(अधरों की ज्वाला – Adharo Ki Jwala – Social Hindi short story of a worker union leader: Union leader was fighting for welfare of workers & became emotionally disturbed by receiving letter from his old girlfriend.)
“अचानक मेरा पत्र पाकर तुम चकित तो अवश्य होगे कि इतने समय पश्चात् मुझे तुम्हारी याद क्यों हो आई ! मैं किसी प्रकार विपत्ति में तो नहीं हूं ! न – न – ऐसा कुछ नहीं है जिसके कारण तुम्हें चिंतित होना पड़े । मैं परिवार सहित बिल्कुल सुखपूर्वक हूं और आये दिन समाचारपत्रों द्वारा तथा इष्ट मित्रों से तुम्हारी कुशलता का वृतान्त सुनती रहती हूं ।
मैं स्वयम् भी जान नहीं पाई कि तुम्हारे बारे में जानने को इतनी उत्सुक क्यों रहती हूं । सम्भवत: आज भी तुम मेरे अचेतन मन के किसी अंधेरे कोने में छिपे बैठे हो । इस से कदापि यह मत समझ लेना कि मैं तुमसे अब भी प्रेम करती हूं । यह कटु सत्य है कि कुछ समय पूर्व मैने तुमसे प्रेम किया था और उसी अनुपात में आज तुमसे घृणा भी करती हूं ।
परन्तु अब तो मैं ऐसी स्थिति में हूं जब सब कुछ समान प्रतीत होने लगता है । मुझे अब तुमसे किसी प्रकार की अपेक्षा भी नहीं है । मैं इस सत्य को भली भांति जान चुकी हूं कि स्वप्न कितने भी सुखद और मोहक क्यों न हों, स्वप्न ही होते हैं । और अतीत के वे स्वप्न मेरी किशोरावस्था के रचित भूले बिसरे सपने मात्र हैं । वैसे भी उनका अब कोई आस्तित्व नहीं है ।
परन्तु मैं यह कह कर अपने वक्तव्य की पुष्टि भी नहीं कर रही हूं जिसको न तो तुमने कभी सुना, और न समझा । इसमें हो सकता है, कहीं मेरे में भी त्रुटि रही होगी । तुम निसन्देह एक आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी रहे हो जिसे कोई भी चाह सकता है । मुझे कहने में लज्जा भी नहीं कि मैने तुम्हें कभी हृदय की अथाह गहराईयों से चाहा था । परन्तु व्यक्तित्व ही सब कुछ नहीं होता । यह तो केवल आवरण मात्र है जो समय समय पर कोई व्यक्ति अपने इर्द गिर्द बुन लेता है । वास्तव में उसका आत्मज्ञान ही तो उसे कुछ करने लायक बनाता है ।
यह सब मैं तुमको क्यों और किस अधिकार ले लिख रही हूं, मैं नहीं जानती क्योंकि अब तो हमारे बीच किसी प्रकार की बौद्धिक समानता अथवा असमानता भी नहीं है । मैं एक विवाहित स्त्री, अपने घर परिवार में सुखी, परन्तु एक अबला नारी, जो सदा मानसिक तथा वैचारिक दृष्टि से भी पराधीन ही मानी गई है । और तुम ठहरे अपने क्षेत्र में एक प्रखर नेता, जिसने जनसाधारण को तो मुट्ठी में बांध ही रखा है, अपनी योग्यता से अच्छे-अच्छे राजनीतिज्ञों को भी पानी पिला दिया है । और बहुत सम्भव है कि अपनी लोकप्रियता के कारण कल राष्ट्र की बागडोर सम्हालने के लिये भी चुने जाओ ।
तुम्हारा और मेरा कहीं कोई मुकाबला नहीं है – न ही मित्रता का और न ही प्रतिद्वन्दी होने का । परन्तु फिर भी तुम चाहो अथवा न चाहो, मैं अपने मन की कहूंगी अवश्य । क्योंकि मैं, और केवल मैं ही ऐसी बिन्दु हूं जहां से तुम्हारे सम्पूर्ण व्यक्तित्व का निरीक्षण सम्भव है । यदि अब भी तुम में पहले जैसी व्यग्रता न हो और तुम धैर्यपूर्वक सुन सको तो मैं घोषित करती हूं कि तुम में वैचारिक दृष्टि से ऐसा कुछ भी नहीं है जो एक राष्ट्र, समाज अथवा समुदाय मात्र को कोई दिशा प्रदान कर सके । मेरी दृष्टि में तुम आज भी वही अनुभवहीन, ज़िद्दी व्यक्ति हो । यदि तुम मेरे शब्दों का बुरा न मानो तो तुम्हारे प्रति मेरी आज भी यही धारणा है कि तुम एक भावुक, मूर्ख तथा Sentimental Fool हो जो ऱवुद तो राह जानता नहीं, दूसरों को दिशा-निर्देश देने निकल पड़ा है । तुम शून्य में भवन निर्माण का स्वप्न लेकर चल रहे हो ।
