छिटकिनी – Door Latch: My parents and my aunt was ready for my marriage with my cousin Salma but grandmother was very much against of this relation, read Hindi short story
जब मेरी शादी की बात चचेरी बहन सलमा से चली तो सभी लोगों ने इसका खुले दिल से समर्थन किया – खुशियाँ मनाई गई और मुहल्ले भर में मिठाईयाँ बांटी गयीं , लेकिन मेरी दादीजी ने इस रिश्ते का कड़ा विरोध किया। जब अम्माजान ने उन्हें भी एक पीस मिठाई दी तो उसने गुस्से में उठाकर उसे मुंडेर पर बैठे कौए की ओर उछाल दी। अम्माजान तो अम्माजान बाकी सभी लोग जो वहां आंगन में मौजूद थे , वे एक-दूसरे के चेहरे की ओर आश्चर्यभरी निगाहों से देखने लगे | अब्बाजान ने अम्माजान से पूछा-‘‘आखिरकार आज अम्माजान पर भूत कैसे सवार हो गया कि उन्होंने लड्डू खुद न खाकर कौए को खिला दी। यह तो इस रिश्ते का खुल्लम-खुल्ला विरोध है- एक तरह से बगावत।
अम्माजान बूत बनी वहीं खड़ी रह गई , कुछ न बोली। असल में उसके दिमाग में उथल-पुथल मची हुई थी और वह वजह तलाशने में मशगुल थी। दादीजी की उम्र अस्सी के करीब थी। उनका एक पांव तो हमेशा कब्र में ही रहता था। उन्हें अब रिश्ता से क्या लेना – देना चाहे कोई किसी से करे या न करे। लेकिन न जाने आज उनको क्या हो गया था कि………..।
हाजी रमजान अली – मेरे दादाजी, लेटे-लेटे खांस रहे थे और वहीं से सारे तमाशे का जायजा ले रहे थे। उसने वहीं से अम्माजान को इशारे से बुलाये और उनका सिर नवाकर उनके कानों में फुसफुसाये। फिर क्या था अम्माजान ने यह बात मेरे अब्बाजान से कह डाली। अब्बाजान मिलिट्री में कर्नल थे। उन्होंने रूवाबी आवाज में हुक्म तामिल कर दी , ‘ यह रिश्ता किसी भी कीमत पर नहीं हो सकता ।”
जो भी दो चार सदस्य इधर- उधर के कामों में व्यस्त थे, इस अप्रत्याशित आदेश को सुनकर आंगन में जमा हो गये यह जानने के लिए आखिर माजरा क्या है ? ऐसा क्या हो गया कि अचानक बना – बनाया खेल बिगड़ गया – बालू के घरोंदे की तरह ढ़ह गये।
सलमा और मैं साथ-साथ खेले-कुदे थे – पढ़े-लिखे थे। हम एक दूसरे को बेहद प्यार करते थे और दिल में खुशियाँ हिलोरे ले रही थीं । हममें भी यह जानने की जिज्ञासा बलबती हो गई कि आखिरकार हमसे क्या भूल हो गई कि हमें इतनी बड़ी सजा दी जा रही है | मेरे चाचाजान दस कोस पर रहते थे | वे पेशे से डॉक्टर थे | उनका निजी नर्सिंग होम था वो भी पोस एरिया में. वहां से स्कूल एवं कालेज नजदीक थे | मैं वहीं रहकर पढता था. उनकी एकलौती बेटी सलमा मेरी हमउम्र थी | हमदोनों बचपन से ही साथ – साथ पढने जाते थे स्कूल और कालेज | इंटर करने के बाद वह मेडिकल कालेज में पढने चली गयी , जबकि मैं एन. डी. ए. में चुन लिया गया | वक़्त गुजरने के साथ सलमा बाकायदा डाक्टर बनकर अपने वालिद का उनके नर्सिंग होम में हाथ बटाने लगी | मैंने लेफ्टिनेंट के ओहदे पर सेना जोयन कर लिया | चूँकि मैं ओर सलमा बचपन से एकसाथ बढ़े – पढ़े थे , इसलिए हम दोनों एक दूसरे को बेहद चाहने लगे थे | मैंने सलमा से इस बारे में उसकी राय जाननी चाही तो उसने बेहिचक ‘ हाँ ‘ कर दी | फिर क्या था मैं ने चाचीजान को अपनी दिल की बात बताने में कोई देरी नहीं की . चाचीजान तो तैयार हो गये , लेकिन चाचाजान नहीं. उसने खुले आम इस रिश्ते का जमकर विरोध किया. वे चाहते थे कोई डाक्टर लड़का मिल जाय तो सलमा का हाथ पीले करवा दें | उसने ख्वाब में भी इस रिश्ते के बारे कभी नहीं सोचा था | लेकिन चाचीजन के समझाने – बुझाने से आखिरकार उनको हथियार डाल देना पड़ा. अंततोगत्वा वे इस रिश्ते के लिए तैयार हो गये , लेकिन बेमन से | बीवी का अपने शौहर पर हुक्म चलता है – यह बात जग-जाहिर है. इसकी खबर मेरे चाचाजान ने ही सबसे पहले मेरे दादाजी को दी. दादाजी ने बाकी सभी सदस्यों को. दादीजी इस रिस्ते से बेहद खफा थी | वह नहीं चाहती थी कि मेरी शादी चचेरी बहन से हो |
