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Meeting of an author with his reader

Published by MISHRA BRAJENDRA NATH in category Hindi | Hindi Story | Social and Moral with tag author | book | reader

एक पाठक से मुलाकात

three-books

Hindi Story – Meeting of an author with his reader
Photo credit: xenia from morguefile.com

मैं आज आपको अपने एक ऐसे पाठक से मुलाकात की छोटी – सी दास्ताँ कहना चाहता हूँ, जिसे भारी भरकम, लच्छेदार, अलंकारी शब्दों द्वारा बयाँ नहीं किया जा सकता।

वह लड़का, एक 20 साल का इंटर साइंस पढ़ा हुआ लड़का है जिससे मेरी मुलाकात हुई। उसने पिछली 11 तारीख (मार्च) की शाम जब मेरे घर पर दस्तक दी थी, और उसी ने बताया था कि वह मुझसे मिला था और मेरी किताब लेने की इच्छा प्रकट की थी, मुझे याद नहीं आ रहा था कि मैं उससे कब और किन परिस्थितियों में मिला था। उसने मुझसे किताब लेने की इच्छा जाहिर की थी बस यही मेरे लिए काफी था।

फिर भी मैंने यादों को कुरेदकर किसी कोने में पडी धुंधलाती सतह को चमकाया तो कुछ – कुछ पटल पर स्पष्ट होता दिखाई दिया। सुनील यही नाम है उसका। मेरी पुस्तक “छाँव का सुख” के लोकार्पण के दिन यानि 26-02-2016, दिन शुक्रवार  को पूरे कार्यक्रम को कवर करने के लिए विडिओग्राफर और फोटोग्राफर की जो टीम मैंने लगा रखी थी वह उसी का सदस्य था। 26-02-2016 के लोकार्पण के चित्र संकलन मैं फेसबुक वाल पर पोस्ट कर चुका हूँ।

लोकार्पण के दिन पुस्तक पर हुई चर्चा पर किस रूप में और कितना प्रभावित हुआ मैं नहीं जानता, वह सारी गतिविधियों को बड़ी बारीकी से अपने कैमरे में कैद करता रहा। लोकार्पण कार्यक्रम के अंत में जब सारे अतिथि, दर्शक और श्रोता जा चुके थे, तो उसने मुझे अकेला पाकर नजदीक आकर कहा था, “अंकल, मैं पुस्तक लेना चाहता हूँ।”

“ठीक है, जब तुम मुझे घर पर आकर वीडियो और फोटोग्राफ आदि देने आओगे तो पुस्तक भी ले लेना।”

ऐसा मैंने उसे एक तरह से टालने की मंशा से ही कहा था। शायद मैंने सोचा होगा कि अभी इस कच्ची उम्र में इस नौजवान को साहित्य की कितनी समझ हो सकती है। संभवतः मैंने इसीलिये टाल दिया हो।

उस दिन के संवाद के बाद करीब 13 दिनों बाद आज शाम 8:00 बजे (11 मार्च) मेरे घर के दरवाजे पर दस्तक के बाद मैंने दरवाजा खोला तो मैं उसे पहचान नहीं सका। मैंने उसपर  संदेह और आश्चर्यमिश्रित दृष्टि  डालते हुए प्रश्न किया, “क्या बात है? क्या चाहिए?”

उसने झिझकते हुए कहा, “जी, मैं सुनील, वीडियो और फोटोग्राफर की टीम के साथ था। उस दिन लोकार्पण  के बाद मैंने आपकी लिखी पुस्तक लेने की इच्छा जाहिर की थी। उसी के लिए आया हूँ।”

मैंने अपने मस्तिष्क पर जोर डालते हुए याद करने की कोशिश की, “सुनील, अच्छा, तुम फोटोग्राफर  की टीम के साथ थे? तुम पुस्तक लेना चाहते हो? आओ, आओ अंदर आओ?” मैंने उसे घर के अंदर बुला लिया।

बातों के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए और उसके साथ खुद को थोड़ा अधिक संयत और परिचित करने के लिए मैंने पूछा, “तुम कहाँ रहते हो?”