वो माँगें, जिन्हें लेकर तुमने इतना बड़ा बवंडर खड़ा कर रखा है, माँगें कहलाने के योग्य ही नहीं हैं । कोई भी माँग जब तक अनुकूल वातावरण में न खड़ी की गई हो, तथा बलिष्ठ मनोबल और संतुलित सामूहिक साधन उपलब्ध न हों, और इन सबको प्रयास तथा दृढ़ता के सूत्र में पिरो कर संकल्प पद प्राप्त न हो, माँग नहीं कहलाती । संकल्प सुदृढ़ हो तो मनुष्य क्या, भगवान भी उसकी अवहेलना नहीं कर सकते । अब तुम ही सोचो कि तुम में ऐसा क्या कुछ है । तुम्हारे पास तो ले दे कर, अधरों की ज्वाला है जिसने मेरे व्यक्तित्व में तो आग लगा ही दी है, अब इस ग़रीब देश के अबोध श्रमिक वर्ग को झुलसाने पर उतारू है ।
मैने इन दिनों सुना है, कोई धूमकेतु पृथ्वी से टकराने जा रहा है । अथवा निकट से वातावरण को छूता हुआ निकल जायेगा । जाने ऐसा होगा या नहीं । यदि मुझसे कोई पूछे कि मैं इस के बारे में क्या जानती हूं तो मैं स्पष्ट शब्दों में कहूँगी कि वो धूमकेतु तुम ही हो जो भयानक तबाही ला सकता है । मुझे याद पड़ता है कि तुमने ही उर्दू की कुछ पंक्तियाँ मुझे सुनाई थीं :-
‘देकर उम्मीद की कश्ती को साहिल का फ़रेब,
मैं समझता हूं सितारे भी बहक जाते हैं ।
और दरमान्दा मुसाफ़िर इन्हीं तारों के तुफ़ैल,
अपनी मन्ज़िल से बहुत दूर निकल जाते हैं ।।।।।'”
“नहीं नहीं, ऐसा नहीं है । मैं यह दोष, यह आरोप स्वीकार करने को कतई तैयार नहीं हूं ।” श्री अस्थाना बौखला उठे । मगर अन्दर ही अन्दर उनकी आत्मा उन्हें कचोट रही थी कि यह शत्-प्रतिशत् सत्य ही है और वे अब भी अपने को धोखा देने का प्रयास कर रहे हैं।
जेल की बंद कोठरी में, जिसमें वे गत कई सप्ताह से बंद थे, आज विशेष रूप से ज़्यादा व्यग्र दिख रहे थे । प्रतिभा के पत्र ने मानो उनको झिंझोड़ कर रख दिया हो । जेल का नीरस वातावरण और भावावेश की मन:स्थिति में वे पहरों शून्य में निहारने के तो आदी थे ही, परन्तु आज मानो, एक चलचित्र सा उनकी दृष्टि के सामने हो जिसका विम्ब उनके हृदय के किस अज्ञात परदे पर अतीत को प्रदर्शित कर रहा हो । उनके अंत:करण पर गुज़रे कल की छाप और गहरा गई थी ।
सदैव प्रकाशमान इस प्रेरणास्रोत मुखमुद्रा पर चिन्ता की गहन घटायें मंडरा रही थीं । वे रह रह कर दीर्घ निश्:वास् लेते जिस से जेल का घुटा घुटा वातावरण और गहन हो जाता । उलझे-उलझे बाल और आँखों के इर्द गिर्द काले गड्ढे उनकी उत्तेजित मन:स्थिति के प्रतीक थे । फीका-फीका तेजहीन चेहरा विचारों के भीषण वेग से कम्पायमान था और होंठ फड़फड़ा रहे थे जैसे उनके जीवन का आधार ही उनके कदमों को छोड़े जा रहा हो ।
मेज़ पर रखी कॉफी न जाने कब की ठंडी हो चुकी थी और उसपर जमी गहरे रंग की गहरी परत, एक सुगंधित जीवनवर्धक पेय न होकर एक कड़वा घूंट बन चुका था जिसे वे बेध्यानी से पी गये । उन्होंने चश्मे का धुंधला गया शीशा कुरते के एक कोने से साफ़ किया और उसे पहन कर पत्र का शेष भाग पढ़ने में व्यस्त हो गये ।
“मुझे मालूम है तुम यह सब मानने के लिये तैयार नहीं होगे । क्योंकि तुमने अभी तक माना ही कब है ! हमेशा अपने को बुद्धिमान समझते रहे । परन्तु बड़े बुद्धिमान गलतियाँ भी बड़ी बड़ी करते हैं । मैं तुमसे एक साधारण प्रश्न करती हूं कि वर्ग संघर्ष का प्रयोग तुमसे पहले भी तो हुआ है ! और उस स्थान पर जहाँ उसके लिये उपयुक्त वातावरण भी था । यदि वहीं यह वर्ग संघर्ष अपना अर्थ खो चुका है तो वो हमारे किस काम का !