मैं साहस बटोरकर कर्नल साहब के नजदीक बलि के बकरे की तरह जाकर खड़ा हो गया। वे दूर से ही मेरा इरादा भांप गये थे। उन्होंने अपनी मूंछों पर ताव देते हुए मुझे डपटे और अपने लबों पर ऊंगली रखते हुए चुप रहने की हिदायत दी। फिर भी मैं वहां से टस से मस नहीं हुआ। हमारी जिन्दगी का सवाल जो था ! उन्होंने कड़कती आवाज में मुझे दूर हट जाने का हुक्म दे डाला। अब्बा जान से बहस करना हन्टर की मार खाने का न्योता देने जैसा था। बचपन की मार को मानों याद करते तथा पीठ की दर्द को सहलाते हुए मैं दुम दबाकर बैठक में चला आया और एक हारे हुए खिलाड़ी की तरह निढ़ाल होकर सोफे में धंस – सा गया । थोड़ी देर पहले जो आंगन में तूफान आया था, वह अब्बाजान की एक ही घुड़की में शांत हो गया था और चारों ओर श्मशान सी निस्तब्धता पांव पसारने लगी थी।
परिवार के सभी सदस्य अब भी काना-फूसी कर रहे थे और असली वजह जानने की उनकी कोशिशें बरकरार थीं |
अब्बाजान सिगार के कश ले रहे थे और आंगन में किसी सोच में डूबे हुए चहलकदमी कर रहे थे।
दादाजी अब भी चारपाई पर पड़े – पड़े खांस रहे थे और अब्बाजान के हरकतों पर नजर गड़ाये हुए थे। दादीजी इन सारी बातों से बेखबर थीं और इत्मीनान से हुक्का पी रही थी।
बाल्यावस्था से ही मुझे पूरी तरह यकीन हो गया था कि इस घर में दादीजी का हुक्म चलता है। उनके हुक्म की तोहिनी की बात तो दूर, लोग इस विषय में ख्वाब में भी नहीं सोचते थे। उनका हुक्म एक तरह से ब्रह्मा की लकीर थी।
हम सभी कई दिनों से बड़े बेचैन रहे। मैंने अपनी छुट्टी भी तार देकर बढ़वा दी। मेरा तो किसी काम में दिल ही नहीं लग रहा था। वजह बस एक थी। मेरी दुनियाँ बसते – बसते उजड़ रही थी। पता चला सलमा का भी उधर बूरा हाल था। उसे तो इतना बड़ा सदमा पहुंचा था इस खबर को सुनकर वह जो एकबार अपने कमरे में घुसी तो मानों वह वहीं दफन हो गयी। एकाध घड़ी के लिए भी वह बाहर नहीं निकली। घर के लोगों ने उसे उसके हाल पर ही छोड़ देना बेहतर समझा। पता नहीं वह कहीं कुछ ऐसी – वैसी न कर बैठे। बिल्ली के पेट में घी भले ही पच जाय, लेकिन कहते हैं कि औरत के पेट में बात नहीं पचती। हुआ भी वही जिसकी कल्पना मुझे नहीं थी।
कर्नल साहब के घर से निकलकर बाहर जाने भर की देर थी कि लोग चूहों की तरह अपने-अपने बिलों से निकलकर आपस में कानाफूसी करने लगे।
दूर से देखा दादाजी मुस्कुरा रहे थे। मैं उनके सिरहाने बैठ गया और उन्हीं से पता चला कि हिन्दुस्तान-पाकिस्तान बंटवारे के वक्त दोनों मुल्कों में दंगा भड़क गया । लूट- पाट और कत्लेआम शुरू हो गयी । पेशावर भी अछूता नहीं रहा। इस घर को हमने औने -पौने दाम में खरीदकर अपने कब्जे में कर लिया । सुजान सिंह सपरिवार घर-बार छोड़कर अपने मुल्क भाग खड़े हुए थे। उनके हाथ में जान-माल बचाने के लिए बहुत ही कम वक्त था। फिर आगे क्या हुआ जानने के लिए मेरी उत्सुकता बढ़ी। दादाजी बोले, जब हम मकान में दाखिल हुए तो सभी कमरे खुले मिले। सामान इधर-उधर बिखरे पड़े हुए थे। हमारे गुशलखाने की छिटकिनी बाहर से लगी हुई थी।
