कहां-कहां हरसिंगार रोप गए हो मास्टर साहब: This Hindi story is about a woman who longs for her son to come back, she waits for years and then she get solace from someone she never expected.
कांव-कांव……आंगन की मुंडेर पर आ बैठा कौआ जोर-जोर से चिल्ला रहा था। ओसारे में झाड़ू लगाती जानकी कमर पर हाथ लगा सीधी हुई और झाड़ू लिए-लिए ही आंगन तक चली आई। बीच आंगन में खड़ी हो उसने घूर कर कौए को देखा। क्यों रे मुए, सबेरे-सबेरे यहां आ मेरा सर क्यों खा रहा है, बरसों से इस देहरी पर किसी पाहुन के कदम पड़े हैं जो आज तू हरकारा बन कर चला आया। जा भाग यहां से नहीं तो लोग तुझे झूठा मानने लगेंगे।
जितनी देर जानकी बोलती रही कौआ भी बिल्कुल मुंह बंद किए बैठा रहा, जैसे ध्यान से उसकी बात सुन रहा हो। उसके चुप होते ही फिर बोला….कांव-कांव और इस बार और भी ऊंचे स्वर में, फिर चुप हो पल भर को जानकी को देखा और फुर्र…..उड़ गया दूर।
क्षण भर को तो जानकी वहीं ठिठकी खड़ी रही फिर पांव घसीटती ओसारे की ओर मुड़ चली। काम शुरू तो कर दिए पर उसका मन जैसे उचाट हो गया था। कमर और घुटने का दर्द जैसे कुछ और उभर आया था।
काम खत्म कर वह निढाल सी आंगन में आ बैठी और धीरे धीरे अपने पैर फैला, पीठ दीवार से टिका शरीर ढीला छोड़ दिया। आंगन के कोने में बंधी भूरी ने मुंह उठा अपनी बड़ी-बड़ी पानीदार आंखों से जानकी को देखा….जैसे पूछ रही हो क्या हुआ, आज बाहर पीपल के नीचे नहीं चलोगी. टाइम तो हो गया है।
रुक जा रे भूरी, आज मन थिरा नहीं रहा है, बाहर बैठ बोलने बतियाने का मन तो तू जाने है मेरा वैसे भी कम ही करे है, पर क्या करूं मजबूरी जो ठहरी, थोड़ा बहुत नाता रिश्ता तो गांव जुआर से रखना ही पड़े है, बखत जरूरत पे ए ही लोग काम आवेंगे ना। भूरी ने जैसे सारी बात समझ ली, थोड़ा और दीवार की ओर खिसक छाया में हो गई, फिर पैर मोड़ बैठ गई।
सानी बिल्ली जो जानकी को बोलता सुन उसके पास आ खड़ी हुई थी, एक मरियल सी म्यांऊ निकाल वापस जा अपनी जगह पर गेंद सी हो लेट गई। जानकी के होंठो पर एक फीकी मुस्कान तैर गई। ये बेजुबान जानवर कैसी अच्छी तरह उसके मन की हालत समझ लेते हैं लेकिन उनके कलेजे का टुकड़ा, उनका अपना अंश, वह कैसे इतना निर्मोही हो गया। मन को समझना तो बहुत दूर, उसे तो शरीर का झीजना भी समझ नहीं आता और आएगा भी भला कैसे, जब बरस के बरस बीत गए हैं और उसने ना उसकी सुध ली है न अपनी खबर दी है।
एक सूखी सिसकारी निकल भागी उसके कलेजे से। उसने चारों ओर नजरें दौड़ा मन पर लगाम कसने की कोशिश की। वरना यह मन जो एक बार पीछे को दौड़ा तो यहीं बैठे बैठे पहर पर पहर बीत जाएंगे। जानकी की उड़ती नजर आंगन में लगे हरसिंगार के पेड़ पर पड़ी और एक क्षीण सी मुस्कान तैर गई उसके होंठो पर। इस घर से इस हरसिंगार का भी रिश्ता लगभग उतना ही पुराना है जितना कि जानकी का। उसे बचपन से ही हरसिंगार बहुत पसंद था। शादी के बाद जाने कैसे बातों-बातों में यह बात सुरेश के बाबू को पता चल गई थी और जाने कहां से वे हरसिंगार का नन्हा सा पौधा ले आए थे, लेकिन यह तो बहुत पहले की बात है, उनके सुरेश के बापू बनने से बहुत पहले की।
हवा के झोंके से हरसिंगार की पत्तियां कुछ ऐसे हिलीं कि जैसे सुरेश के बाबू अपने समझाने के अंदाज में सिर हिला रहे हों…..जानकी तुझसे कितनी बार कहा है, इन बातों को ले कर मन ना खराब किया कर, देख जरा इन गौरयों से कुछ सीख, खुद ही अपने बच्चों को उड़ना सिखाती हैं और फिर क्या कभी उनके घोंसले में लौट आने की राह तकती तेरी तरह जी हलकान करती हैं ?
