आख़िरी क़िस्त: The Last Installment (Mahesh’s father demanded huge dowry for his bank manager son’s marriage. However bride gave it as a surprise installment. Read Hindi social story)
जब महेश की नौकरी बैंक में शाखा प्रबंधक के पद पर हो गयी तो यह समाचार दावानल की तरह पूरे गाँव में फ़ैल गयी .
हरगौरी साव , महेश के पिताजी , फुले नहीं समा रहे थे. दहेज़ की रकम क्या होनी चाहिए , उनके लिए तय करना कठिन लग रहा था. ऐसे उडती – उडती खबर उनके कानों तक पहुँच चुकी थी कि इस महंगाई के दौर में दस लाख तो अवश्य होनी चाहिए और वो भी नगद – दान – दहेज़ के अतिरिक्त . बैंक में प्रबंधक की हैसियत कोई अभियंता या चिकत्सक से कम नहीं होती.
कौन माता – पिता नहीं चाहता कि उसकी बेटी का व्याह किसी बैंक अधिकारी से न हो और वह आजीवन सुखी न रहे.
हरगौरी साव का मकान फूस का था . वे चाहते थे कि फूस की जगह पक्का मकान बन जाय. उन्होंने मन में ठान लिया था कि दहेज़ की रक़म से ही पक्का मकान बनवाया जाय. वे घर से लगा कर पूंजी तोडना नहीं चाहते थे. उनका गुड का कारोबार था . नगद लाते थे और नगद बेचते थे. कभी – कभी घटिया माल खपाने के लिए उधार भी देना पड़ता था . ऐसा व्यवसाय में करना ही पड़ता है.
बड़े लड़के की नौकरी सचिवालय में सहायक के पद पर हो गयी थी. लड़कीवालों से पांच लाख मांगने में उन्हें जरा सा भी संकोच नहीं हुआ था . कई लड़कीवाले यह कहकर विदक गये थे कि एक किरानी का रेट दोगुना मांग रहे हैं साव जी . इतनी राशि में तो एक अच्छा अभियंता या चिकित्सक मिल सकता है .
इस संसार में न तो विक्रेता की कोई कमी है न ही क्रेता की . माल लेकर बैठे रहिये धीरज के साथ तो कोई न कोई खरीदार फंस ही जाता है और मुंहमांगी कीमत देकर जाता है.
वही बात हरगौरी साव के साथ भी हुयी . अंततोगत्वा एक बड़ी मछली उनके जाल में फंस ही गयी . गिरिधारीलाल जो उनके दूर के रिश्तेदार थे और जिनका मरनी – जीनी में कभी – कभार आना – जाना होता था . गिरिधारीलाल को कहीं से भनक लग गयी थी कि साव जी अपने बड़े लड़के की शादी करने को तैयार हैं वशर्ते कोई लड्कीवाला पांच लाख देने को तैयार हो. गिरिधारीलाल की लडकी की व्याहने की उम्र बीती जा रही थी . लडकी का नाक – नक्श भी उतना कोई आकर्षक नहीं था . होनेवाला दामाद सरकारी नौकरी में था. यह एक बहुत बड़ा प्लस पोयंट था . सब मिलाजुला कर उनके लिए यह सौदा घाटे का कतई न था. अतः गिरिधारीलाल जी हरि का नाम ले कर गोटी सेट करने में जुट गये.
बात – चीत का दौर दिनभर चला . मौल – तौल होते – होते रात के दस बज गये . हरगौरी जी पांच से नीचे नहीं उतरते थे और गिरधारीलाल जी चार से ज्यादा देना नहीं चाहते थे . बात बीच में अटक गयी थी. हरगौरी जी दुनिया देखे थे तो गिरिधारी जी भी बाल धूप में नहीं सुखाये थे. हाँ – ना , हाँ – ना करते – करते रात के ग्यारह बज गये . चारों तरफ सन्नाटा छा गया . आखिरकार बीच का रास्ता निकाला गया. साढ़े चार लाख में शादी की बात पक्की हो गयी.
साव जी डाल –डाल तो गिरिधारी जी पात – पात .
गिरिधारी जी ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि वे साढ़े चार लाख के अलावे कुछ विशेष नहीं दे पायेंगे . दान – दहेज़ के मुद्दे पर कोई झंझट या विवाद नहीं उठना चाहिए बाद में .
