आज अकेला मैं इस शहर में हूँ। सभी साथी पता नहीं कहाँ चले गये हैं? सभी कार्यकलाप सन्न हो गये हैं। मेरी स्वयं की छटा बिखर सी गयी है।
मैं १६ नम्बर की कोठी में रहता हूँ।मन झील की तरह हिलोरें खाता रहता है। रात को भयंकर सपने आते हैं।पर सुबह की धूप एक आशा जगा देती है। कोठी से नीचे उतरता हूँ और झील के किनारे बैठ कर पुराने और नये सपनों का प्रबंधन करता रहता हूँ। फिर वहाँ से उठकर डाकखाने जाता हूँ और घर से आये पत्र को पढ़ता हूँ। पत्र पढ़कर मन में शोक छा जाता है।
पत्र में खबर लिखी है कि सौरभ सिंह का देहांत हो गया है। आठ माह से बिस्तर पर ही थे। दिल्ली गये थे घूमने। एक बस ने घक्का मार कर उन्हें गिरा दिया। काफी चोट आयी। एक पैर काटना पड़ा। कुछ दिन बेटे के पास रहे फिर उसने उन्हें घर पहुँचा दिया। आठ महिने तक बिस्तर पर ही खाना पीना और साफ सफाई पत्नी और बहू किया करते थे।और सुनने में आया है कि वे इस सब से तंग आ चुके थे। और दोनों ने मिल कर उन्हें जहर पिला दिया था।
कुछ का कहना है कि अपनी दयनीय हालत देख, उन्होंने खुद ही जहर देने को कहा था। जहर रात को दिया गया था। पर रोना – धोना सुबह शुरू हुआ । रोना सुन, गाँव के लोग उनके घर पहुँचे। सब सांत्वाना दे रहे थे। तभी एक बुजुर्ग की नजर वहाँ गिरी शीशी पर पड़ी, उन्होंने सौरभ के घर वालों से पूछा सही सही बताओ, सौरव को क्या हुआ? नहीं तो पुलिस बुलाते हैं। ये हत्या का केस लग रहा है। पुलिस का नाम लेते ही, उन्होंने अपना जुर्म स्वीकार कर लिया।
कहा “ वे अवसाद ग्रस्त हो गये थे। बार-बार बोलते थे कि जहर दे दो। हम भी उनके गू – मूत से तंग आ गये थे। छि छि , थू थू की स्थिति हो गयी थी।”
जीवन जब घृणित और लाचार स्थिति में पहुँच जाता है तो अक्सर सबकी सहानुभूति खो देता है। गाँव वालों ने कोई कार्यवाही नहीं की, अत: बात यों ही दब गयी और दाह संस्कार कर दिया गया।मुझे अपने बचपन में देखे , सौरभ सिंह के ठाट बाट और रौब दार व्यक्तित्व की याद आ गयी।चुस्त दुरुस्त शरीर। बच्चों को पढ़ाने बीस किलोमीटर दूर किसी पिछड़े इलाके में जाया करते थे।सुनने में आता था कि वे अनपढ़ लोगों से वहाँ एक चिट्ठी पढ़ने का एक रुपया लेते थे।
उन्हें जहर दिया गया या उन्होंने खुद जहर माँगा जीवन का यह कटु सत्य मुझे झकझोर गया। बहुत देर तक मैं इस घटना पर सोचता रहा।जिस पत्नी के साथ उसने अपार सुख-दुख काटे,उसी के हाथों , दयनीय, लाचर स्थिति में जहर! मैं धीरे धीरे झील की ओर चला और फिर महानगरपालिका पुस्तकालय की ओर मुड़ा। पुस्तकालय आने पर उसके अन्दर गया। रिक्तियों के लिए अखबार टटोले। कुछ समसामयिक संपादकीय पढ़े। देश के राजनैतिक माहौल का जायजा लिया।वहाँ बैठे लोगों से विचारों का आदान प्रदान किया।
आठ बजे पुस्तकालय से बाहर निकला और पास में रखे बैंच पर बैठ गया। और सोचने लगा कि एक समय ऐसा भी आया था जब मैं स्कूल जाना छोड़ ,आधे रास्ते से लौट गया था। पढ़ने का मन नहीं था। अपने बचपन की शैली का जीवन जीना चाहता था। उन लोकप्रिय गीतों की धुनों में खो जाना चाहता था। जैसे
“ बैड़ु पाको बा र मासा,
नरड़ काफल पाको चैता,
मैरी छैला..”
या
“स्वर्गी तारा,
य जुनाली* रा त,
को सुण ल, को सुण ल
मेरी तेरी बा त …।”
तब इस प्रकार के प्राकृतिक और रोमानी गीत जनजीवन से जुड़े रहते थे। मैंने आसमान को देखा और अपने अकेलेपन में साहस और उत्साह की तलाश करने की चेष्टा की।
उन दिनों मैं रोज डाकघर जाता और रोजगार सम्बंधी पत्र की उम्मीद में रहता। लगभग आठ महिने मैंने यों ही बीता दिए। हर दिन को कुरेदता लेकिन परिणाम कुछ भी नहीं। आठ महिने बाद मानो बिल्ली के भाग से छिका टूटा और एक साक्षात्कार पत्र के दर्शन हुए। लगभग एक फीट बर्फ गिरी थी। मैं उसी बर्फ में निकला और इंटरव्यू देकर वापस आ गया। इंटरव्यू के बाद मुझे संकेत मिला था कि मेरा चयन हुआ है और मैं बहुत खुश था। अब मैं बिना तनाव काफी हाऊस में चाय पीता था। जो साथी मिलते उनके साथ उन्मुक्त हँसी हँसता। लेकिन जब बीस दिन तक कोई नियुक्ति पत्र नहीं मिला तो मैं अधीर होने लगा। मैं बिना नियुक्ति पत्र की प्रतीक्षा किये, निकल पड़ा। वहाँ जाकर पता चला नियुक्ति पत्र तब तक वहीं कार्यालय में पड़ा है। ऐसा लगा जैसे कुछ लोगों के पास बहुत काम है, कुछ के पास काम ही नहीं, कुछ लापरवाह या काम से विमुख हैं।
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* महेश रौतेला, ओएनजीसी, अहमदाबाद
* जुनाली : चाँदनी जून : चाँद