हां, गौरयों से सीख लूं… अरे, मानुष का जनम पाया है तो गौरया सा जी कहां से ले आऊं मैं। और मुझे क्या सीख देते थे, खुद तुम्हारे मन में क्या चलता था क्या समझती नहीं थी मैं ? मैं तो रो कर जी हल्का कर लेती थी पर तुम्हारे बिना बहे आंसू चट्टान के पानी जैसे भीतर भीतर रिसते रहे और ले डूबे तुम्हें।
आंगन पर छाए निचाट आसमान की ओर नजरें उठा जानकी मास्टर दीनानाथ के सामने अपने दुःख दर्द की पोटली खोलने जा ही रही थी कि……ददिया….ददिया… छत से आती ननकऊ की आवाज ने उसकी तंद्रा भंग कर दी।
कितनी देर से चिल्ला रहे हैं, दरवाजा पीट रहे हैं और तुम जाने कौन दुनिया में खोई हो, देखो तीन घर पहले से छते छत फांद कर यहां पहुंचे हैं।
का हुआ बबुआ….अपने को संभालती, समेटती जानकी बोली।
अरे उठो, सामने वाला फाटक खोलो, देखो कोई आया है।
आया है… !! हमारे यहां कौन….और वह भी सामने वाले फाटक से…! कहती हुई जानकी हड़बड़ाई सी फाटक की ओर बढ़ चली।
इत्ते दिनों का बंद फाटक….खोलने में जानकी को अपनी सारी ताकत लगा देनी पड़ी और फाटक खुलते ही देहरी फांद भीतर आयी वह लड़की जानकी से लिपट गई…..काकी…..काकी पहचाना…..मैं…सिया….
सिया…!!! सिया…….वो सिया…….हां हां काकी वही सिया और इस आत्मविश्वास से लबरेज अफसरानी सी दिखती लड़की को पीछे ठेल जानकी के सामने पन्द्रह साल पहले की वह पथराए चेहरे और फटी-फटी आंखों वाली बमुश्किल चौदह साल की लड़की आ खड़ी हुई जिसे उस अमावस की काली रात बदमाश नोच खसोट, लुटी अवस्था में खेतों में जिंदा लाश सा डाल गए थे। पूरे गांव ने यहां तक कि उसके अपने मां-बाप ने भी खिड़की-दरवाजे क्या रौशनदान तक में ताले जड़ लिए थे। लेकिन मास्टर दीनानाथ अपनी छाती पर पत्थर नहीं रख पाए थे। सांय-सांय करती उस बरसती रात जब वे सधे कदमों पीछे के दरवाजे से बाहर निकले थे, तभी जानकी समझ गई थी कि वे कहां जा रहे हैं। मन कांपा था उसका, हौल भी उठा था, पर पता नहीं क्या था उनके चेहरे पर कि न वह कुछ बोली, न पूछा और फिर सबसे छुपा पन्द्रह-बीस दिन रखा था उस बच्ची को सबसे भीतर वाली अनाज की कोठरी में। फिर जैसे लाए थे, वैसी ही एक रात सबसे छुपा गाड़ी में दुबका उसे कहीं छोड़ आए थे।
बच्ची की सेवा दोनों मिल कर करते थे, पर उन दिनों उनमें आपस में बातचीत भी एकदम न के बराबर होती थी, जैसे कोई मूक समझौता हो। हां, बहुत दिनों बाद एक बार जानकी ने बात उठाई थी।
कहां छोड़ आए सिया को,कैसी होगी वो ?
मुझे भी नहीं पता वह अब कहां और कैसी है। लागा-लभेस रखते तो कोई न कोई सूंघ ही लेता और पिछली जिंदगी से उसका कोई नाता न रहे वही उसके लिए अच्छा। फिर चुप लगा गए थे।
काकी कहां खो गयीं……हम बोले जा रहे हैं, तुम सुन रही हो कि नहीं……
अरे, कब सिया ने उसे ला आंगन में चारपाई पर बैठा दिया।
काकी हम इस जिले के कलक्टर बन कर आए हैं। यह सब काका की वजह से हो पाया। उस रात मैडम के पास आश्रम में छोड़ते समय मेरे भविष्य का प्रबन्ध भी कर गए थे। कहा था उन्होंने मैडम से, यह जितना पढ़ पाए इसे पढ़ने दीजिएगा, और मेरे सर पर हाथ रख बोले थे, मैं अब आंऊगा नहीं बेटा, इसी में तुम्हारी भलाई है, पर तुम्हारा हर आगे बढ़ता कदम मुझे उम्मीद और ताकत देगा। मैं इंतजार करूंगा उस दिन का जब तुम खुद अपने पैंरों चल गांव की देहलीज पर कदम रखोगी। पर हमें आने में देर हो गई काकी…………….और सिया एक बार फिर जानकी से लिपट बच्चों की तरह फूट फूट कर रो पड़ी।
सिया के बालों को सहलाते जानकी के अपने दर्द जैसे पिघल-पिघल आंसुओं में बहने लगे। आंगन की दीवार के पार हो गई हरसिंगार की डाल हवा के झोंके से भीतर आई और आंगन में ढेरों फूल बिखर गए………जानकी सोच रही थी………कहां-कहां हरसिंगार रोप गए हो मास्टर साहब।
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