संघर्ष का जज्बा : Hindi story of a taxi driver of Mumbai, who was compelled by the family conspiracies to go to a metro where he had no one to support him, except his own spirit of struggle.
कभी – कभी यात्रा करते हुए जिंदगी के पन्नों से संघर्षशीलता की ऐसी कहानी छन कर निकलती है जिसे बस सैलूट करने का मन करता है। एक ऐसी ही जीवन की सच्चाई से, जिसमें संघर्ष,सहिष्णुता और आगे बढ़ने का अदम्य साहस है, मैं आपको रूबरू कराना चाहता हूँ।
मैं 23-05-2014, दिन शुक्रवार को लोकमान्य तिलक टर्मिनस (कुर्ला) , मुंबई से बैंगलोर के लिए मुंबई – कोयंबटूर एक्सप्रेस , जो रात्री में साढ़े दस बजे खुलती है , पत्नी के साथ मीरा रोड से ओला कैब (टैक्सी) द्वारा करीब सात बजकर पैंतालीस मिनट शाम में रवाना हुआ। करीब २ किलोमीटर ड्राइव के बाद मुझे याद आया कि मेरा ID PROOF (पैन कार्ड को मैं आई दी प्रूफ के रूप में प्रयोग करता हूँ ), डेरे पर ही छूट गया है। ड्राइवर को मैंने अनुरोध कर वापस चलने को कहा। मेरा डेरा सातवीं मंजिल पर था। ड्राइवर ने सिर्फ इतना ही कहा की फोन पर बात करके किसी को ID PROOF कार्ड लेकर नीचे उतरकर इन्तजार करने को कह दें। इसतरह हम समय बचा सकते है। ठीक ऐसा ही हुआ। नीचे कार्ड लेकर मेरी बहु खड़ी थी। बिना कोई समय बर्बाद किये आई दी प्रूफ लेकर हमलोग चल दिए। इसमें करीब दस मिनट समय बर्बाद हुआ होगा।
ड्राइवर के बात बात करने के लहजे, और ऐसी स्थिति को बिना झिझक और नानुकुर के निपटने के तरीके ने हमलोगों को आकर्षित किया। ऐसे समय में मेरी पत्नी को एक rapport chord connect करने में कोई असुविधा नहीं होती है। इसलिए उन्होंने ही बात की शुरुआत की थी।
उसके बात करने के एक्सेंट से लग रहा था कि वह बिहार, यु पी या एम पी का ही रहने वाला होगा ।
“कहाँ घर हुआ आपका ?”, पत्नी ने पूछा था।
अचानक पूछे गए इसतरह के प्रश्न से बिना आशंकित हुए और बिना चौंकते हुए उसने विधेयात्मक प्रतिउत्तर दिया “मोतिहारी का रहने वाला हूँ । यह बिहार में है ।”
“कबसे मुम्बई में हो ?” फिर पत्नी ने पूछा था।
“आंटी, मैं अपनी पूरी कहानी सुनाऊँ तो शायद उसपर फिल्म बन जाये । आपको शायद विश्वास नहीं हो, मैं १५ वर्ष की उम्र में मुंबई आ गया था और तब से अबतक यानि करीब १६ वर्ष से अधिक मुंबई में बिता चूका हूँ । अभी मेरी उम्र करीब ३२ वर्ष है । “ उसने कहा था ।
मैंने थोड़ी जिज्ञासु धृष्टता के साथ बात को आगे बढ़ाने से अधिक उसकी जिंदगी की गुत्थियों को खोलने के लिए कहा था, ” तो भई, अगर आपको तकलीफ न हो और हमसे अपनी जिंदगी के कुछ खट्टे – मीठे अनुभवों को बताकर मन के भारीपन को कुछ कम करना चाहते हों तो अपनी जीवन – संघर्ष – गाथा को मेरे साथ शेयर कर सकते है, यदि आपको कोई आपत्ति न हो । इससे सफर के सन्नाटे का बोझ भी थोड़ा हल्का हो जाएगा । “
वह शायद मेरे इसी इशारे का इंतजार कर रहा था । उसके अब तक के जीवन के संघर्ष की कहानी उसी की जुबानी हूबहू दे रहा हूँ :