एक कारण देखने में आया है कि व्यक्ति कभी भी वर्ग नहीं होता । और न ही हो सकता है – जब तक उसमें स्वार्थ का भाव रहता है । जब तक उसकी अपनी स्वार्थ सिद्धि तथा आकांक्षाओं की पूर्ति होती रहती है, वो जन-समूह का अंग बना रहता है । जैसे एक व्यक्ति कुछ समय तक नेतृत्व की बागडोर सम्हाले रहे, परन्तु जब भी उसे स्थान छोड़ने पर विवश किया जायेगा, उसके सामने वर्ग के नहीं, अपने हित प्राय: प्राथमिकता ले लेंगे । इस कारण आन्दोलन असफल हो जाते हैं । यदि कोई भावुकता में एकाध कदम पीछे भी हटाये तो उस स्थान पर दूसरे व्यक्ति पैर जमाने के लिये कोशिश करते हैं और कई बार उनके संकेत पर अनहोनियाँ हो जाया करती हैं । और वो वर्ग समूह जिनके लिये कोई निजी स्वार्थ त्यागने का साहस करता है, अपने पैरों के नीचे कुचल देते हैं । इसलिये भी एक मजबूरी सी बन जाती है कि व्यक्ति अडिग रहे । विपक्ष भी, जिनके हितों को ठेस पहुँचती है, निठल्ले तो नहीं बैठ सकते ! मैं फिर कहूंगी कि संघर्ष एक और संघर्ष को जन्म दे सकता है, परन्तु किसी समस्या का हल इसके द्वारा सम्भव नहीं है । समस्यायें केवल सद्भावना से ही सुलझाई जा सकती हैं ।
तुम कहोगे कि मैं फिर बाबा गांधी और विनोबा भावे को सामने ला रही हूं । यह शत्-प्रतिशत् सत्य ही है कि इस देश को ही नहीं, पूरे विश्व को यह सद्भावपूर्ण रुख अपनाना होगा । अथवा सामाजिक न्याय और शान्ति के बारे में सोचना ही व्यर्थ है । इस शान्तिप्रिय देश को, जिसकी आर्थिक क्षमता पहले ही बहुत कम है, समस्याओं से उबरने के लिये केवल गांधी, विनोबा के विचारों की ही आवश्यकता है, तुम्हारी नहीं ।”
श्री अस्थाना ने सिर झटकते हुए फिर कुर्सी का सहारा लिया और सिर के पीछे दोनों हाथ बांध कर आँखें मूंदे, न जाने किन विचारों में खो गये । पत्र सामने रखा था, मानो उनका मुंह चिढ़ा रहा हो ।
श्रमिक वर्ग के विश्वासाधार नेता श्री अस्थाना दृढ़ संकल्प और ठहरे हुए विचारों के कर्मठ प्राणी थे और जीवन भर संघर्ष ही उनका एकमात्र ध्येय बन चुका था । कोई भी स्थिति उनके लिये अपरिचित नहीं थी जिसमें वो धैर्य खो बैठते । परन्तु कुछ दिनों से समस्यायें अनापेक्षित रूप धारण करती जा रही थीं । अन्य श्रमिक संगठन, जिन्होंने उन्हें आन्दोलन का समर्थन और सहयोग देने का वचन दे रखा था, अब अपनी अलग अलग ढपली बजाने लगे थे और आन्दोलन थोड़ा दिशाहीन होता जा रहा था । अब वे शंकित से प्रतीत होते थे कि नैतिकता