आज सुबह से ही मैं बहुत खुश थी और क्यूँ ना होती , अपने माता-पिता की संपत्ति जो मुझे मिलने जा रही थी । पिछले करीब बीस सालों के इंतज़ार के बाद आज ये बड़ा फैसला होने जा रहा था ।
पहले तो माँ-बाप मुझे प्यार से यही समझाते रहे कि तुम्हारी शादी में हम दान-दहेज़ दे चुके हैं इसलिए अब तुम्हारा हमारी संपत्ति पर कोई भी अधिकार नहीं बनता मगर उनके द्वारा दिए हुए दान-दहेज़ की कीमत तो केवल मैं ही भली-भाँति जानती थी और माँ- बाप होने के नाते उन्हें कुछ कह भी नहीं सकती थी इसलिए उनके कटु प्रवचन सुन कर अक्सर चुप हो जाया करती थी । मैं हमेशा उनसे आज के ज़माने की बात किया करती थी जहाँ बेटा और बेटी को सामान अधिकार देने की बात की जाती है और अब तो न्यायालय ने भी ये फैसला दिया हुआ है कि बेटी का अपने माता-पिता की संपत्ति पर उतना ही अधिकार है जितना की बेटे का ,मगर अब भी ये बात यहाँ के समाज के लोगों की समझ से बहुत परे है । यहाँ बेटियाँ सिर्फ तभी पूछी जाती हैं जब उनके पीहर में कुछ अपशकुन होने का भय हो और तब उनके हाथों में पचास या सौ रूपए रखकर माँ-बाप उनसे ये उम्मीद करते हैं कि वो उनके परिवार की खुशहाली के लिए उन्हें अपने दिल से दुआएँ दें और उधर दूसरी ओर जैसे ही बात करोड़ों रूपए के बँटवारे की आती है तब वही परिवार वाले उसे खरी-खोटी सुनाकर अपने घर से भगा देते हैं ।
मैंने भी कई बार अपने घर में ऐसी ही जिल्लत को बर्दाश्त किया मगर फिर भी बस एक सामान-अधिकार वाली अपनी बात पर डटी रही । आप लोग भी ज़रा खुद ही सोचिए कि लगभग दस करोड़ की सम्पत्ति में से क्या मैं उसके दसवें हिस्से की भी अधिकारी नहीं और अगर नहीं तो फिर हम क्यों इस समाज में रहकर बेटा-बेटी के सामान होने की दुहाई देते हैं ,क्यों हमारे न्यायालयों ने पिता की संपत्ति पर पुत्री के सामान अधिकार की बात को उजागर किया है । और अगर ये बात सत्य नहीं तो फिर मुझे अपनी बेटी कहने का गौरव क्यों प्राप्त करते हैं ये परिवार वाले ? बस इसी एक अधिकार को परखने के लिए ही मैंने उनसे अपने अधिकार की बात की थी और जिसे सुनकर वो इतना भड़क गए थे कि धीरे-धीरे मुझसे नाता जोड़ने की बजाय नाता तोड़ने में लग गए थे ।
काफी सालों बाद भी जब मुझे लगा कि यहाँ सीधी उंगली से घी नहीं निकलने वाला तो मैंने भी अपनी उंगली टेडी करने की सोची और न्याय माँगने के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाने के लिए पहुँच गई । ऐसे मामलों में अक्सर परिवार वाले अपनी बदनामी के डर से अदालती कार्यवाही से बचना चाहते हैं इसलिए मेरे परिवार वालों ने भी समझौता करने के लिए मुझे अपने घर बुलाया । मैं घर पर गई तो वहाँ का नज़ारा देखने लायक था ।
मेरे पिता जिन्होंने मुझे आज तक कभी एक रुपया भी नहीं दिया अब अपनी लाचारी और बेबसी पर रो रहे थे । मेरी माँ जो सारी ज़िंदगी अध्यापिका की सरकारी नौकरी करती रही और अब अपना बुढ़ापा पेंशन लेकर मज़े से काट रहीं थी वह भी मुझे कोसने और ताने देने लगीं । और अब बारी आती है मेरे भाई की , कहने को तो वह एक बहुत ही संपन्न व्यक्ति था जिसका समाज में अपना एक अलग ही रूतबा था , एक ऊँचें पद पर कार्यरत जिसके बखान करते हुए कभी मेरा मुँह नहीं थकता था ,वही जो अक्सर अपना पैसा या यूँ कहें कि माता-पिता का पैसा शराब और दूसरी बुरी लतों में खर्च कर देता था , वो भी अब मुझे खा जाने वाली निगाहों से घूर रहा था क्योंकि मेरा कसूर तो आप सब लोग जानते ही हैं ना , मैंने अपने माता–पिता की सम्पत्ति में अपना अधिकार जो माँग लिया था ।