” मेरा नाम संतोष है, मेरा घर मोतिहारी के पास एक गांव में है। मेरा मुंबई में भटकाव और संघर्ष परिवार के एक ईमानदार आदमी की देन है। उस आदमी ने पूरे परिवार और अपने भाइयों को अपना सबकुछ देकर सांवरा । जब उन्हें जरुरत हुयी तो सभी साथ छोड़कर किनारे हो गए। इसी विस्वासघात से उपजे संघर्ष के कारण उस ईमानदार आदमी के मिटने की कहानी है, मेरा जीवन । मेरे पिताजी तीन भाई हैं । परिवार के सबसे बड़े भाई होने के कारण दोनों छोटे भाइयों की भी परवरिश एवं पढ़ाई की जिम्मेवारी उनकी ही थी । मेरा उस्समय जन्म भी नहीं हुआ था। पिताजी की आमदनी जमीन – जायदाद से उतनी नहीं थी कि भाइयों को अच्छी शिक्षा दिला सकें। भाई दोनों पढने में मेधावी थे। गावं के स्कूल के मास्टर साहब कहते थे , इन्हें अच्छा से पढ़ाओ , आगे चलकर नाम करेंगे । पिताजी को भी अपने परिवार को फलता – फूलता , आगे निकलता हुआ देखने और दिखाने का जूनून सवार था। वे गावं की जमीन को बटाई पर लगाकर खुद आर्मी में नौकरी के लिए लिखित और शारीरिक परीक्षा दी, जिसमें वे चुन लिए गए। घर में खाने के लिए जमीन की पैदावार काफी थी। भाईयों की पढाई के खर्चे के लिए पिताजी की नौकरी से पैसे आने लगे। मेरी माँ ने भी अकेले पिताजी के नौकरी पर रहते हुए भी घर का पूरा भार उठाया ताकि अपने दोनों देवर को अच्छी शिक्षा प्राप्त करने में कोई ब्यवधान न हो।
वहां उनलोगों ने भी पूरी तैयारी कर प्री मेडिकल की एंट्रेंस परीक्षा दी। बारी – बारी से दोनों ही परीक्षा में चयनित हुए और दोनों ही दो साल के अंतर पर एम बी बी एस की परीक्षा पास कर डॉक्टर बनकर निकल गए। यह आज से ४० साल पहले की बात है। इंटर्नशिप खत्म होते – होते पिताजी ने दोनों की धूम – धाम से शादी करवाई। पूरे इलाके में मेरे परिवार का रूतबा काफी बड़ा हो गया। इससे पिताजी की छाती गर्व से और चौड़ी हो गयी। उस समय मैं सात – आठ साल का रहा होऊंगा।“
इसके बाद उसने थोड़ा अल्पविराम लिया। कार अपनी गति से ट्रैफिक सिब्नल, टोल नाका पर रुकते हुए फिर गति पकड़ते हुए बढ़ी जा रही थी।
” मेरी कहानी में मोड़ यहाँ से आता है। मेरी चाचियाँ यानि की दोनों डॉक्टर चाचों की पत्नियां घर में आती है। वे दोनों जिस परिवार से मेरे परिवार में आई थी उसके संस्कार यहाँ के रहन – सहन के संस्कारों से मेल नहीं खाते थे। मेरी चाचियों को उनके पतियों यानि मेरे चाचों को यहाँ तक सफलता दिलवाने में परिवार के किन लोगों ने कैसे और कितना संघर्ष कर कितना योगदान दिया , इसे न वे मालूम करना चाहती थी और न मालूम होने पर भी उसके प्रति संवेदनशील होना चाहती थी। वे जिस परिवार से आई थी उसके संस्कारगत दोष हो सकते है। या फिर कहा जा सकता है कि उनकी शादी तो एक पढ़े – लिखे नौजवान , जिसने डाक्टरी पास की थी उससे हुयी थी न कि उसके पूरे परिवार से । उन्हें इससे क्या मतलब कि उनके पतियों को डॉक्टर बनाने में उनके बड़े भाई ने फ़ौज की नौकरी कर कितनी रातें जमती हुयी बर्फ की ठिठुरन में गोलियों की बौछारों के बीच , या फिर आंधी , तूफ़ान में जंगली पशुओं और साँपों की फुंकारों के बीच काटी थी। उन्हें तो बनी – बनाई रियासत मिली। अब बस हुकूमत चलानी है। आते ही एक दो सालों के अंदर मेरी चाचियों ने चाचा जी को भड़का कर जमीन और घर के बंटवारे का षड़यंत्र शुरू कर दिया। पिताजी ने भी फ़ौज की नौकरी में पेंसन आदि चालू करने के लिए कम – से – कम १५ वर्षो तक की अवधि पूरी कर सेवा – निवृति ले लिया और घर आ गए। उनकी शायद इच्छा रही होगी कि दोनों भाई डॉक्टर होकर पैसे कमाएंगे और वे घर के मुखिया बनकर घर चलाएंगे और पूरे परिवार को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाएंगे। घर आते ही उन्होंने स्त्रियों के बीच जो कलह और कोहराम देखा, साथ ही इन सबों के प्रति अपने भाइयों का जो रुख देखा उससे उनके सारे सपने चकनाचूर हो गए। तबतक मेरी एक बहन ने जन्म ले लिया।