तथा सिद्धान्तों पर ज़ोर दें तो स्थिति विस्फोटक हो सकती है । पार्टी विचारधारा और दूसरे संगठनों की तो यही मर्ज़ी थी कि टक्कर हो कर रहे । उनको भी इसके अतिरिक्त और कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा था । परन्तु संगठनात्मक दृष्टि से वे अभी तैयार नहीं थे । लगता अवश्य था कि अधिकतर श्रमिक वर्ग एक ही मंच पर एकत्रित है परन्तु सदस्य संगठनों में अधिक समय टिकने का साहस नहीं लगता था । छोटी छोटी बातों पर समाचारपत्रों में बयानबाज़ी चल रही थी और प्रशासन था कि टस से मस नहीं हो रहा था । सबकी आँखें मिल के लोहे के विराट गेट पर लगी थीं जहाँ मशीनगनें धारण किये सन्तरी सतर्क खड़े थे । वो दृष्य को और भी गम्भीर बना रहे थे । स्थानीय प्रशासन पूरे वेग से दमनचक्र में सहयोग दे रहा था । और देता भी क्यों नहीं ! वो केवल एक मिल का प्रश्न न रहकर पूरे देश की कपड़ा मिलों के सामूहिक हितों का सवाल था । मिल मालिकों तथा उनको आश्वस्त करने वाले राज्य प्रशासन की प्रतिष्ठा दाँव पर लगी थी ।
वास्तव में पश्चिम बंगाल से उठने वाला यह तूफ़ान अब पूरे वेग से देश के उत्तर-पश्चिम तथा पश्चिम को अपनी लपेट में लेता जा रहा था । परिस्थितियाँ गम्भीर होती जा रही थीं । पूर्वानुमान के साथ श्री अस्थाना आश्वस्त थे कि दो ही दिनों में कोई सम्मानपूर्ण समाधान निकल आयेगा । उन्होंने हड़ताल करने से पूर्व जो माँगें उठाई थीं, उनकी माँगों की सूची से आधी भी नहीं थीं । हड़ताल का आज चालीसवां दिन था । और देश भर के केन्द्रीय श्रमिक संघों के आदेशानुसार संगठनों के स्थानीय नेता अपनी पूर्ण जनशक्ति के साथ प्रदर्शन में सम्मिलित होने जा रहे थे । इस कारण भी आशंका बढ़ गई थी कि श्रमिक कहीं संतुलन न खो दें और कुछ मूर्खता न कर बैठें अथवा प्रतिद्वन्दी से कुछ प्राप्त तो होने से रहा, अवांछित कदम उठा लेने की अब ज़्यादा सम्भावना थी जिसके परिणामस्वरूप स्थिति विस्फ़ोटक हो सकती थी । उनकी आँखों के सामने दृष्य घूम सा गया और उन्हें कंपकंपी हो आयी ।
शर्मा सिर झुकाये उनके कक्ष में प्रवेश कर रहा था । उसे देखते ही अनायास उनके मुंह से निकल गया,”क्या समाचार है ?”
शर्मा ने कुर्सी घसीटते हुए धीरे से उत्तर दिया,”अब और टिक पाने की गुंजाईश नहीं है । मज़दूर कब तक पेट पर पत्थर बांधे शांतिपूर्वक हमारा साथ देंगे ! और प्रशासन की ओर से भी अभी कोई संकेत नहीं मिला । न जाने क्या ठाने बैठे हैं !”