साव जी अपने जीवन में एक लाख रुपये कभी नहीं देखे थे . यहाँ तो उन्हें साढ़े चार लाख मिल रहे थे .
वे हर्षातिरेक में उतावला होकर अपना मंतव्य देने से नहीं चुके, ‘ जाईये न , गिरिधारी जी ! आप अपनी बेटी को एक साड़ी में ही विदा कर दीजियेगा , हमें कोई एतराज नहीं होगा , न ही किसी तरह की कोई शिकवा – शिकायत ही होगी. ’
गिरिधारी जी का चावल का कारोबार था . व्याज में भी रक़म बैठाते थे. माल भी ऊँची दर पर उधार में देते थे तो वसूलना भी जानते थे . एक – दो लठैत हमेशा उनके दरवाजे पर तैनात रहता था .
उन्होंने तीन किस्तों में दहेज़ की रक़म देने की बात स्पष्ट कर दी – डेढ़ लाख छेका के वक़्त , डेढ़ लाख तिलक पर और डेढ़ लाख विदाई के समय . हरगौरी साव को मानना ही था , सो मान गये.
शुभ मुहूर्त में बारात निकली , सहनाई बजी , रश्मोरिवाज पूरे हुए .
जब बहू डोली से उतरी तो लोगों का ध्यान बहू पर कम दहेज़ की ओर ज्यादा था . सगे – सम्बंधियो ने सोच रखा था कि इतनी बड़ी बस से दहेज़ के ढेर सारे सामान उतरेंगे , लेकिन बारातियों की महज अटेचियाँ ही उतरीं.
दहेज़ न मिलने से सगे – संबंधी काफी खफा थे. सास – ननद ने तो इस बात को लेकर आसमान ही सर पर उठा लिया था. साव जी मुँह छुपाने के लिए उपयुक्त जगह तलाशने में बेचैन थे.
तीन दिनों तक घर में उलाहने की उठा – पटक होती रही . सुरेश अपनी पत्नी को लेकर रांची निकल गया . उसे सरकारी क्वार्टर मिला हुआ था और सभी आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध थीं. उसे क्या जरुरत थी मगजमारी करने की . आप भला तो जग भला .
बहू के जाने के बाद सगे – संबंधी भी धीरे – धीरे खिसकने लगे. एक तो फूस का मकान और दूसरा शौच के लिए शुबह – शुबह उठकर मैदान जाना – सब के लिए जहमत थी. दो- चार सप्ताह भी नहीं बीते थे कि महेश के लिए नित्य नए – नए रिश्ते आने शुरू हो गये . इस बार साव जी ने ठान लिया था कि दहेज़ की रक़म से दो कित्ता पक्का मकान जरुर बनवायेंगे.
सुरेश की शादी में जो साढ़े चार लाख रुपये मिले थे उस पर साव जी कुंडली मार कर बैठ गये थे . एक फूटी कौड़ी भी पक्का मकान बनवाने या सेफ्टी पैखाना में खर्च करना उन्होंने मुनासिब नहीं समझा . जब चारों तरफ से थू – थू होने लगी तो ईज्जत – आबरू बचाने के ख्याल से दो पक्की कोठरी ओर एक सेफ्टी पैखाना बनवा लिए थे . लेकिन कुछ लोगों को यह दलील नहीं जंची. उनका कहना था कि साव जी एक बड़ी मछली फंसाने के फ़िराक में थे . अतिथियों के लिए घर पर ज़माने के अनुसार सुबिधा भी नहीं रहेगी तो वे मोटी रक़म की मांग कैसे कर सकते हैं . लड़कीवाले वर और घर दोनों देखकर ही दहेज़ देते हैं .
साव जी गणित में प्रवीण थे. एक –एक पैसा का हिसाब रखते थे . चीटियाँ जो गुड़ खा जाया करती थीं , उसका भी हिसाब उनके पास रहता था . एक –एक कदम फूंक – फूंक कर उठाते थे . फिसलना तो उनके शब्दकोष में था ही नहीं.
