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When Father Addresses Daughter As Son

Published by Durga Prasad in category Hindi | Hindi Story | Social and Moral with tag college | daughter | father | Teacher

पिता जब बेटी को बेटा कहकर पुकारते हैं

मुझे उच्च शिक्षा के लिए धनबाद में रहना पड़ता था, क्योंकि मेरे गाँव से सुबह धनबाद जाने की कोई आवागमन की सुविधा उपलब्ध नहीं थी | इसलिए मुझे फूफा जी के क्वार्टर में रहना पड़ता था | वहीं से सुबह बस स्टेंड निकल जाता था और कोई भी बस पकड़कर आर एस पी कालेज, झरिया पहुँच जाता था | वाणिज्य की क्लास सुबह सात बजे से होती थी | वर्मा जी और वीरेंद्र सर हमारे प्रोफ़ेसर थे जो वाणिज्य के विषयों को बड़े ही सहज तरीके से हमें पढ़ाते थे | वाणिज्य के विषयों में उनकी अच्छी पकड़ थी |
वीरेंद्र सर से हम यदा – कदा धोबाटांड के घर में पढने जाते थे |
उनकी एक बेटी थी – सात – आठ साल की जिसे वे बड़े ही प्यार व दुलार से बेटा कहकर पुकारते थे , नाम था, जो उन्होंने सोच समझकर रख दिया था, “लूसी” | जब आर एन सिंह सर अंगरेजी पोएट्री पढ़ाने आते थे बड़े ही भावपूर्ण ढंग से कविता की व्याख्या अर्थ सहित करते थे | उनका मुखारविंद उस समय के फ़िल्मी दुनिया के लोकप्रिय नायक सुनील दत्त से कद – काठी , चाल – ढाल और स्टाईल से मिलता – जुलता था इसलिए हमलोग उनको सुनील दत्त ही कहते थे | हैंडसम इतने थे कि कोई एकबार देख ले तो सम्मोहित हुए बिना अपने को रोक नहीं सकता | विलियम वर्ड्सवर्थ की लोकप्रिय कविता (पोएम) “लूसी ग्रे” जब सिंह साहब पढ़ाते थे तो मंत्रमुग्ध स्वयं हो जाते थे और हमें भी कर देते थे | लूसी की दुखभरी दास्ताँ थी कविता में , इसलिए मेरी समझ में इस नाम के पार्श्व में जो रहस्य था उसे समझने में ज्यादा वक़्त न लगा और वैसे भी इस उम्र तक आते – आते मैंने बीस से अधिक ही डिटेक्टिव बुक कानन आर्थर डायल, इब्ने सफी बी ए इत्यादि के पढ़ चुका था |

प्रोफ़ेसर वीरेंद्र कुमार लूसी को बेटा कहकर पुकारते थे इसके पार्श्व में जो रहस्य सन्निहित था वो था उनकी दर्दभरी दास्ताँ | लूसी उनकी पहली संतान थीं और जन्म से ही लकवाग्रस्त थीं पाँव में जिससे वह सामान्यरूप से चल फिरने में असमर्थ थी | प्रोफ़ेसर साहब लूसी को बेहद प्यार व दुलार करते थे और खुद पढ़ाते थे , उनके मन में एक विचार ने घर कर लिया था कि उसे वे शिक्षा देकर इस काबिल बना देंगे कि वह अपने भावी जीवन में अपने को भली – भांती स्थापित कर सके और अपने पैरों पर खड़ी हो सके, किसी का मोहताज न हो | जो पीड़ा मन में प्रोफ़ेसर साहब पाले हुए थे उसे दिनभर लूसी को बेटा – बेटा कहकर संबोधित कर कम करने का अथक प्रयास करते थे , लेकिन यह वह व्यथा थी जो कम होने का नाम ही नहीं लेती थी |

वे जब भी एकांत में होते थे तो ईश्वर की प्रार्थना में तल्लीन हो जाते थे इस कदर कि किसी की आहट भी उन्हें आहत नहीं कर पाती थी |
वो कहते हैं न कि सच्चे मन से ईश्वर की प्रार्थना की जाय तो एक न एक दिन अवश्य वे स्वयं मदद करने चल पड़ते हैं |

