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Chouthi roti ka gadit

Published by Narendra Sharma in category Hindi | Hindi Story | Social and Moral with tag children | questions

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Hindi Story – Chouthi roti ka gadit
Photo credit: gbh from morguefile.com

“चौथी रोटी का गणित का क्या अर्थ होता है पापा?” अन्तरा, मेरी बारह वर्ष की पोती मेरे बेटे अभ्यंकर से पूँछ रही थी.

‘शाम को बताऊंगा बेटा. अभी मुझे आफ़िस जाना है. और तुम्हें भी तो स्कूल के लिए देर हो रही है ना.’ मेरे बेटे ने कहा.

“ठीक है पापा. लेकिन आप किसी और से इस प्रश्न के बारे में बात नहीं करना. अपने आप से ही मेरे प्रश्न का उत्तर देना.”

आजकल के बच्चे भी कैसे-कैसे प्रश्न पूछते हैं. ऐसा नहीं कि गए ज़माने में बच्चे प्रश्न नहीं पूंछते थे. मुझे आज भी याद है, अभ्यंकर जब छोटा था तो कैसे प्रश्न पूंछता था. चार वर्ष की उम्र में उसने एक दिन पूंछा था, “तारों को कौन निहलाता है डैडी?” और उसने उस प्रश्न का उत्तर भी एक और प्रश्न के रूप में स्वयं दे दिया था, “उनकी मम्मी ना?” प्रत्येक माता-पिता जानते हैं कि बच्चों की जिज्ञासा असीमित होती है. शायद वो हमेशा इस जिज्ञासा को अपनी चरम सीमा तक ले जाना चाहते हैं. मुझे भी अभ्यंकर के अगले प्रश्न का इंतजार था. “तारों की मम्मी कहाँ रहती है डैडी. वो दिखाई क्यों नहीँ देती?”

बच्चों का मन कितना सरल होता है. उनकी दुनिया उनके इर्द-गिर्द घूम रही घटनाओं, दैनिक दिनचर्याओं और उनके साथ रह रहे किरदारों तक सीमित रहती है. उस दुनिया को बच्चे स्वाभाविक रूप तथा अपने अनुभव के आधार पर समझते हैं. किन्तु उनका जिज्ञासू मन उन्हें उस सीमा से बहार ले जाता है, जहाँ नैसर्गिक रूप से नए प्रश्न उनके सामने आते हैं. नए प्रश्नों तथा उन प्रश्नों के उत्तर बच्चे अपनी दुनिया के समरूप तथा अपनी दुनिया के साथ एकीकृत कर देते हैं. एक सच्चे पारखी की तरह, जिसके विचार शुद्ध तथा किसी भी मिलावट से कोसों दूर होते हैं. किसी वैज्ञानिक की तरह, जो अपने अवलोकन को अपने किसी सिद्धांत के आधार पर परखते हैं. किसी ऐसे शोधकर्ता की तरह जो अपनी खोज से लोगों को अचंभित कर दे.

बच्चे केवल नैसर्गिक प्रश्न ही नहीं पूंछते, अनेक प्रश्नों के उनके उत्तर भी बच्चों में छुपी हुई रचनात्मकता का बोध कराते हैं. बाल गणेश की रचनात्मकता इसका चरम उदाहरण है. उन्होंने ब्रह्माण्ड की एक नई परिभाषा अपने माता-पिता के रूप में दे दी.

बच्चों की योजनात्मक एवं मंत्रणाकारी क्षमता भी अनेक बार अचंभित करती है. अभ्यंकर जब तीन वर्ष का रहा होगा, एक दिन मैं और मेरी पत्नी अभ्यंकर तथा अपने छोटे बेटे मंथन के साथ एक बाजार में घूम रहे थे. मंथन, जो उस समय एक वर्ष से कुछ ऊपर था, मेरी गोदी में था. कुछ समय के पश्चात् अभ्यंकर ने मुझ से कहा, “डैडी, मंथन को मम्मी को दे दो”. में कितना खुश हुआ था उस समय कि अभ्यंकर मेरा कितना ध्यान रखता है. और जैसे ही मैंने मंथन को अपनी पत्नी को दिया, अभ्यंकर मेरे आगे आकर अपनी बाहें फैलाकर खड़ा हो गया. कितने सुनियोजित रूप से अभ्यंकर ने अपने लक्ष्य को प्राप्त किया!

अपने विद्यार्थी जीवन के प्रारंभ में मैंने अंक गणित और बीज गणित का अध्ययन किया था. हर वो व्यक्ति जो औपचारिक रूप से माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करता है, निश्चित रूप से इन दो प्रकार के गणित का अध्ययन करता है. मैंने उच्च गणित का भी औपचारिक अध्ययन किया है जिसमें गणना (कैलकुलस), असली बीज गणित (रियल अलजबरा), गणित सार (अब्स्त्रक्त मैथमेटिक्स), आदि और अनेक अन्य नाना प्रकार के गणित शामिल हैं. गणित का गणित रखना भी एक रसहीन कार्य है. किन्तु चौथी रोटी का गणित? और पहली तीन रोटी का क्या? क्या पांचवीं रोटी की भी बात करनी होगी, क्या उसकी कोई महत्ता है? हे प्रभु, मैं भी किसी वैज्ञानिक की तरह सोचने लगा. या सच कहूँ, तो अंतरा की तरह. कितना अच्छा लगता है बच्चों की तरह सोचना. मन बस एकदम से मासूम हो जाता है.

