लास्ट बेंच वाली लड़की: This Hindi story is about a girl from a small village who uses every means to fulfill her ambitions and goals in life.
सुबह 8:30 पे ह्यूमन राइट्स की क्लास थी और लेक्चर मिस ना हो जाये इसलिए तेजी से क्लास की ओर भागी जा रही थी।
” ओए..पूजा! कहा भागी जा रही है? रुक तो जा।” पीछे से रति ने आवाज़ दी।
मै वही ठिठक गई। ” अजय सर की क्लास अटेंड करनी है ना! आज थोड़ी लेट हो गई घर से निकलने में।” मैंने हाफ्ते हुए बोला।
” अरे आज सर लेक्चर नही लेंगे क्योंकि वो किसी जरुरी काम से चले गए हैं लेकिन आज उनके पीरियड पे विनोद सर लेक्चर लेने वाले हैं।” रति ने मुश्कुराते हुए बोला।
मै तो बहुत खुश हुई, चलो बोरिंग लेक्चर से पीछा छूटा।
यूनिवर्सिटी में एडमिशन लिए हुए मुझे एक महीने हो चुके थे। अब तक में मेरी फ्रेंड्स सर्किल काफी लम्बी हो चुकी थी। क्लास में आते ही मै अपने गैंग से घिर गई। अचानक मेरी नज़र लास्ट बेंच पे बैठी एक लड़की पे पड़ी। वो चुपचाप बेंच के साइड कार्नर पे बैठी हुई थी।
मैंने आश्चर्य से ऋचा से पूछा, ” ये नई लड़की कौन है जो सबसे पीछे बैठी हैं?”
” अरे! ये सविता हैं। लेट एडमिशन हैं ना इसलिए आज ही क्लास में आई हैं। but please! पूजा इससे बात मत करना, अच्छी लड़की नही हैं।” ऋचा ने काफी गन्दा सा मुह बनाते हुए बोला।
“अच्छी लड़की नही है” से का क्या मतलब था ऋचा का? मुझे तो ये लाइन ही थोड़ी अजीब सी लगी। पर ” बात मत करना” ने सविता के प्रति मेरे अंदर एक जिज्ञासा पैदा कर दी। ‘लास्ट बेंच वाली लड़की’ मुझे उस लाइन की वजह से ‘कुछ ख़ास’ लगने लग गई। मेरे मन ने तो ठान तक लिया कि अब मै तो उससे बात करके ही मानूंगी। देखू तो सही उसमे ऐसा क्या है..जिस वजह से मुझे सविता से बात नही करनी चाहिए। अपने इसी ख्यालों में डूबी ही थी कि विनोद सर क्लास रुम की ओर आते दिखे। क्लास में तो जैसे भगदड़ सी मच गई। सब बैठने के लिए अपनी अपनी सीट ढूंढने मे लग गए। एक पल मे पूरी सीट भर चुकी थी। मै बच गई सो खुद की बैठने की जगह ढूंढने के लिए पुरे क्लास में मैंने एक सरसरी निगाह घुमाई। अचानक मेरी निगाह उस ‘लास्ट बेंच वाली लड़की’ की सीट पे गई। उस पुरे बेंच पे वो अकेली ही बैठी थी, मरता क्या ना करता, मै भी उसी के साइड पे जा बैठी। सर तब तक आ चुके थे।
45 मिनट के उस पुरे लेक्चर में मेरा सारा ध्यान लेक्चर से ज्यादा उस लड़की सविता पे लगा रहा। और ऋचा की कही बात मेरे दिमाग में गोल गोल घुमती रही। 45 मिनट उसी उहापोह में कब गुज़रे पता ही नही चला और बेल लग गई। सर जैसे ही निकले, हम भी कैंटीन की ओर चल पड़े। ना चाहते हुए भी मैंने उसे पीछे मुड़ के देखा, वो भी मुझे ही देख रही थी। अचानक मै रुकी, ” ऋचा! तुम सब कैंटीन चलो, मै बस थोड़ी ही देर में आती हू….कुछ काम हैं अभी।”
ऋचा ने मुझे प्रश्नात्मक नज़रो देखा और पूछने लग गई, ” क्यों? क्या काम है बोल तो सही मै करवा देती हु।”