यही हुआ सर के साथ लूसी अब चलने – फिरने लगी और पढाई के साथ – साथ कोई अच्छी सी सरकारी जॉब की तैयारी में लग गयी | ,
मैं जब भी झरिया किसी काम से जाता था तो सर से मिलने का प्रोग्राम अवस्य बना लेता था , कुछ स्वीट्स ले जाना कभी नहीं भूलता था |
एक दिन उनके अनुज, जो मेरे गाँव के एक कारखाने में काम करता था, से पता चला कि लूसी की शादी होनेवाली है | मुझसे रहा नहीं गया और मैं दूसरे दिन सुबह स्कूटी से चल दिया | जाड़े का दिन था और वे बाहर बारांडे में धुप सेक रहे थे | मुझे देखते ही खुशी का इजहार करते हुए स्वागत में खड़े हो गये | मैं भी झुककर चरण स्पर्श किया तो उन्होंने मुझे उठाकर अपनी बाहों में लपेट लिए |
का हो दुर्गा ! ढेर दिन पर ?

हाँ , सर , आपके आशीर्वाद से मेरी पदोन्नति वित्त पदाधिकारी में हो गयी है और अब हेड क्वार्टर में पोस्टेड हूँ , घर से आना – जाना करता हूँ , इसी स्कूटी से , वही कोई आठ – दस किलोमीटर होगा घर से |

वो तो होना ही था | बाल – गोपाल ?

सभी डी पी एस में पढ़ते हैं | हाउस बिल्डिंग लोन लेकर अपना घर बना लिया है |

लूसी बेटा कैसी है ?

अगले महीने लूसी बेटा का विवाह है | ईश्वर ने प्रार्थना सुन ली , अब बहुत ठीक है | ग्रेजुएसन भी कर ली है |

सर ! मुझसे कुछ ? संकोच मत कीजिये , लूसी मेरा भी बेटा है |

एक बनारसी साड़ी हज़ार – बारह सौ में ?

कलर ?

नेवी ब्लू |

मेरा छोटा साढू होल सेलर है बनारस में, वहीं से मंगवा देता हूँ | प्योर सिल्क का !

तब तो बहुत … ?

इसमें क्या शक है ? समय से पहले आ जाएगा |

लूसी बेटा की शादी में खर्च से कोई समझौता नहीं |

लूसी बेटे के लिए और कुछ ?

ऐसा होगा तो सूचित कर दूंगा बबुआ से , रोज तो तुम्हारे घर होकर फैक्टरी जाता है |

मैं आने लगा तो मुझे हाथों में लेते हुए मुखर पड़े , “ लूसी बेटे की शादी में अवश्य आना |

हाँ , सर इसमें भी कहने की बात है |

प्रोफ़ेसर बिरेन्द्र बाबू विनम्रता की जीवंत मूर्ति थे | होठों पर मुस्कान जब किसी से भी मुखातिब होते थे तो अनायास कौंध जाती थी | हंसमुख ! गोरा मुखारविंद ! गोल चेहरा ! बड़ा ही सीधा – साधा ! सजन्न्ता जैसे उनमें कूट – कूट कर भरी हुई हो | वाणी में माधुर्य | आँखों में प्रखरता ! मन – मानस में तीक्ष्ण बुद्धि , विषय – वस्तु की ठोस पकड़ !

मुझे वे वही मुस्कान के साथ सड़क तक छोड़ने आये | देखा वे आज मुझसे मिलकर अंतर से द्रवित हो गये हैं और आंसुओं को रोकने का अथक प्रयास कर रहे हैं फिर भी आंसूं जो थे थमने का नाम तक न ले रहे हैं – बहते जा रहे हैं अनवरत |

मेरी आँखें भी नम हो गईं | मैं बहुत शीघ्र भावुक हो जाता हूँ किसी अपनों को ऐसी अवस्था में देखकर , इसलिए किक मारी, स्कूटी स्टार्ट होते ही चल दिया |

–END–

लेखक : दुर्गा प्रसाद

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