“मैं खडंगाझाड़ में रहता हूँ।” उसने सहज उत्तर दिया था.

“खडगाझाड़ तो यहां से करीब 10 किलोमीटर दूर है। इतनी दूर से क्या तुम सिर्फ मेरी किताब लेने आये हो?” मेरा प्रश्न पूछना जरूरी था।

सुनील ने झेंपते हुए कहा था, “मुख्य काम तो किताब लेना ही था। लेकिन जब इधर आने लगा तो एक काम और ले लिया। पेन ड्राइव में फोटोग्राफ देना है, यहीं पास में।”

मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। क्या ऐसा नौजवान एक पुस्तक लेने के लिए इतनी दूर से बाइक चलाकर आ सकता है? वह भी एक ऐसी पुस्तक जो न उसके सिलेबस की है, न ही कोई ब्यक्तित्व विकास के लिए किसी के द्वारा मीडिया में या कोचिंग इंस्टिट्यूट में बताई गई है और न ही इतनी मशहूर हो गई हो, कोई क्यों लेना चाहताहै? कोई अनिवार्यता नहीं थी उसके लिए पुस्तक प्राप्त करने की। फिर क्यों उसने मेरी कहानियों के संग्रह के रूप में प्रकाशित मेरी यह पुस्तक खरीदनी चाही है? मेरे मस्तिष्क में उमड़ते- घुमड़ते इन सारे सवालों का उत्तर खोजते हुए ही मैं दूसरे कमरे में जाकर पुस्तक ले आया था। मैंने उसे झिझकते हुए ही पुस्तक दी यह सोचते हुए कि पता नहीं इस पुस्तक का मूल्य चूका पायेगा या नहीं?

पुस्तक हाथ में लेते ही उसने अपने पॉकेट से 500 रुपये का एक नोट निकालकर मुझे थमाते हुए कहा था, “सर, इसमें से पुस्तक का मूल्य ले लीजिये।”

मेरी आँखों में आंसू छलक आये. मैंने बहुत पैसो वालों, साहित्य वाङ्गमय पर शोधग्रंथ लिखने वालों, मेरे कई सेवा – निवृत, खूब पेंसन और एफ डी (फिक्स्ड डिपाजिट) पर लाखों रुपये इंटरेस्ट पाने वाले मित्रों को पुस्तक  दी है। अधिकाँश ने  बिना कोई मूल्य दिए पुस्तक को भेंट के रूप में ही स्वीकार करने की ही चेष्टा की है  जैसे वे पुस्तक को स्वीकार कर मुझपर उपकार करने का फर्ज निभा रहे हों।

मैंने सुनील को एक पुस्तक दी। पुस्तक का मूल्य लेकर बाकी के पैसे लौटाते हुए उसे एक पुस्तक और दी, साथ ही उससे कहा, “तुम्हें किताब खुद तो पढनी ही है, और कम – से – कम चार लोगों को और पढ़ानी है।”

उसने दोनों पुस्तकें ग्रहण की और मुझे धन्यवाद कहकर चला गया. वह तो चला गया परन्तु मेरे अंतर्मन को झकझोर गया। क्या दूर – दराज में बसे गाँवों और कस्बों में भी लोग हैं जो पठनीय और ग्राह्य हिन्दी साहित्य के फिक्सन का इंतज़ार कर रहे हैं? यह लेखकों और प्रकाशकों के लिए एक चुनौती है, वैसे पाठकों तक कैसे पहुंचे? इसके लिए रोड मैप क्या हो सकता है? यह प्रश्न सबों के लिए मुंह बाए खड़ा है। जवाब ढूढ़ें…

 

(सत्य प्रसंग पर आधारित, मौलिक एवं अप्रकाशित)

–ब्रजेंद्र नाथ मिश्र,

तारीख: 11-03-2016, जमशेदपुर।

–END–

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