उसकी ही बगल में बैठी उसकी पत्नी यानि कि मेरी भाभी मुझसे उम्र में छोटी होते हुए भी उसकी वकालत में मुझसे ज़ुबान लड़ा रही थी और मुझे बार-बार मेरे बेटी होने का एहसास करा रही थी । करीब पाँच घंटे चली बहस में बात सिर्फ दस लाख रूपए पर आकर टिक गई । मैं भी बेटा-बेटी सामान अधिकार का नारा भूल अब उनकी मोह-माया से पिघल गई और मैंने करोड़ों रुपयों में से सिर्फ दस लाख रूपए लेने पर राज़ी होकर अदालत से अपना केस वापस लेने के लिए उनके साथ समझौता कर लिया । हालाँकि मैं जानती थी कि इन पैसों को लेने के बाद मेरा रिश्ता उनसे सदा के लिए टूट जाएगा मगर मैं उन सभी लोगों के लिए एक सबक बनना चाहती थी जो अपनी बेटियों का निरंतर तिरस्कार किया करते हैं और उनसे सामान-अधिकार जैसे शब्द को सुनना भी पसंद नहीं करते हैं ।
उस घटना के बाद से हमारे बीच एक लम्बी खामोशी छा गई , एक ही शहर में होते हुए भी ना तो मैंने ही उनकी कोई खोज-खबर ली और ना ही उन्होंने मेरी । फिर करीब दो महीने बाद अचानक से मेरे भाई का रात में मेरे पास फ़ोन आया । मैंने ख़ुशी से मोबाइल का बटन दबा उससे उसका कुशल शेम पूछना चाहा ……….
मैं – हैलो ……… कैसा है भाई तू ?
भाई (रूखे स्वर में) – कल मुझे सुबह नौ बजे फ्लाईओवर के नीचे बने रेस्टोरेंट में मिलना , मैं तेरा cheque लेकर वहीँ आऊँगा ।
मैं – हाँ वो सब तो ठीक है … दे देना आराम से…… ऐसी भी कोई जल्दी नहीं थी , पर तू ये तो बता कि घर पर सब ठीक हैं ना ?
उसने बिना मेरी बात का जवाब दिए ही फ़ोन काट दिया । एक पल को तो दिल में बहुत धक्का सा लगा ,लगा कि ऐसा मैंने क्या माँग लिया जो वो इतना बदल गया मगर फिर दूसरे ही पल मुझे लोगों की वह बातें याद आने लगीं जो हिदायत के तौर पर मुझे न्यायालय जाने से पहले दी गईं थी कि पैसे माँगकर बेटियाँ अक्सर दुश्मन बन जाया करती हैं इसलिए अब ऐसा ही व्यवहार उनसे अपेक्षित था । खैर मैंने अपनी पलकों पर आए अपने आँसुओं को बहने से रोका और अपने कामों में फिर से व्यस्त हो गई ।
रात भर मैं ठीक से सो ना सकी और सुबह आठ बजे ही तैयार होकर बैठ गई । मैं खुश थी कि चलो कम से कम मैं इस समाज में एक मिसाल तो बनूँगी कि मैंने अपने माता-पिता का आधा ना सही पर कुछ तो अधिकार पाया । ठीक नौ बजे मैंने जैसे ही रेस्टोरेंट में कदम रखा तो देखा कि भाई दो वकीलों के साथ एक कोने में पड़ी कुर्सी पर बैठा मेरा इंतज़ार कर रहा था । मुझे देखते ही उसने अपने पर्स से दस लाख का cheque निकाला और मेरी तरफ बढ़ा दिया । मैं उसके सामने पड़ी हुई कुर्सी पर बैठने ही वाली थी कि वो चलने के लिए खड़ा हो गया और मेरे हाथ में एक और कागज़ और पैन थमाकर मुझे उसपर दस्तखत करने को कहने लगा । मैंने पूछा …………….
मैं – भाई …………. क्या है ये ?
भाई – N.O.C
मैं – N.O.C …………. N.O.C ……… माने ?????
