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No Money for IIT Admission

Published by Durga Prasad in category Hindi | Hindi Story | Social and Moral with tag admission | engineer | IIT | money

At a very crucial time when I needed five thousand rupees for my son’s admission in IIT, I wasn’t able to think of anyone who can give me this amount. Read Hindi story…

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Hindi Short Story – No Money for IIT Admission
Photo credit: mvictor from morguefile.com

जब मेरे पास आई. आई. टी. में एडमिसन कराने के पैसे नहीं थे

यह बात १९९४ की है जब मेरे बड़े लड़के श्रीकांत ने आई. आई. टी. में दाखिला के लिए चुन लिया गया था . इसका ए. आई. आर. १५८७ था. खडगपुर आई. आई. टी. में दाखिला होना था. कम से कम पांच हज़ार रूपये का जुगाड़ करना था क्योंकि मेरे पास मात्र दो-तीन सौ रूपये ही थे. अपने सगे- संबंधी में कोई आदमी नज़र नहीं आ रहा था जो मांगने पर मुझे पांच हज़ार उधार दे सके. मैनें बहुत दिमाग दौड़ाया, लेकिन कोई ठोस आदमी दिखाई नहीं दिया. बुझे मन से ऑफिस निकल गया.

बोस साहेब (श्री एस. के. बोस, डेपुटी चीफ इंजीनियर, वाशरी कंस्ट्रक्सन डिविजन, कोयला भवन, बी. सी. सी,एल., धनबाद) ने किसी काम से मुझे अपने चेंबर में बुलाया. वे खाली बैठे थे निश्चिन्त. मेरे मन में एक बात कौंध गई क्यों न बोस साहेब से इस सम्बंध में बात की जाय. बात करने पर वे नट गए और बोले , “ना बाबा ना , हम पैसा नहीं दे सकता.”

इतना कहकर वे उठकर कहीं चले गए. मैं आकर अपने कामों में व्यस्त हो गया. शनिवार का दिन था. ऑफिस हाफ डे डेढ़ बजे तक ही होती थी. डेढ़ बजने में देर नहीं लगी . एक-एक कर सभी लोग जाने लगे. ऑफिस धीरे-धीरे खाली होने लगी . राय साहेब ने पास आकर पूछा,” प्रसाद साहेब क्या घर जाने का इरादा नहीं है?”

“कुछ काम है, थोड़ी देर बाद निकलूंगा.” मैंने जबाब दिया.

मेरे दिमाग में उथल-पुथल हो रही थी कि आखिर क्या किया जाय. मेरे दिमाग में एक बात सूझी कि बोस साहेब को फिर से आग्रह किया जाय, हर्ज ही क्या है. दिल के बहुत साफ़ आदमी हैं कन्विंस करने से हो सके कुछ दिनों के लिए पांच हज़ार दे दे. दो बज गए , बोस साहेब का कहीं अता-पता नहीं. बनर्जी साहेब, सेक्रेटरी टू सी.जी.एम.( डब्लू. सी. डी. ) से पता चला कि वे सी. एम. डी. मीटिंग में हैं ,आने में देर हो सकती है. मुझे तिवारी साहेब , कोलियरी मैनेजर एवं मेरे परम मित्र की एक बात याद आ गई कि इंसान को कभी हार नहीं माननी चाहिए, चाहे कितनी भी विषम परिस्थिति क्यों न हो. बात मुझे लग गयी. और मैं सीधे बोस साहेब का बंगला चला गया. काफी तेज धूप थी. बाहर चबूतरा बना हुआ था. उसी पर बैठ कर उनका इन्तजार करने लगा. वक्त तीन के करीब हो रहा था. भूख- प्यास भी जोर से लगी हुई थी. लेकिन निरुपाय था. उठकर जाना ठीक नहीं था. थोड़ी देर बाद ही बोस साहेब मेरी ओर आते हुए दिखाई दिए.

“ दुर्गा प्रसाद, तुम इतनी गर्मी में बाहर बैठा है, क्या बात है ? कुछ खाया – पीया कि नहीं?चलो, चलो , भीतर चलो. “

मेरा हाथ पकड़ कर घर के भीतर ले गए. अपनी पत्नी की ओर मुखातिब हो कर बोले, “ कत खन् थेके दुर्गा प्रसाद बायीरे बसे आच्छे, किछु खेते दाव “

बो दिदी एक प्लेट में स्वीटस व नमकीन तुरंत ले आई जैसे पहले से ही सब कुछ जानती हो. उसी दिन मुझे एहसास हुआ भूख – प्यास क्या चीज होती है. भूख तो किसी तरह रोकी जा सकती है, लेकिन प्यास नहीं. मुझे प्यास जबरदस्त लगी हुई थी. एक- दो पीस मीठा खाने के बाद भर पेट पानी पीया. तब जा कर जान में जान आई.

“ मैं तुरंत आकर खाना नहीं खाता, थोड़ी देर सुस्ता लेने के बाद ही “ कहकर बोस साहेब मेरे पास बैठ गए. क्या बात है, सबकुछ ठीक-ठाक है ना ?”

