This Hindi story is based on a real life incident which shows how people travelling in special trains are so much insensitive towards happenings taking place around them.
उस दिन 17 मार्च दुरंतो एक्सप्रेस जो दिल्ली से रात १०:५० में खुलती है, से मैं मुंबई जा रहा था। मेरी दो सीटें थी , एक साइड लोअर और दूसरी upper . साइड लोअर पर मेरी बेटी अपने दो साल के छोटे बच्चे के साथ थी। मेरी सीट ऊपर वाली थी जिसपर मुझे सोने जाना था। सेकंड ऐ सी की लोअर सीट औरतों को बच्चों के साथ यात्रा करने के लिए ज्यादा उपयुक्त होती है। इसलिए मैं नीचे की बर्थ पर किसी के आने का इन्तजार कर रहा ताकि विनम्रता पूर्वक अनुरोध करके लोअर बर्थ वाली सीट से मैं अपनी ऊपर वाली बर्थ की सीट बदल सकूँ। एक तरफ के लोअर बर्थ पर एक बुजुर्ग जैसे ब्यक्ति आकर बैठे थे। उनसे मैंने सीट के बदलने का अनुरोध किया , किन्तु उन्होंने यह कहते हुए कि उनके साथ बहुत लोग हैं , जो डूसरी बोगी में हैं , जरा एडजस्ट हो जाने दीजिये , फिर देखता हूँ , लगभग टाल दिया था। बस आखिरी उम्मीद नीचे की और बर्थ पर टिकी थी जिसके यात्री आने बाकी थे। ट्रैन खुलने के मात्र १० मिनट पहले एक सत्तर वर्ष के आसपास के बुजुर्ग जो संभवतः सामने वाले बुजुर्ग की ही मंडली के होंगे लगभग हांफते हुए – से बोगी में प्रवेश किये। उनको देखकर मैं लोअर बर्थ के बदल लिए जाने से निराश होते हुए सामने वाली साइड लोअर बर्थ पर चला गया। सीट पर बैठते हुए ही वे बुजुर्ग धीरे – धीरे लेट गए , लेटने में सामने वाले बुजुर्ग ने भी उनकी थोड़ी मदद की। उनकी सांसें काफी तेज चल रही थी। थोडा गले में घरघराहट जैसा भी लग रहा था। उनका बायाँ हाथ छाती पर और दायाँ हाथ सीट से थोड़ा लटक सा गया। मुझे किसी अनजानी , अनहोनी के घटित होने की आशंका – सी होने लगी। हालाँकि सामने की बर्थ पर बैठे बजुर्ग ने थोड़ी अन्यमन्यस्कता से ही अपनी मंडली के सदस्य होने के कारण लेटने में मदद अवश्य की। पर तुरंत ही दूसरी बोगी में अन्य सदस्यों को खबर दी। .”मामा की तबियत बहुत ख़राब हो गयी लगती है , जल्दी आ जाओ।“
इसके बाद एक या दो नौजवान जैसे लड़के आते हैं , अपने मामाजी को संज्ञाशून्य से पड़े देखते है। सामने वाले बुजुर्ग ने ‘मामाजी’ की कलाई पर हाथ रखकर देखा तो उनके चेहरे का भाव बदलने लगा। तब तक ट्रैन छूट कर गति पकड़ते हुए आधा घंटे चल चुकी थी। अब दो चार और नौजवान जैसे लड़के आये और घर पर , जहाँ भी उनका घर हो फोन लगाने लगे। गाड़ी तेज गति से दिल्ली से दूर भागी जा रही थी। सामने ऊपर वाली बर्थ पर बैठी एक लड़की को भी कोई अनहोनी की आशंका हुई और वह नाक – मुंह दबाये दूसरी तरफ के साइड लोअर बर्थ पर वहां के यात्री से अनुरोध कर बैठ गयी। जो यात्री रात को ऐ सी बोगी में चढ़ते हैं , वे जल्दी – से – जल्दी कम्बल , चादर ओढकर निद्रा देवी कीगोद में चले जाने की जुगत में रहते है , ताकि ऐ सी का पूरा आनंद लेते हुए पूरा पैसा वसूल कर सकें। उनकी इस मंशा में अच्छा – खासा खलल पड़ गया था। सभी मन – ही – मन जरूर कोस रहे होंगे , ” कहाँ से ऐसा आदमी चढ़ गया, आज ही इसे यात्रा करने थी , इसी ट्रैन से करनी थी, इसी बोगी में करनी थी , वगैरह , वगैरह….”