अस्थाना जी ने दीर्घ नि:श्वास लिया और गहरी चिन्ता में डूब गये । कुछ समय पश्चात् जैसे कोई अंतर्प्रेरणा हुई हो, बोल उठे,”ठीक है, आज से मैं अन्नजल का त्याग करता हूं । अब झुकने झुकाने का नहीं, मरने मारने का समय आ गया है । चलिये, मीटिंग का समय हो रहा है ।”
स्टेज पर खड़े होकर दूसरे संघटनों की प्रशंसा तथा स्वागत करते हुए श्री अस्थाना ने संयत शब्दों में कहा कि, “आज मैं कुछ निर्णयात्मक करने आया हूं ।
किस ढब से कोई मक्तल में गया, यह बात सलामत रहती है,
यह जान तो आनी जानी है, इस जान की तो कोई बात नहीं ।
मेरे मज़दूर भाई तथा उनके छोटे छोटे मासूम बच्चे भूखे पेट एकता प्रदर्शित कर रहे हैं और अभावग्रस्त हैं । इसका मुझे खेद है । और ये भरे पेट पूंजीपति उनका इम्तिहान लेने पर तुले हुए हैं । मेरी अन्तर्आत्मा यह गंवारा नहीं करती । इसलिये इसी क्षण से मैं भी अन्नजल का त्याग करता हूं । परिणाम चाहे कुछ भी हो, आपको अपना मनोबल नहीं टूटने देना है ।”
इस घोषणा से कोहराम मच गया । जनसमूह उत्तेजित हो उठा । श्री अस्थाना के तथा श्रमिक एकता के गगनभेदी नारों से अजीब सा माहौल बन गया । बहुतों ने श्री अस्थाना के समर्थन में उनका साथ देने का प्रस्ताव रखा । परन्तु कई एक इसकी आलोचना करने लगे । ख़ास तौर पर लाल सलाम से जुड़े संगठन, जिनके हाथ से नेतृत्व खिसकने लगा था । श्री अस्थाना ने भाषण जारी रखते हुए कहा,
“वैसे भी तो हम आधे पेट ही रहते हैं । और चीथड़ों में अर्धनग्न । यह दशा तो सबके सामने है । हमें समर्थन देने वाले सज्जन उत्तेजित न हों । अनशन केवल मैं करूंगा । और श्रमिक भाईयों को और भूखों नहीं मरने दूंगा । यह मजबूरी इन मिल वालों की पैदा की हुई है क्योंकि यही उत्पादन और धरती के अनाज के मालिक हैं । अभी तो हम केवल मज़दूरी में बढ़ोतरी की बात कर रहे हैं । सत्य तो यह है कि इस पूरे उत्पादन पर हमारा भी अधिकार है । अभी तो हमने मांगा ही क्या है ! दिन-ब-दिन बढ़ती हुई मंहगाई से निपटने के लिये मज़दूरी में जो बढ़ोतरी की मांग की गई है, उसमें भी तो हमारा निर्वाह होना असंभव ही है !
यदि मंहगाई के अनुरूप मज़दूरी का तथा वेतन का तकाज़ा किया जाये तो अधिक न्यायसंगत होगा । हमारी दूसरी मांग सीधा हमारी सन्तान के भविष्य के बारे में है । कल कोई मज़दूर बीमार पड़ जाये तो उसके घर चूल्हा नहीं जलता । और किसी की अकस्मात मृत्यु पर तो उसके बच्चे सड़क पर आ जाते हैं । क्या हमें उनके भविष्य की चिन्ता करने का अधिकार नहीं है ? हमने मांगा क्या है ? प्रत्येक के लिये बुढ़ापे का संरक्षण ! जो कम से कम एक महीने का वेतन अथवा पगार के जितना होना चाहिए और इसकी समुचित राशि का भुगतान किसी आपात्कालीन स्थिति में फौरन बच्चों के हाथ पहुँच जाना चाहिए जिस से मृत बाप के साथ जीते जी न मर जायें । इसीलिये मैने यह निश्चय किया है कि तिल तिल मरने की अपेक्षा इस लोहे के गेट के सामने भूख-प्यास से प्राण त्याग दूं । यह मेरी प्रतिज्ञा है ।”
पहले की तरह श्री अस्थाना अलग अलग मज़दूर संगठनों तथा मज़दूर एकता की जय के नारे बुलन्द कर रहे थे कि इतने में गेट के पास कुछ हलचल हुई । किसी ने एक हथगोला घुमाकर गेट के पास उछाल दिया था । फिर क्या था, अन्धाधुन्ध गोलियों कि बाढ़ सी आ गई । जिसका जिधर मुंह पड़ा, सुरक्षा के लिये भाग निकला । मिल के पिछले भाग से धुआँ उठने लगा और देखते ही देखते रुई का गोदाम धक धक कर जल उठा और समाचारपत्रों के अनुसार करोड़ों रूपये की सम्पत्ति देखते ही देखते राख हो गई ।
