“आधे घंटे पैदल चलने में हालत खराब हो गई, बापू ने दांडी यात्रा कैसे पूरी कर ली….बाप आदमी था, इसलिए सब लोग बापू – बापू बुलाते होंगे…” – मेरा मोटापा बढ़ता जा रहा था, और उसको कम करने के लिए कुछ उपाय तो करना था, तो मैंने रोज़ पैदल ही काम पे जाने का फैसला किया….फैसला मेरा था, इसीलिए भुगतना भी मुझे ही था.
आज दूसरा दिन था, मेरी पद-यात्रा का….ऑफिस में सब लोग आश्चर्य में थे, की मैं पैदल ऑफिस कैसे आने लगा….पूरे ऑफिस में हल्ला मच गया….मेनेजर श्रीकांत वर्मा पैदल ऑफिस आने लगे हैं….ताकि मोटापा कम हो सके….लोगों ने dieting शुरू कर दी, मेरी मिसालें दी जाने लगी, की भाई जब वर्मा जी जैसा मेनेजर आदमी पेट कम करने के लिए पैदल चल सकता है, तो हम क्यों नहीं…..एक-एक करके सबने अपनी-अपनी गाड़ियों का त्याग कर दिया….जो २ कम तक के दायरे में रहते थे, वो भी पैदल आने लगे और जो दूर से आते थे, वो २ किलोमीटर पहल बस का त्याग कर देते और वहां से पैदल आने लगते…
मेरे प्रति मेरी स्टाफ की इतनी श्रद्धा देखकर, मेरा मन खुश हो गया….और मैंने महीने के अंत में अपनी ओर से सारे स्टाफ को डिनर पार्टी देने की सोची….सब लोगों में ख़ुशी की लहर दौड़ गई, महीने के अंत का सब लोग इंतज़ार करने लगे….इसी बीच अगले दिन जब मैं ऑफिस पहुँचता हूँ, तो देखता हूँ….आधा स्टाफ गायब….मैंने रिसेप्शनिस्ट से पूछा-
“आज कोई त्यौहार है क्या, काफी लोग आये नहीं…..”
” सर कुछ लोग दूर से आते हैं, तो पैदल आने में लेट हो जाते हैं. और कुछ लोगों के पैर मैं मोच आ गई है, पैदल चलने के कारण कुछ का पैर सूज गया है….”
२ बजे के करीब जब सारा स्टाफ मुझे दिखा….मैंने एक मीटिंग बुलाई….और सबको कहा— डिनर बस उन्ही लोगों के लिए होगा, जो बिना absent के टाइम पे ऑफिस आयेंगे…खबर सब में फ़ैल गई…. पूरे ऑफिस में हडकंप मच गया….
लोगों ने वापस अपनी-अपनी गाडी से आना शुरू कर दिया….मुझे समझ नहीं आ रहा था, कि ये लोग मुझे follow कर रहे हैं, या मेरे dinner को. मैं महात्मा गांधी की जीवनी ‘सत्य के प्रयोग’ पढ़ रहा था…मुझे समझ में आया…दुनिया चापलूसों से भरी हुई है….अपने को बदलने के लिए बड़ा परिश्रम लगता है.. मेरे आसपास का कोई आदमी अपने कारण बदलना नहीं चाहता. स्वार्थ के कारण, किया गया बदलाव….बदलाव नहीं है… आधे से ज्यादा स्टाफ जिसे मैं समझ रहा था, मेरे प्रति प्रेम है…वो अपने पुराने routine में लौट चुका था.. कैसे भी करके वो मुझे impress करना चाहते थे…सब वापस टाइम पर आने लगे…
बस फिर क्या…. डिनर का दिन पास आता जा रहा था, और पूरे स्टाफ में menu को लेकर बाज़ार गरम था….इधर मेरी गांधी जी की जीवनी का एक-एक चैप्टर ख़तम होता जा रहा था….डिनर का दिन आ गया….और मैंने जीवनी में खुराक के प्रयोग अध्याय पढना शुरू किया…
नियत दिन पर स्टाफ मेरे घर डिनर के लिए आ गए…..बातों के बाद खाने का नंबर आया….बर्तन ढके हुए थे….मैंने सभी को खाना शुरू करने के लिए कहा —-सब खाने पर टूट पढ़े… जैसे ही बर्तन हटाया….सब के चेहरे लटक गए. एक प्लेट में खीरा, दूसरे में उबली दाल, खिचड़ी और जग में दूध.
“अरे खाइए भाई….रुक क्यों गए, आजकल मैं डिनर में यही खाता हूँ, चलिए मैं ही शुरू करता हूँ……”- मैंने प्लेट में खिचड़ी लेके खाना शुरू किया….
किसी के पास अब कोई चारा भी नहीं था, आखिरकार सबने बिना-मन के मेरा अनुसरण किया….और खिचड़ी अपने गले के नीचे उतारी…
और सबने एक साथ कहा…. “लाजवाब खिचड़ी है सर…”-
मेरी नज़र “सत्य के प्रयोग” के front पेज पर छपी गांधी जी की तस्वीर पर पड़ी….जो मुझे देख के मुस्कुरा रहे थे…
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