थी। उसका दायां बाज़ू तो कटा हुआ था ही, बायां भी कामचलाऊ था। परन्तु अब तो उस ग़रीब की टांगें ही टूट गई थीं और वो घिसट कर चलने पर मजबूर थी। कहते हैं न, कि ग़रीबों के नसीब में बहुत दुख लिखे होते हैं, और उनको भोगने के लिये दीर्घायु होना भी तो आवश्यक है!

भारत माता वैसे तो मर चुकी थी, परन्तु उसको मौत नहीं आ रही थी। लगातार चोटों पर चोटें खाने के बावजूद वो अभी तक जीवित थी। मुझे उस से बहुत सहानुभूति हो गई। पिताजी की देख-रेख के अतिरिक्त मैं उसका भी ध्यान रखता था। एक बार बाथरूम जाते हुए मुंह के बल गिरी और उसका वो हाथ – जो थोड़ा बहुत काम करता था – कोहनी से टूट गया।

अब अस्पतालों की क्या कहूं! भीड़ से भरे गन्दे वार्डों में साफ़-सफ़ाई का तो बिल्कुल ध्यान नहीं किया जाता था। बाथरूम, जिनके दरवाज़े प्राय: टूटे हुए थे, वार्डों का एक हिस्सा थे, और दुर्गन्ध फेंकते रहते थे। ज़रूरत के अनुसार न होते हुये, वो गन्दगी से भरे रहते थे। इसके अतिरिक्त लहू, पीक से लिप्त पट्टियाँ, तथा रुई, टूटी-फूटी कांच की बोतलों से भरे हुए ये बाथरूम, बैडपॉट और यूरिनपॉटों से अटे हुए थे । परन्तु उनमें शायद ही कोई इस्तमाल करने योग्य हो क्योंकि सभी ज़ंग खाये थे। किसी से बात करो तो खाने को दौड़ता था। नर्सें न हिन्दी जानती थीं न पंजाबी। मानो हम किसी पराये देश में पहुँच गये हों। वे प्राय: इंग्लिश का ज़्यादा प्रयोग करती थीं। हालांकि उनकी अंग्रेज़ी और भाषा को समझने वाले लोग वहां बहुत कम थे। मैं अपने आप को पढ़ा लिखा कहता हूं, परन्तु अब संशय होने लगा था कि कहीं मैने ऐसा कुछ तो नहीं पढ़ लिया जो अंग्रेज़ी न होकर उससे मिलती जुलती कोई दूसरी भाषा हो! कम से कम मुझे तो उनकी बात समझ नहीं आती थी। दवा दारू के नाम पर टिंचर के अतिरिक्त दवाओं की हमेशा कमी महसूस की जाती। पर्चियों पर डॉक्टर दवायें लिख जाते जो वहां पर उपलब्ध न होतीं। जिन मरीज़ों की बाहर से दवायें ख़रीदने की क्षमता होती, ले आते। बाकी तो बेचारे दर्द से चिल्लाते ही रहते।

मेरा विचार है कि दूसरे अस्पतालों की हालत भी कुछ इस से अच्छी नहीं होगी। क्योंकि मैडिकल तो राजधानी का विख्यात अस्पताल है जहां पर दूर दूर से मरीज़ लाये जाते हैं। इस अस्पताल को तो एक मोटी रकम स्वास्थ्य सेवाओं के रूप में प्राप्त होती होगी।

कहां तो सरगोधा में देखने में आया था कि हड्डी वड्डी टूटने का इलाज – तेल मालिश, तथा हड्डियों के जोड़ने का काम – तो नाई ही कर दिया करते थे। और इसके लिये अपने मुंह से कुछ नहीं मांगा करते थे – मरहम पट्टी अपनी तरफ़ से लगा कर भी। परन्तु यहां तो मौत के ये सौदागर दुखियों की दवा दारू तथा खाने पीने के लिये दी गई सरकारी ग्रांट भी हज़म कर जाते थे। अस्पताल के बाहर दो तीन दवाई की दुकानें थीं जो ख़ूब चलतीं। परन्तु उनको दवाई के कारख़ाने से माल मंगवाने की आवश्यकता कम ही पड़ती थी, क्योंकि अस्पताल से ही मरीज़ों द्वारा ख़रीदी गईं दवाओं का आदान- प्रदान हो जाता। प्राइवेट अस्पतालों की राजधानी में अब भरमार थी, जो ग़रीब, मजबूर मरीज़ों के किडनी गुर्दे तक निकालकर बेच खाते। अब लगता है, कलयुग का प्रकोप बढ़ता जा रहा था और कौरव-पांडव दोनों अन्तिम युद्ध के लिये तैयारी में जुटे हुए थे।

एक शाम अस्पताल पहुँचा तो पता चला कि बाथरूम में फिसलन के कारण भारत माता मुंह के बल गिरी है और वार्डब्वाय ने उसको हमदर्दी जताने के बजाय खरी खोटी सुनाई है। बायें हाथ की हड्डी जुड़ते जुड़ते फिर टूट गई है। मुझसे यह सब सहन नहीं हो सका और आग-बबूला हुआ, सीधा चिकित्सा अध्यक्ष के कमरे में पहुँचा। इस से पहले कि वो मेरी फ़रियाद सुनता, उल्टा मुझी पर बरस पड़ा,”अस्पताल में नेतागिरी नहीं चलेगी।” शायद उस मूर्ख को इसका ज्ञान नहीं था कि जिस निस्सहाय स्त्री के पक्ष में मैं कुछ कहने आया हूं, वो और कोई नहीं, भारत माता है जिसके दो-दो सपूत – भारत-रत्न और भारत-भूषण – अब भी मौजूद हैं, जिनकी दया पर उसकी नौकरी टिकी हुई है। ख़ैर, भारत माता को उसके हाल पर छोड़कर, और अपना सा मुंह लेकर मैं बाहर निकल आया।

समाप्त

लेखक :- जगदीश लूथरा ‘नक्काद’

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