“मुझे पांच हज़ार रूपये आप से लेनी है, तभी मैं यहाँ से जाऊंगा. लड़के को आई. आई. टी, खडगपुर में एडमिसन करवानी है. आप मेरी मदद कर सकते हैं, इसलिए मैं बड़ी उम्मीद के साथ आप के पास आया हूँ. “

“तो तुम आखिर नहीं मानोगे, पैसे लेकर ही जावोगे ?” उन्होंने मेरे कंधे पर बड़े ही प्यार से अपनी वही स्टाईल में हाथ फेरते हुए मुड़े – आलमारी खोली , चेक –बुक निकालकर मेरे पास ही बैठ गए और पूछ बैठे , “कितना , चार हज़ार ही न ?”

मैंने हाँ कर दी और उन्होंने चेक साईन कर मेरे हाथ में वीश करते बड़े ही प्यार से थमा दी . बेंक चले जाओ, मेनेजर से मेरा नाम बोलना आज ही पैसा मिल जायेगा. मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था. मैं शीघ्र बेंक आ गया. मैनेजर से मिला और सारी बातें बताईं. मैनेजर आई. आई. टी. में लड़के का कम्पीट करने की बात सुन कर बहुत खुश हुआ और मुझे चार हज़ार रूपये देने का ऑर्डर कर दिया. कैश बंद हो चूका था, फिर भी पैसे दे दिए. मैंने धन्यबाद दिया तो वे मुखर उठे,

“ मिस्टर प्रसाद, मदद करने के ऐसे मौके हमें बहुत कम ही मिलते हैं.आई. आई. टी. जैसी संस्थान में आप का बेटा पढ़े व इंजीनियर बन कर निकले – इससे बड़ी बात क्या हो सकती है ?”

धन्यबाद में मेरा हाथ दुबारा उठा. मैं बाहर निकला और घर चला आया. पत्नी ने पूछा, “ क्या पैसों का इंतजाम हो गया ? “ मैंने “हाँ”में सिर हिला दिया.

दूसरे महीने ही मैं मिठाई लेकर बोस साहेब के बंगले पर गया . संडे का दिन था और शुबह का वक्त. देखते ही बोल उठे , “ लड़का का एडमिसन हो गया क्या ?” “

“उसी पैसा से हो गया. चार हज़ार है रख लीजिए वेतन मिला तो सोचा सबसे पहले आप का पैसा लौटा दूँ. यह स्वीट्स है – खुशी में – खडगपुर से लाया हूँ. कल ही रात को लौटा एडमिसन करवा के. लड़के को एक बाईसिकल भी खरीद दी. जाते के साथ होस्टल में रूम मिल गया.”

बोस साहेब खुद बी.टेक इलेक्ट्रिकल थे. उनको क्या समझाना था.

जब भी किसी काम से कोयला भवन जाता तो उनसे जरूर मिलता तो वे लड़के का समाचार अवश्य पूछते. मैं बोस साहेब का शुक्रगुजार था कि मुझे बूरे वक्त में मदद की थी. एस. चट्टोपाध्याय सी. जी. एम. के बाद वाशरी में वे ही सीनियर मोस्ट अधिकारी थे. हमलोग एक साथ बैठकर बहुत सारे काम किया करते थे. मैं उनका आदर करता था तथा वे भी मुझे दिल से प्यार करते थे. मैं उनके दिए हुए काम को लगन से कर दिया करता था.

मेरे लड़के का दाखिला हो गया बड़े ही आराम से उतने ही पैसों में और वह इंजीनियर बन कर एक अच्छी नोकरी भी पकड़ ली.

बोस साहेब के बारे पता चला कि वे कलकत्ता में अपना घर बना लिए हैं – परिवार के साथ सुखपूर्वक रहते हैं. कुछ दिनों के बाद मैं वाशरी डिविजन गया तो मुझे खबर मिला कि बोस साहेब अब इस दुनिया में नहीं रहे- छत से अचानक गिरने से उनकी मौत हो गई. सुनकर तो मेरे पैरों तले की जमीन खिसक गई. बहुत दु: ख हुआ, लेकिन होनी को कौन टाल सकता है. भगवान के घर में भी अच्छे लोगों की बुलाहट होती है – बड़े-बुजर्गों की यही धारणा है जो सदियों से चली आ रही है.

आज बोस साहेब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी यादें अब भी कभी-कभी जीवंत हो उठती हैं और तब मेरे लिए कठिन हो जाता है अपने आंसूओं को रोकना. सोचता हूँ अच्छे लोग इस दुनिया में आते हैं और कुछ दिनों के बाद असमय हमें छोड़ चले जाते हैं और हम ताजिंदगी उनकी याद में रोते-विलखते रहते हैं. यही तो है अनबुझ पहेली जिसे आज तक किसी ने नहीं समझ सका. नियति की प्रकृति के सामने इंसान का कोई बस नहीं चलता.

(लेखक : दुर्गा प्रसाद, निवर्तमान वरीय वित्त पदाधिकारी . २८ जून २०१२ को लिखी गई)

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