सुना है हवाएं भी बातें करती है। कभी किसी अनजान और निर्जन स्थान पे एकांत में थोडा समय निकाल कर बैठना और आस पास की हवाओं से विचार विमर्श करना। बहुत ही अनोखी भाषा होती है इनकी, बस दिल को ऐसे छु लेती है जैसे मानो कोई गहरी याद तुम्हारे दिल के तार को छेड़ गयी।
आज फिर वो एकांत में पहाड़ों के बीच बैठे अपने आप को कोस रही है। वेदिका नाम है उसका। आँखों से आसूं गालों की तरफ अपनी मंजिल तय करते हुए, चेहरे पे एक अविस्मर्णीय स्मृति, हताश और निराश अपने आप से। आज फिर उसे अपने पापा की याद सता रही है। आज फिर शायद वो अपने ज़िन्दगी की कोई जरुरी कार्य करने में अन्नुतिर्ण हो गयी। इंसानों से ज्यादा उसे पहाड़ो, हवाओं, पंछियों, और नदियों से प्यार था। शायद इस लिए वो अपनी सभी बातें इन्ही लोगों से अनुकरण करती थी। और उसे ख़ुशी भी मिल जाती थी अपनी सारी बातें इनसे बाँट के।
“हवाओं और पहाड़ों का बंधन भी अजीब होता है। हवाएं तेज और तरार होती है, पहाड़ स्थिर और अटूट, फिर भी दोनों में मानो जनम-जनम का रिश्ता हो। जब भी कोई तेज़ हवा का झोंका बहते हुए पहाड़ों की तरफ आता है, यह स्थिर पहाडें उसे गले से लगा लेती है, मनो कोई माँ अपने छोटे से बच्चे को भागते हुए गले से लगा रही हो।” वेदिका ने एकटक पहाड़ों पे नजर जमाये हुए अपने मन से बात की।
हवा का एक झोंका आया फिर से और देखते ही देखते फिर से पहाड़ों से टकरा गया।
“इस सृष्टि की संरचना ही इस प्रकार की गयी है। हम सब आपस में एक दुसरे से जुड़े हुए है। शायद इस सृष्टि में जैसा प्यार है वैसा कहीं नहीं। नदियाँ बहते बहते समुंदर में खुद को समेत लेती है, हवाएं आपस में एक अनोखी धुन गुनगुनाने लगते है, कभी कभी बातें भी करते है एक दुसरे से, पानी की कोई सीमा नही होती, बहते बहते खुद से ही अलग हो जाती है कभी कभी। सृष्टि अनोखी है।” एक देह विहीन और अदृश्य आवाज की स्मरण हुयी। शायद उसके मन की आवाज थी। ऐसा पहली बार नहीं था की वो खुद से बातें कर रही हो, बहुत मर्तबा उसे अपने आप से बातें करते हुए पाया गया है।
“जी आप कौन?” वेदिका ने आश्चर्य से पुछा।
“ना तो मेरी कोई तारीफ़ है, ना तो मेरा कोई नाम है। मैं एक उलझा हुआ अदृश्य,मंगढ़ित सजीव हु। मैं सबमें हूँ, और मेरा कोई मोल नहीं है। मैं हर एक इंसान से बातें करता हूँ। पर आज तक मुझे कोई समझ नहीं पाया, लोगो के इतने करीब होने के बावजूद। मेरा सुलझना एक रहस्य है जो बहुत कम लोग जानते है, जो मुझे सुलझा ले गए मानो वो इस दुनिया का सर्वश्रेष्ठ कार्य कर गया।” एक भारी सी आवाज ने उत्तर दिया।
“ऐसा क्या है तुम में, क्यूँ इतने उलझे हुए हो तुम?”
“इंसानों की आदत है मुझे उलझाना। मैं वो हूँ जिसमे एक छोटा मजबूर बच्चा अपना बचपन ढूँढता है, एक जवान व्यक्ति अपना खोया हुआ अस्तित्व ढूँढता है, एक बूढा अपने जीने और बुढ़ापे का सहारा ढूँढता है। मुझे सुलझाना उतना ही आसान है जितना खुली हवाओं के बीच ताज़ा आहें भरना। पर लोग अपने व्यस्त दिनचर्या के बीच मुझे अपना वक़्त नहीं दे पाते और मैं बस उलझता जाता हूँ, दूर होता जाता हूँ कहीं, इंसानों के अस्तित्व से।”
“तो क्या तुम्हारा सुलझना मुमकिन नहीं?”
“दुनिया में क्या मुमकिन नहीं है। आज एक इंसान मुझे दुसरे इंसानों में ढूँढता है, मेरी तुलना अपने आप से दुसरे इंसानों में करता है। मैं बेहतर बन सकता हु, बहुत बेहतर, बस इन्सान अपने मन के भीतर की बात को परखना शुरू कर दे। इन्सान अपने दिल के प्रतिक्रिया से निर्णय ले। इंसान दुसरे इंसान से प्यार करने लगे, भेदभाव न करे, सत्यवादी रहे, अपने अन्दर को गुणों को परखने की क्षमता रखे। और हर एक इंसान खुशाल हो जायेगा।”
“तुम हो कौन?”
“निर्जीव, मैं भी अपना अस्तित्व खोज रहा हु। कभी इंसानों में, कभी जानवरों में तो कभी उन लापरवाह पेड़-पौधों में।”
“कुछ तो नाम होगा तुम्हारा?”
“ज़िन्दगी”
इतना कहकर वो अनोखी आवाज हवाओं में घुल गयी। वेदिका को फिर एक जीने का सहारा मिल गया। हवाओं से बातें करना उसके लिए किसी सजीव व्यक्ति से बातें करना कम नहीं था। उसने अपने आसुओं को गिरने से रोका और फिर हवाओं को चुमते हुए निकल पड़ी अपने ज़िन्दगी को जीने।
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