नॉर्मली गुशलखाने के दरवाजे में बाहर से छिटकनी नहीं लगी होती , लेकिन हमारे में थी | सुजाज सिंह का परिवार बड़ा था | कोई भीतर दाखिल है कि नहीं – यह जानने के लिए दरवाजे के पास जाना पड़ता था और ठेलकर देखना पड़ता था | छिटकिनी बाहर से लगा देने के बाद दूर से ही पता चल जाता था कि अन्दर कोई नहीं है | छिटकिनी खुली रहने पर दूर से पता चल जाता था कि अन्दर कोई जरूर है | सुजान सिंह ने अपने परिवार के सदस्यों की सुविधा के लिए बाहर से छिटकिनी लगवा दी थी |
जब मुझे हाजत लगी तो मैं छिटकिनी खोलकर अंदर दाखिल हुआ तो देखा एक औरत बेजान फर्श पर पड़ी हुई है। मैंने उसे उठाया और उसके चांद से खुबसूरत चेहरे पर ठंढ़े पानी का छींटा मारा तो उसने धीरे – धीरे अपनी आंखे खोलनी शुरू कर दी। परिवार के बाकी लोग भी आ गये और हमें घेर कर नजारा देखने लगे। वह बहुत घबरायी और डरी हुई थी। उसमें उतना दम ही न था कि वह चीखे – चिल्लाये | पता चला किसी ने भूल से बाहरवाली छिटकिनी लगा दी थी। वह अंदर फंसी की फंसी रह गयी। हमने अच्छी तरह से उसका ईलाज करवाया ओर अपने घर में बाईज्जत फूल की तरह सहेजकर रखा | जब वह स्वस्थ हो गयी तो हमने उससे उसकी ईच्छा जाननी चाही।
हम उसे सुरक्षित उसके घरवालों के पास पहुंचा देना चाहते थे। मेरे अब्बाजान की सख्त हिदायत थी कि जिसकी अमानत है, उसे बाईज्जत लौटा दी जाय। बच्ची को एक खरोंच भी नहीं लगनी चाहिए।
दूसरे दिन खबर आई कि दरिन्दों ने सुजान सिंह की दौलत लूट ली और सपरिवार उनकी बेरहमी से क़त्ल कर दिया | मेरे वालिद ने सब कुछ साफ-साफ उस औरत को बुलाकर बता दी – यहां तक कि अखबार में छपी तस्वीर और खबरों को भी दिखा दिये गये ताकि उसे पूरी तरह यकीन हो जाय।
घर में अब तो एक बड़ी भारी समस्या खड़ी हो गयी कि क्या किया जाय, क्या नहीं। एक गैर बिरादरी व मजहब की जवान औरत को घर में पनाह देना, ऐसे वक्त में, हमारे लिए एक बड़ा ही मुश्किल काम था। अब्बाजान ने सब कुछ खुदा के रहमोकरम पर छोड़ दिया। उन्हें खुदाये ताला पर यकीन था।
जब अब्बाजान ने उससे उसकी इच्छा जाननी चाही कि वह अपना मुल्क जाना पसंद करेगी या यहीं रहना चाहेगी। उसने बिलखते हुए अपनी बात रखी, ‘‘अब तो मेरा सब कुछ खत्म हो चुका है, आप ही मेरे अपने हैं-आपने मेरी जान बचाई – इतना प्यार व मोहब्बत दिया है। मेरी दिली ख्वाहिश है कि मैं आप सबों के साथ ही अपनी जिन्दगी गुजार दूँ।
फिर क्या था अब्बाजान ने मेरी शादी बड़े ही धूम-धाम से उस पंजाबन से करवा दी। बेटे ! उसने इस परिवार की तरक्की के लिए दिलोजान से मेहनत की है। बच्चों-बच्चियों को अच्छे संस्कार ही नहीं बल्कि अच्छी तालिम भी दी। एक तरह से हम उनके कर्जदार हैं । वह औरत कोई और नहीं तुम्हारी दादी हैं – उनके संस्कार के अनुसार भाई-बहन चाहे चचेरे,मौसरे,ममेरे ही क्यों न हो – आखिर खून तो एक ही होता है | उनके मजहब में इस किस्म के रिश्ते वर्जित है. उनकी हम बहुत इज्जत करते हैं | ताजिन्दगी मैंने उसे हरबिंदर (उनका माँ –बाप का दिया हुआ नाम ) कहकर ही बुलाया , शाहिदा नहीं | इसलिए शादी नहीं हो सकती। अब तो समझ में आई कि उन्होंने सलमा से तुम्हारी शादी का क्यों विरोध किया था ?