संसारिक जीवन में हम सब एक-दूसरे से किसी ना किसी प्रकार से जुड़े ही रहते हैं. इस सन्दर्भ में हम सब जाने-अनजाने एक प्रकार के समाजिक गणित को सीख लेते हैं. व्यावहारिक लेन-देन में समाजिक गणित का उपयोग प्रछन्न रूप में करते हुए हम समाज में अपने साख-सम्बन्ध और अपनी रिश्तेदारियां बनाये-निभाए चलते हैं. किसने किसके विवाह में क्या व्यवहार दिया? अब प्रत्यर्पण में वो व्यवहार किस प्रकार दिया जाएगा? यदि प्रत्यर्पण विवाह न हो कर जन्मदिन होगा, तो व्यवहार का रूप अथवा आर्थिक स्तर क्या होगा? प्रत्यर्पण यदि लम्बे समय के पश्चात् होगा, तो क्या व्यवहार के आर्थिक स्तर का नियमन किया जाएगा? यदि हाँ, तो कितना और किस प्रकार? क्या इस प्रत्यर्पण में समाजिक स्तर की भी भूमिका होती है? सोचने में समाजिक गणित कितना कठिन लगता है. किन्तु व्यावहारिकता में यही गणित औपचारिक गणित से कहीं अधिक सरल हो जाता है. यहाँ तक कि व्यावहारिक स्तर पर महंगाई भत्ते का गणित भी समाजिक गणित से कहीं अधिक जटिल लगता है.

मैं यह सब क्यों सोच रहा हूँ? अन्तरा ने तो चौथी रोटी का गणित वाला प्रश्न अभ्यंकर से पूंछा है. किन्तु मेरी आपबीती मुझे इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए प्रेरित कर रही है. मैं जानता हूँ कि अभ्यंकर इस प्रश्न का उत्तर नहीं देगा. शाम को वह अन्तरा को मेरी ओर भेज देगा और कहेगा, ‘बेटा में बहुत थक गया हूँ. तुम इस प्रश्न का उत्तर अपने दादाजी से पूंछ लो.’

एक और बात. अन्तरा ने अभ्यंकर से क्यों कहा कि ‘चौथी रोटी का गणित’ के बारे में वह किसी से भी बात न करे? क्या वो किसी उपस्थापन अथवा किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता के लिए तय्यारी कर रही थी? वो भी इतने गूढ़ प्रश्न पर? वो यदि मुझसे इस प्रश्न पर कुछ बात करेगी तो मुझे क्या कहना चाहिए? शाम होने में अब अधिक समय नहीं है. समय का आभाव मेरे मन को व्याकुल कर रहा है. मुझे शांत चित्त से इस प्रश्न के बारे में सोचना चाहिए.

क्या किसी जगबीती से मुझे ‘चौथी रोटी का गणित’ प्रश्न का उत्तर मिलेगा? मैं शायद सही दिशा में सोच रहा हूँ. मुझे शायद उस कहानी को व्यवस्थित तरह से सोचना होगा जिसमें एक रोटी के चार टुकड़ों ने एक परिवार को असीम सुख की अनुभूति दी. यूँ तो इस कहानी को एक रोटी की कहानी कहा जा सकता है, किन्तु मैं अपने ध्येय को ध्यान में रखते हुए इसे चौथाई रोटी का गणित कहूँगा और इसे चौथाई रोटी की कहानी का नाम दूंगा.

चौथाई रोटी की कहानी कुछ इस प्रकार है. एक परिवार में चार प्राणी थे: फकीर, उसकी पत्नी, पुत्र एवं पुत्रवधू. पूरा परिवार अपनी फकीरी में मस्त, जहाँ से जो भी मिल जाये उसी में गुजर-बसर करता था. कहते हैं एक बार उस परिवार के पास खाने को कुछ भी नहीं था. कहीं से उस परिवार को एक रोटी मिल गयी. उस रोटी के चार टुकड़े करके वो अपनी कई दिनों की क्षुधा को शांत करने जा ही रहे थे कि उनके घर पर एक याचक आ गया. परिवार के पास याचक को देने के लिए एक रोटी के चार टुकड़ों के आलावा कुछ भी न था. याचक भी अत्यंत भूखा था. फिर कुछ यूँ हुआ कि परिवार के चारों प्राणियों ने उस याचक को बारी-बारी से अपने हिस्से में आई चौथाई रोटी दे दी. कहानी का अंत कुछ यूँ है कि उन चारों को अपने हिस्से की रोटी याचक को देने में जिस सुख की अनुभूति हुई, वो उन्हें उस रोटी के टुकड़े खा कर भी न होती. चौथाई रोटी के चार टुकडों ने याचक को भी पहली रोटी का सुख दिया.

क्या चौथाई रोटी का गणित और ‘चौथी रोटी का गणित’ में कोई सम्बन्ध ढूँढा जा सकता है? क्या इन दोनों के सम्बन्ध में समाजिक गणित तथा समाजिक स्तर की कोई भूमिका है? लगता है मैं पूरे प्रकरण को और अधिक जटिल बना रहा हूँ.

और फिर केवल बारह वर्ष की अन्तरा ने इन विचारों के आधार पर अपना निष्कर्ष किस प्रकार दो दिन के पश्चात् अपने विद्यालय की सभा में रखा, वह इंगित करता है कि बच्चे भी जटिल प्रश्नों के उत्तर सीधे एवं सरल शब्दों में दे सकते हैं. उसने कहा, “दो रोटी सबके लिए आवश्यक हैं. तीसरी रोटी केवल उन्हें चाहिए जो शारीरिक श्रम करते हैं. और चौथी रोटी? हमें अपने आप से पूंछना चाहिए कि हमें चौथी रोटी की आवश्यकता है क्या? क्यों न हम अपनी चौथी रोटी किसी और के लिए छोड़ कर उसको पहली रोटी का सुख दें?”

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