मैंने बोला, ” अरे ! कुछ ख़ास नही बस तुम लोग चलो तो सही…बोला ना आ रही हू।”, ऋचा हसते हुए बोली, “ok मैडम! but जल्दी आना, कही चिपक मत जाना।”
मैंने भी हसते हुए जवाब दिया, “हा! हा! नही चिपकुंगी कही, डायरेक्ट तुम लोग के पास ही आउंगी।” सारे फ्रेंड्स कैंटीन गये और मै सविता की ओर जाने के लिए मुड़ी। वो अभी तक मुझे ही देख रही थी। मैंने उसके पास जा के पूछा, “न्यू एडमिशन ? नाम क्या है तुम्हारा? आज ही आई हो?” मैंने तो जैसे प्रश्नों की झड़ी सी लगा दी उसपर। उसके चेहरे के भाव से साफ़ लग रहा था कि वो काफी डरी और घबराई सी हैं।
” वो मै सविता…हा! आज….से…ही आई हू ।” हडबडी में सविता ने जवाब दिया।
मैंने उसे ऊपर से नीचे तक बड़े ध्यान से देखा। क्रीम कलर की सलवार कमीज, बाल भी अस्त-व्यस्त, रंग गोरा लेकिन चेहरे से लगा जैसे सीधे बेड से चली आ रही हो। उस वक़्त वो ऋचा की कही बात को पूरी तरह से चित्रार्थ कर रही थी। मैंने उसका हाथ पकड़ा और कैंटीन ले आई। मैंने उसे अपने सारे दोस्तों से मिलवाया। फिर चाय समोसे का आर्डर दे के ऋचा के बगल में जा बैठी। “हम्म..तो ये था तेरा जरुरी काम! तुझे मना किया था ना फिर?” ऋचा ने अपना मुह मेरे कान पे सटा के बोला।
“हा! ठीक है! ठीक है।” मैंने भी बोल के मुश्कुरा दिया। अब तो सविता मेरे साथ धीरे-धीरे सहज होने लगी थी। क्लास में मेरे साथ ही बैठती।उसकी हर बात हर चीज अब मुझसे जुड चुकी थी।
सविता एक छोटे से गावँ कामता से आयी थी। लड़की पढ़ाई में ठीक ठाक थी तो घरवालों ने यहा एडमिशन करा दिया। धीरे-धीरे मेरे पद चिन्हों पे चल के सविता के रहन-सहन तौर-तरीको में काफी सुधार हो चला था। अब तो क्लास के सारे बच्चे सविता से बात करने लगे थे। सब बोलते, “पूजा! तुमने तो चमत्कार ही कर दिया..सविता जैसी लड़की को एकदम बदल के रख दिया।”
सब तारीफ़ करते और मै खुश होती। सविता के घरवाले भी मुझपर आँख मूँद कर भरोसा करते। वो शहर भी पहली बार मेरे साथ ही घूमने गई। अब तो सब हमे ‘दो हंसों’ का जोड़ा भी बोलने लग गए थे। धीरे धीरे वक़्त गुज़रा, लगभग हमारे सारे सेमेस्टर पूरे हो चुके थे। हमने समर ट्रेनिंग भी एकसाथ एक ही आर्गेनाइजेशन में की। ट्रेनिंग के दौरान एक मीटिंग में एक सर ने हम सभी से हमारे करिअर प्लानिंग के बारे में पूछा।सबने अपनी-अपनी प्लानिंग बताई जब बारी सविता की आयी तो चहक के बोली, “सर! मेरे बहुत सारे सपने हैं, मै बहुत सारा पैसा कमाना चाहती हू।”
अचानक सब हसने लग गए और मै भी। मुझे लगा कि सपने देखना तक तो ठीक हैं पर जॉब करना सविता के वश का रोग नही। पर जब मैंने उसकी आँखों में सपनों और महत्वाकांक्षाओ का घुमड़ता शैलाब देखा तो थोड़ी ठिठक सी गई। ट्रेंनिंग पूरी हुई और लास्ट सेमेस्टर भी।