मैंने देखा बगल में कर्नल साहब खड़े – खड़े हमारी बातें सुन रहे थे। उनकी आंखें भी नम हो गयी थीं । वे आंसुओं को रोकने की कोशिश कर रहे थे और में अपनी नादानी पर तरस खा रहा था। मैं दौड़ा-दौड़ा दादीजी के पास चला गया, वह अब भी हुक्का पी रही थी। मुझे देखते ही हुक्के को दरकिनार करते हुए मुझे बगल में बैठा ली। प्यार से मेरे माथे को चुमा और ढ़ेर सारे आशीर्वाद दे डाले। मेरा सिर उनकी गोद में पड़ा था और वह मेरी आंखों में अपना अतीत तलाश रही थी | मुझे वहीं से छिटकिनी दिखलाई पड़ रही थी| मुझे आव सुझा न ताव मैंने हाथ में हथौड़ी ले ली ओर गुसलखाने की ओर बढ़ गया | अब भी वह छिटकिनी वहीं पर थी – बेमतलब – बेवजह | मैंने छिटकिनी निकालकर फेंक देने के लिए ज्योंहि हथौड़ा उठाया कि त्योंहि दादाजी ने मेरा हाथ झटके से पकड़ लिया. हथौड़ा छीनकर छत की ओर फेंक दिया | मैं तो हक्का- बक्का रह गया ओर सवाल दाग दिया ( मुझे ऐसा सवाल पूछना हमारे घर के कायदे के खिलाफ थी ) , ‘ ऐसी क्या वजह थी आपने मुझे छिटकिनी तोड़ने से रोका ?’
सुनना चाहते हो , तो सुनो . इसी छिटकिनी की वजह से हरबिंदर , तुम्हारी दादी , मुझे मिली , वरना तुम दुनिया में कैसे आते ? इसी की रात-दिन की मेहनत – मशक्क़त से तुम लोगों नें अपनी – अपनीं मंजिल हासिल की. मुझे दादाजी के कहने का मतलब अब तक समझ आ गया था. कोई मेरे बालों को सहला रहा था | पीछे मुड़ा तो देखा दादीजी थी | मैं इस बात से हैरान था कि वह जब इतना प्यार व दुलार मुझे करती है तो दादाजी को कितनी करती होगी ? मैंने अपना इरादा तुरंत बदल दिया और अपनी जिद को उसी वक़्त थूक दी | सलमा का हाल उधर बेहद बूरा था | मैं बाईक लेकर बिना देर किये चाचाजान के यहाँ पहुँच गया | सलमा मिल गयी | मैंने उसे सारी बातें सच-सच बता दी | तबतक चचाजान और चाचीजान भी आ गये | चाचीजान तो हत्प्रभ थी मेरी बातें सुनकर , लेकिन चचाजान बेहद खुश नजर आ रहे थे | वे अपने दिल की खुशी को रोक नहीं पाए , मेरे करीब आये और मेरी पीठ थपथपाते हुए बोल पड़े , “ सबसे पहले मैं अम्माजान का शुक्रगुजार हूँ – उनकी सोच का कायल हूँ , जिसने बिगड़ते हुए रिश्ते को बचा लिया | चलो हम चलते हैं | वे मेरी बाईक को एक पल भी बर्बाद किये घर की ओर मुड़ने के लिए हुक्म दे डाली | दादीजी सामने ही मिल गयी. चचाजान उनके पाँव छूने ही जा रहे थे कि दादीजी ने उन्हें गले से लगा लिया | देखा , दादाजी इस दृश्य ( माँ – बेटे के मिलन ) को पचा नहीं पा रहें हैं | फूट पड़े , “ जरा सोहेल ( मेरा पूकार – नाम जिसे दादीजी ने ही मुझे दिया था ) को भी एक लम्बा – सा बोसा दे दो ’’| दादीजी के पास किस बात की कमी थी , उसने मुझे एक लम्बा – सा ( कुछ ज्यादा ही ) बोसा दे डाली |
मुझे मौका ही न मिला कि … ? देखा अम्मीजान मिठाईयों से भरी हुयी थाली लेकर सामने से आ रही है | आज दादीजी ने एक नहीं दो – दो मिठाईयाँ , वो भी दोनों हाथों में , उठाकर खा रहीं थीं | कभी एक हाथ से तो कभी दूसरे हाथ से | हमें भी होश कहाँ था ! हम भी तो आज दोनों हाथों से मिठाईयां खा रहे थे |
लेखक : दुर्गा प्रसाद ,
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