शायद जनरल बोगी होता तो अबतक सारे यात्री वहां जुट गए होते। अगर स्लीपर क्लास भी होता तो काफी लोग यह पूछने पहुँच जाते की ‘क्या हुआ?’ . लेकिन थर्ड ऐ सी , या सेकंड ऐ सी या फर्स्ट ऐ सी में और उसमें भी राजधानी य दुरंतो जैसी स्पेशल गाड़ियों में यात्री एक – दूसरे से कितने कटे – कटे रहते हैं , इसका प्रत्यक्ष अनुभव मुझे हुआ। वहां कोई भी यह पूछने नहीं आया कि ‘ क्या हुआ?’
अभी के समय में यह देखा जा रहा है कि आदमी का क्लास जैसे – जैसे बड़ा होता है यानि जनरल से थर्ड ऐ सी, 2nd और फिर फर्स्ट ऐ सी और फिर प्लेन में इकॉनमी क्लास, स्पेशल क्लास , फिर National Flight , इंटरनेशनल फ्लाइट आदि , वैसे – वैसे लोगों की संवेदनशीलता कम – कमतर होती जाती है। यानि गणित के सिद्धांत के अनुसार संवेदनशीलता और क्लास में विलोम का अनुपात होता है। और भी देखा गया है कि जनरल बोगी में लोग अपनी भाषा यानि dilect में बात करते हैं। ऐ सी तक आते – आते खड़ी भाषा के साथ अंगरेजी मिक्स करके बात करते हैं , और प्लेन में तो धरती छोड़ते ही अंगरेजी और अंग्रेजियत सवार होने लगती है। अपने को mass से अलग दिखने और दिखाने की ललक बढ़ जाती है। यह एक ट्रेंड सेट कर रहा है आज के ज़माने में। संवेदनहीन आदमी और पशु में क्या अंतर रह जाएगा। क्या दिनकर का यह कहा फिर से सही होता जा रहा है :
झड़ गयी पूंछ , रोमांत झड़े पशुता का झड़ना बाकी है ,
ऊपर – ऊपर तन संवर चुका , मन अभी संवरना बाकी है।
क्यों ऐसा नहीं लगता की जब धरती पर अपने गावों या अपने कस्बेनुमा शहर में होते हैं और अपनी भाषा बोलते हैं , अपने लहजे में खुद को ब्यक्त करते हैं , तो ज्यादा सहज और जमीन के करीब लगते है। किन्तु जैसे जमीन छोड़ प्लेन में पहुंचते हैं की लिबास और भाषा दोनों ही बदल जाती है।
अब अपनी डायरी के पन्ने की और लौटता हूँ। उस दिन भीऐसा ही हुआ। किसी भी यात्री को उनके करीबी लोगों से यह पूछने की हिम्मत नहीं हुई की ‘क्या हुआ बूढ़े बाबा को?’ जबकि सारे लोग अपने कम्बल में दुबके हुए सोने का स्वांग करते रहे। मुझसे जब नहीं रहा गया तो उनके एक रिश्तेदार नौजवान जैसे लड़के को ऐ सी बोगी के बाहर वाश बेसिन पास बुलाकर पूछा की क्या हुआ बूढ़े बाबा जी को? तो उसने जो कहा , ” लगता है मामा जी नहीं रहे ” मैं सुनकर सन्न रह गया। मैंने कहा की नियमानुसार आपको कंडक्टर ( टी टी ई ) को बुलाकर इसकी सूचना दे देनी चाहिए। वह रेलवे की मेडिकल टीम बुलवाकर अंतिम निर्णय लेगा। इसके करीब एक घंटे बाद एक स्टेशन पर ट्रैन रुकी। वहां मेडिकल टीम ने जाँच कर उन्हें expire declare किया और डेड बॉडी को वहीं उतार दिया गया। उस समय रात्रि के लगभग दो बज रहे होंगे।
हालाँकि उनको दिल्ली में ट्रैन में चढ़ते ही लगता है मैसिव अटैक हुआ था। वहीं चैन पुल्ल कर अगर उनको उतार दिया जाता और तुरत मेडिकल ऐड दिया जाता तो इतनी परेशानी नहीं होती। टी टी ई के अनुसार परेशानी और बढ़ जायगी। एक नयी जगह पर डेड बॉडी उतार दी गयी है। वहां पुलिस आएगी , पोस्टमॉर्टेम करवाने भी कह सकती है।
जब डेड बॉडी उतार दी गयी तब सभी यात्रियों की जान में जान आई। चलो भाई,, अब यहाँ से तो यात्रा निरापद संपन्न हो जाएगी। अब वह लड़की जो दूसरे तरफ की साइड लोअर बर्थ पर चली गयी थी , अपनी upper बर्थ पर जाकर सो गयी। मैं भी अपनी ऊपर की बर्थ पर सो गया। वह बर्थ जिसपर उनकी मौत हुयी थी मुम्बई तक खाली ही गयी।
—-ब्रजेंद्र नाथ मिश्र
JAMSHEDPUR- 831012.
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