घर में रोज – रोज की चिख -चिख से तंग आकर उन्होंने जमीन और घर का बंटवारा कर दिया। इस बंटवारे का उनके मन – मस्तिस्क पर ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा जिसे वे झेल नहीं सके और चल बसे। उस्समय मेरी उम्र १५ वर्ष थी और मैंने मेट्रिक की परीक्षा पास की थी। वैसी स्थिति में मेरे किसी चाचा ने मेरी ओर कोई भी मदद के लिए हाथ नहीं बढ़ाया। मैंने भी किसी से कोई भी मदद नहीं मांगने की ठान ली थी। पिताजी का थोड़ा – सा पेंसन जो माँ के नाम आता था और जमीन की पैदावार से घर में खाने – पीने का खर्च चल जाता था। लेकिन इतनी आमदनी से मेरी पढ़ाई के लिए आगे का खर्च चलाना मुश्किल था। मैं उसी समय सीधा मुंबई चला आया। और पिछले १६ साल से मैं यहीं हूँ। अभी मेरी उम्र करीब ३२ वर्ष होगी।”
इसके बाद उसने अपनी नम हो आई आँखों को एक हाथ से पोंछा और आगे कहना शुरू किया ,” मुंबई में मैंने हर रोज १८ – २० घंटे तक लगातार टैक्सी चलाई है। अब मुंबई के अपने संघर्ष के तरफ आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ। यहाँ आते ही एक सरदारजी के यहाँ नौकरी कर ली। सामान उठाने और लोड करने का काम था। किसी तरह खाने और रहने का खर्च चल जाता था। एक दिन की बात है : सरदारजी ऑफिस में नहीं थे, और छोटी गाड़ी जिससे सामान पहुँचाना था, उसका ड्राइवर नहीं आया। सामान ग्राहक के पास पहुँचाना जरूरी था, क्योंकि उसका कई बार फ़ोन आ चूका था। इसके पहले मुझे कोई भी गाड़ी चलाने अनुभव नहीं था , सायकिल को छोड़कर। मैंने सामान लोड किया , गाड़ी स्टार्ट की और चल दिया। रस्ते में दो – तीन जगह गाड़ी रुकी। एक जगह तो भीड़ – भाड़ में गाड़ी रुक गयी। स्टार्ट करके फिर आगे बढ़ने में थोड़ी देर हुयी। सड़क पर टेम्पो ड्राइवर और टैक्सी ड्राइवर ने दम भरकर कोसा और गलियां दी। सामान ग्राहक तक पंहुचा कर अनलोड किया। रिसीविंग की रसीद पर साइन करवाई और वापस गाड़ी लेकर चला आया। वापसी में गाड़ी कहीं नहीं रुकी। वहां देखा कि सरदारजी गुस्से में पैर पटकते हुए ऑफिस के बरामदे में तेजी से घूम रहे थे। मेरा आज जमकर क्लास लिया जायेगा इसका मुझे पूरा विश्वास हो गया। सरदारजी ने चिल्लाकर पूछा ,’ गाड़ी लेकर कहाँ गया था ?’ मैंने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया ,’आज ड्राइवर नहीं आया था , कई बार कस्टमर का फोन आ चूका था , मैंने समझा सामान की डिलिवरी बहुत जरूरी है , इसीलिये मैं गाड़ी में सामान लोडकर ………’ जैसे आगे कहने जा रहा था सरदारजी ने रोकते हुए कहा ,’बस , बस बहुत बहादुरी किये , किसी को धक्का नहीं मारा न। मैंने तुरत जवाब दिया , ‘ नहीं बिलकुल नहीं , और गाड़ी में भी कोई खरोंच तक नहीं लगी है। ‘
‘ठीक है, ठीक है, कल तुम्हें जाकर ड्राइविंग लाइसेंस के लिए इंटरव्यू देना है, जरा ट्रैफिक सिग्नल पहचानने का अभ्यास कर लो ‘, और उन्होंने ट्रैफिक सिग्नल की एक बुकलेट थमा दी।