भाई – No Objection Certificate
मैं – पर वो किसलिए ? मैं भला किसी चीज़ पर Objection क्यों करूँगी ?
भाई – किसी की नीयत का क्या पता ………… क्या पता माँ- बाप के मरते ही तू फिर से हमारी सम्पत्ति पर अपना अधिकार ज़माने चली आए ।
मैं खुली आँखों से उसके चेहरे को निहारती रह गई और मन ही मन ये सोचने लगी कि क्या ये वही भाई है जो बचपन में मेरे साथ खेला करता था और मेरे हिस्से की सारी चीज़ें मेरी थाली से खींच कर खा जाया करता था , तब मैंने कभी उसकी नीयत का क्यों नहीं सोचा ? तभी उसने फिर दोहराया ………..
भाई – ज़रा जल्दी कर … मैं बहुत जल्दी में हूँ । तुझे तेरा अधिकार मिल गया ना , अब ज़रा मुझे भी फ़ारिक कर ।
मैं ( मन ही मन सोचने लगी ) – अधिकार …… एक दसवाँ हिस्सा भी नहीं दे पाया ये मुझे और बात करता है अधिकार की ………. सामान-अधिकार की ।
शब्द मेरी ज़ुबान पर आने से पहले ही रुक गए और हाथ अपने आप ही कागज़ की तरफ बढ़ गए । हस्ताक्षर होते ही उसने वकीलों की गवाही ली और मेरे हाथ से N.O.C छीन कर वहाँ से चला गया ।
वेटर (मेरी ओर बढ़ता हुआ ) – बैठिए मैडम … क्या लाऊँ आपके लिए ?
मैं – सिर्फ एक गिलास पानी ।
पानी पीकर मैं तेज़ क़दमों से चलती हुई रेस्टोरेंट से बाहर निकल गई । सड़क पर बने फ्लाईओवर पर गाड़ियाँ धीमी गति से चढ़ रही थी जिन्हे देखकर मुझे लगा जैसे कि मानो मेरी गति भी एक दम से धीमी सी हो गई है । पता नहीं मैंने बस-स्टॉप पर ना जाकर फ्लाईओवर पर चढ़ने का फैसला क्यों लिया और मैं उसपर पैदल ही चढ़ती रही । जब फ्लाईओवर के ठीक बीच में मैं पहुँच गई तब उसपर खड़ी होकर मैं नीचे सड़क पर देखने लगी । फ्लाईओवर पर दौड़ती हुई गाड़ियाँ अब मुझे बेटा और सड़क पर दौड़ती हुई छोटी दिखने वाली गाड़ियाँ सब बेटी प्रतीत होने लगीं जो सिर्फ अपनी ही एक निर्धारित गति में आगे तो बढ़ सकती हैं परन्तु फ्लाईओवर को छूने का साहस कदापि नहीं कर सकती । मगर मैंने ये साहस करके गलती की , इस बात का एहसास मुझे अब धीरे-धीरे होने लगा था ।
मैंने सामान-अधिकार तो नहीं पाया मगर जो भी पाया वो मुझे अब इतना छोटा लगने लगा जितना की सागर में गिरी हुई एक बारिश की बूँद जिसका अस्तित्व सिर्फ तब तक था जब तक वो अपनी दुनिया में मस्त थी और सागर में डूबते ही उसकी अपनी पहचान लुप्त हो गई । मैं भी तो कभी एक छोटा सा अंश थी अपने माता-पिता की वासनाओं का , मगर अब उस अंश पर उन्हे इतना भी भरोसा नहीं रहा कि उन्होंने अपने सागर रुपी ह्रदय में से मुझे अपना कुछ जल देने के लिए मुझसे मेरी गंदी नीयत का उस N.O.C के रूप में एक खामियाज़ा माँग लिया ।
इस बार मैं अपनी आँखों से बहते हुए आँसुओं को रोक नहीं पाई और मन ही मन ये सोचने लगी कि सचमुच बेटियाँ , बेटियाँ ही होती हैं … ये सामान-अधिकार की बातें तो सिर्फ किताबों के पन्नों में ही शोभा देती हैं … असल ज़िंदगी में नहीं ।
मैंने पर्स से वो दस लाख का cheque निकाला और अपने हाथों से उसे फाड़कर फ्लाईओवर से नीचे छोड़ दिया । Cheque के टुकड़े दूर हवा में इधर-उधर बिखर गए, आज बीस सालों बाद मैं एक N.O.C से हार जो गई थी ॥
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