श्री अस्थाना की आशंका निर्मूल नहीं थी । जो घटना था घट चुका था । गृह विभाग तक सारा प्रशासन खीझ उठा । परिस्थिति जटिल से जटिलतर हो गई । प्रशासन जानता था कि निर्णय में देरी ऐसा ही कुछ प्रचंड रूप धारण कर सकती है । परन्तु लगता है कि यह सब जानबूझकर किया गया था । नुकसान तो अवश्य हुआ होगा ! परन्तु जैसा आम तौर पर होता है, सरकारी कर्ज़ से प्राप्त की गई आधुनिक मशीनें और कल पुर्ज़े तो पहले ही ठिकाने लग जाते हैं । जो जलता है, वो केवल जलाने के लिये ही छोड़ा जाता है, जिसकी मालिकों को विशेष चिन्ता नहीं थी ।
इस घटना से दूर दूर के औद्यौगिक क्षेत्र प्रभावित हुए । लोक सभा तथा राज्य सभा में हंगामे उठे । सक्सेनाजी, त्रिपाठी, त्यागी और ब्रह्मचारी जी की गाड़ियाँ दौड़ने लगीं ताकि इस विनाश से जितना राजनैतिक लाभ उठाया जा सके, उठा लिया जाये । मिल के प्रबंधकों की Board Meeting हुई परन्तु परिणाम वही ‘ढाक के तीन पात’ निकला । हां, पहले से ही भूखे मज़दूर बेकार हो गये और सैकड़ों जेल में ठूंस दिये गये ।
“समाचारपत्र में तुम्हारी गिरफ़्तारी का सचित्र समाचार देखा । पढ़कर बहुत व्याकुल हुई । परन्तु किया क्या जाये ! इसपर भी तुम मानने वाले थोड़े ही हो ! तुम्हारे प्रति संवेदना होते हुए भी विशेष कुछ नहीं कर सकती । क्षमा करना, मैं एक पराधीन नारी हूं । चाहकर भी किसी को तुम्हारी सहायता के लिये नहीं भेज सकती । यह मेरे सामने एक पुस्तक पड़ी है, जिसपर तुम्हारे हस्ताक्षर किये हुए हैं । शायद कभी बड़े प्रेम से उपहार में दी होगी । बहुत सुन्दर पुस्तक है । ’Beyond Communism’, श्री M. N. Roy की लिखी हुई । बहुत प्रभावशाली विचार दिये हैं । विषय विशेष, जो मुझे बहुत अच्छा लगता है, वो किसी प्रकार की राष्ट्रभावना से भी ऊँचे स्तर की अनुभूति का सूचक है । किसी जाति के राष्ट्रवाद के अहम् के फलस्वरूप हिटलर तो पैदा हो सकते हैं, परन्तु समाज को दिशा नहीं मिल सकती । वहां शान्ति तथा समृद्धि के प्रयास में जूझता समाज एक व्यक्ति पर निर्भर है । मूल रूप से ईकाई व्यक्ति है, न कि समाज । राष्ट्र अथवा उसका इतिहास – चाहे कितना भी गौरवशाली क्यों न हो – यदि आज, और आज ही, जनसाधारण को जीवनयापन की सुविधायें प्रदान नहीं कर सकता, जिससे वे अच्छे नागरिक उत्पन्न कर सकें, तो वो समाज, राष्ट्र अथवा अन्तर्राष्ट्रीय संगठन भी हानिकारक ही हो सकते हैं, सुखदायी नहीं ।
दूसरा विचार ’धर्म’ राजनैतिक निरर्थकता है । यह व्यक्तिगत होना चाहिये । यदि इसे किसी रूप में भी समुदाय का रूप धारण करने दिया जायेगा तो वो नकारात्मक प्रवृति को ही जन्म देगा । जिस से व्यक्ति को लाभ तो ख़ैर क्या पहुँच सकता है, हानि अवश्य होगी । क्या क्या लिखूं ! वो व्यक्ति, लगता है ऐसा ही था, जिसने अपना पूरा जीवन समाजवादी देशों में गुज़ारा, अपने देशवासियों को चेताने के लिये आखिरी दम तक प्रयास करता रहा । मुझे ज्ञात है, इसका तुमने गहराई से अध्ययन किया हुआ है । परन्तु स्वार्थवश तुम समाज से, परिवार से और विशेषकर मुझसे बहुत दूर निकल गये हो । और लगता है, यही हमारा भाग्य है । विशेष कुछ नहीं लिखूंगी । मेरी आत्मा आज भी पुकार पुकार कर कह रही है कि समय रहते लौट आओ ।
अभागी प्रतिभा”
परन्तु आत्मायें केवल आत्माओं को ही छू सकती हैं । और जिस व्यक्ति ने अपनी आत्मा सहर्श शैतान के सुपुर्द कर रखी हो, वो आत्माहीन व्यक्ति स्वयम् तो नर्क में जायेगा ही, अपने साथियों को भी ले मरेगा ।
समाप्त