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पढाई पूरी होने के साथ ही सारे दोस्त भी बिछड़ गए। सभी जॉब करने के साथ साथ अपनी पुरानी ज़िन्दगी में वापस लौट चुके थे और मै भी। लेकिन फिर भी सभी दोस्त फ़ोन और सोशल साईट के जरिए एक दुसरे से कनेक्ट थे। बस सविता ही हमसे डिसकनेक्ट हो चुकी थी। क्योंकि उसके पास ना तो फ़ोन था और ना ही नेट कनेक्शन। मै भी अपनी जॉब में व्यस्त हो गई सो वक़्त ही नही मिला उसके बारे में पता करने का। पर मन के किसी कोने में सविता के बारे में जानने की लालसा दबी हुई थी।
अचानक एक दिन सविता के बारे पता चला। विनोद सर के प्रयासों से सविता की जॉब लग चुकी थी मध्य प्रदेश के किसी आर्गेनाइजेशन में। उसने मेरा नंबर मेरे घर से लिया और फिर से हम एक दुसरे से कनेक्ट हो गए। संजोग से सविता मेरे शहर किसी सेमिनार को अटेंड करने आयी। मिलने की चाह और ख़ुशी में ऑफिस से आधे दिन की छुट्टी ली और पहुँच गई उससे मिलने। सीधे उसके होटल पहुची और उसके रुम की बेल बजाई। जैसे ही दरवाज़ा खुला…मै उसे ऊपर से नीचे तक आश्चर्यचकित हो अपलक निहारती रह गई।हेयर स्टाइल, कपड़े और वो खुद सविता पूरी तरीके से बदल चुकी थी, वो अब “लास्ट बेंच वाली लड़की” नही रह गई थी जो कभी डरी सहमी सी चुपचाप बैठी रहती थी जो मेरे बिना एक पग भी चलने में घबराती थी।आज जो मेरे सामने खड़ी थी वो बड़े शहर की चकाचौंध में गुम हुई एक मॉडर्न लड़की खड़ी थी। एक छोटे से गावँ से आयी…एक साधारण सी दिखने वाली लड़की सविता कहि पीछे छूट चुकी थी।
आज जिससे मिली वो मेरी सविता तो बिलकुल भी नही थी। इतने सालों बाद मिलने की ख़ुशी ना जाने कहा फ़ुर्र हो गई थी। हम लोग अंदर आये और कॉफ़ी के सिप के साथ एक दुसरे की नई पुरानी बातें साझा की। बातों बातों में उसके इस सफलता का सच सामने आया। हम दोनों ने आगे बढ़ने के दो अलग अलग रास्ते चुने..मैंने सीधा रास्ता चुना और उसने शॉर्टकट। उसका ये शॉर्टकट उसी की अति महत्वकांक्षावादी सोच का परिणाम था। इस मुलाक़ात के बाद भी कई मुलाक़ाते और फ़ोन कॉल्स भी हुए। पर अब हमारे बीच सब कुछ ओपचारिकता मात्र रह गई थी।धीरे-धीरे मिलना जुलना फ़ोन कॉल्स सब कम हो गया और एक वक़्त ऐसा भी आया जब उसने झूठ बोलना और बहाने बनाना भी शुरु कर दिया यहा तक कि मेरा फ़ोन उठाना ही बंद कर दिया। मेरा आहत मन ये बात स्वीकारने को तैयार ही नही हो रहा था…कोई इतनी जल्दी कैसे बदल सकता हैं। एक वो भी दिन था जब उससे कोई बात तक करना पसंद नही करता था और आज वो मुझे ही भूल चुकी थी। शायद…आज उसके लिए स्वार्थ रिश्तों से कही ज्यादा ऊपर था। हमारी दोस्ती दम तोड़ चुकी थी।
एकाएक मेरी आँखों से आंसू बहने लगे और उस वक़्त बरबस मुझे मेरी माँ की कही बात याद आयी…”बेटा! अगर कोई तुम्हे बदला हुआ लगे तो समझ जाना कि वो बहुत आगे बढ़ चुका हैं। इस बात के लिए कभी दुखी मत होना बल्कि ये सोच के खुश होना कि वो शायद तुम्हारे साथ चलने लायक नही था इसलिए आगे बढ़ गया।”
माँ की दी उस सीख ने मेरे अंदर नई उर्जा का संचार किया और मै फिर से उसी ऊर्जा और ज़ोश के साथ उठी, मैंने अपने आंसू पोंछे और फटाफट तैयार हो कर निकल गई ऑफिस के लिये….!
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