इसके बाद मैंने इंटरव्यू और टेस्ट दिया और इसतरह मुझे ड्राइविंग लाइसेंस मिल गया। मैं सरकारी रिकॉर्ड में भी ड्राइवर बन गया। तभी से मैं टैक्सी चला रहा हूँ। खा – पीकर भी ३० हजार रुपये बचा लेता हूँ। घर पर अभी मैंने काफी काम करवाया है। पक्का घर बनवाया, बहन की धूम – धाम से शादी की।”
“आपके बाल – बच्चे?” पत्नी ने पूछा था,
उसने कहा ” इस संघर्ष में बाल तो बहुत कम बचे हैं। हाँ घर पर मेरा एक वर्ष का बच्चा है, उसका पहला जन्मदिन मनाने इसी महीने जाऊंगा। खूब तैयारी की है। बहुत दिनों के बाद थोड़ी खुशी मिली है, क्यों न उसे समेट कर रखा जाय। ” उसके चेहरे पर अब थोड़ी मुस्कान तैर रही थी,” अब सोच लिया है, घर पर ही एक बस खरीदूंगा और लम्बे रूट पर चलाऊंगा।”
कार मोड़ते हुए स्टेशन के पार्किंग में गाड़ी रोक दी,” लीजिये आंटी आपका स्टेशन आ गया। देखिये वक्त से ४५ मिनट पहले पहुंच गए और रस्ते भी बातचीत करते हुए कट गए।”
“कितना हुआ, भई?” मेरे पूछने पर उसने कहा, “जी, 967 रुपये”
मैंने 500 रुपये के दो नोट उसे थमाए। उसने सामान डिक्की से निकाला और 10 – 10 रुपये के तीन नोट वापस किए। इसके साथ ही तीन रुपये के सिक्के भी लौटाए। अक्सर टैक्सीवाले छुट्टे नहीं है, सर जी, कहकर तीन रुपये रख लेने को अपना अधिकार समझते हैं। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया और पूरे छुट्टे सहित बाकी पैसे वापस कर दिए।
मेरे मन में कई विचार उठ रहे थे , इस नौजवान की कहानी सुनने के बाद। पूरे परिवार के घोंसले को तिनका – तिनका जोड़कर , समेटकर पूरी जिंदगी परिवार का ईमानदार मुखिया हौसले के साथ खड़ा करता है ताकि उसके परिवार को लोग समाज, गावों और इलाके में मिशाल के तौर पर जान सकें। लेकिन जब खुद उसे परिवार के सदस्यों के सहयोग की जरूरत होती है, तो जो सदस्य उसके सहयोग से आगे बढे हैं वे एक कतरा मदद देने से क्यों क़तरा जाते हैं। संयुक्त परिवार जो मनुष्य में सेवा , सहिष्णुता , त्याग , प्रेम और मर्यादा के पाठ सीखने की पहली पाठशाला हुआ करता था, आज टूटने और छिन्न – भिन्न होने की स्थिति में पहुँच रहा है। यह हर एक संयुक्त परिवार के टूटने की कहानी कहता है और कहता है मनुष्य के संस्कारों में गिरावट की कहानी , उसके अंदर बढ़ती संवेदनहीनता की कहानी।
इस सबके बावजूद कुछ तो दम था इस नौजवान टैक्सीवाले में जिसने बचपन से संघर्ष को अपना हमसफ़र बनाया। अपने चाचाओं के विश्वासघात के कारण पिता जी की मृत्यु हो जाने पर भी परिवार की गाड़ी को अकेले अपने बलबूते पर दलदल से निकालकर पक्की सड़क पर दौड़ने के लिए खड़ा कर दिया है। ऐसे जज्बे को मेरा सल्यूट है , सलाम है !!!!
वाह! नौजवान!! वाह! नौजवान!!
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—- ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र, जमशेदपुर.
मेतल्लुर्गी*(धातुकी) में इंजीनियरिंग , पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन मार्केटिंग मैनेजमेंट।टाटा स्टील में 39 yrs कार्यरत। पत्र पत्रिकाओं में टेक्निकल और साहित्यिक रचनाओं का प्रकाशन। सम्प्रति जनवरी से ‘रूबरू दुनिया ‘ से जुड़े है। जनवरी 2014 से सेवानिवृति के बाद साहित्यिक लेखन कार्य में निरंतर संलग्न।