महेश के लिए सौदा तय करना उनके लिए टेढ़ी खीर साबित हो रही थी. वे असमंजस में थे कि दहेज़ के लिए कितनी रक़म की मांग की जाय. सबसे बड़ी समस्या यह थी कि जितनी रक़म तय कर चुके थे वे उस पर कायम नहीं रह पाते थे. लालच साये की तरह उनका पीछा कर रहा था. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह थी कि मौल – तौल में यहाँ भी मांग एवं पूर्ति के नियम लागू हो जाते थे. अर्थात जितने अधिक रिश्तेदार आते थे , दहेज़ की राशि उतनी ही बढ़ा – चढ़ा कर पेश की जाती थी. मामला सुलझने की जगह रोज ब रोज उलझते ही चला जाता था.
ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था . उनके समधी जी एक रिश्ता लेकर आये . साथ में लडकी के पिता जी भी थे. लडकी किसी बहुरास्ट्रीय कंपनी , मुंबई में सोफ्टवेयर इंजिनियर थी. पांच लाख का वार्षिक पेकेज था. लेकिन निगोसिये सन में लडकी के पिता पांच से ज्यादा देने के पक्ष में नहीं थे. हरगौरी जी दस से कम पर बात करना पसंद नहीं करते थे. लडकी के पिता ने साफ़ शब्दों में कह डाला कि लडकी की लिखाई – पढ़ाई में जो भी जमा – पूंजी थी उसने खर्च कर डाली थी. उसने दूसरी दलील दी कि लडकी कमासूत है , शादी के बाद तो सभी कमाई के हक़दार वे ही तो होंगे . बात में दम था , इसलिए साव जी अंततोगत्वा शादी के लिए हरी झंडी दिखा दी.
बस क्या था , बारात निकली , शहनाई बजी और दुल्हन के रूप में घर में शालिनी का पदार्पण हुआ. कहाँ मुंबई की सोसायटी की फ़्लैट और कहाँ साव जी का दो कमरे का मकान. कहाँ मेट्रो – सिटी की तमक – झमक और कहाँ उमस भरी यहाँ की जिंदिगी .
शालिनी इस रिश्ते से बिलकुल खुश नहीं थी. उसने डोली से घर में कदम रखते ही मन बना लिया था कि ईज्जत बचाकर दो –तीन दिन पहले ही इस दलदल से निकल कर नौ दो ग्यारह हो जाना है. ननदों ने सोहागरात के लिए एक कमरा सजा दिया था . खाते – पीते रात के ग्यारह बज गये . नेग चार लेने के बाद महेश और शालिनी को उस कमरे में ढकेल दिया गया और बाहर से दरवाजा भिड़का दिया गया . छोटी बहन , जो शादी – शुदा थी , ने भैया से कह दिया की भीतर से वे दरवाजा बंद कर ले .
महेश को दोस्तों ने समझा दिया था कि सोहागरात में भाभी को एक मिनट के लिए भी हावी होने मत दीजियेगा , वर्ना ताजिंदिगी गुलामी करनी पड़ेगी. ‘ बिल्ली पहली रात मारी जाती है ’ इस बात का ध्यान रखियेगा.
शालिनी शहर की लडकी थी . होस्टल में पढी – लिखी थी . अच्छों – अच्छों को पानी पिला चुकी थी.
वह पलंग पर महेश को बड़े ही प्यार से अपने आगोश में ले लिया और उसके उलझे बालों को सहलाते हुए बोली , ‘ मेरा आज ही मेंस ( मेंसेस ) शुरू हो गया , बैड लक , मैं आप के साथ तीन – चार दिनों तक सो नहीं सकती , प्लीज डोंट माईन्ड . ’
महेश को काटो तो खून नहीं . हरेक नौजवान इस दिन के लिए क्या – क्या मनसूबे बनाकर रखता है , सब का सब क्षण भर में बालू के घरौंदे की तरह ढह गये . औरत की यह ऐसी इसु है जिस पर बहस करना कोरी मूर्खता है.
तुम पलंग पर सो जाओ , मैं नीचे चटाई पर सो जाता हूँ.
आप को कष्ट होगा .
कष्ट किस बात की, दो – चार दिनों की ही तो बात है फिर तो …
ठीक है.
जोश में इंसान हौश भी खो देता है – यह पुरानी कहावत है. साव जी ने जो जमा पूंजी संभाल कर रखे हुए थे , महेश की बहू के जेवर में खर्च कर डाले थे यह सोचकर कि बहू जब आयेगी तो साथ में जेवर भी आ जायेंगे. घी गिरा कहाँ न अपनी ही खिचडी की थाली में .
कई बार जेवरों को उतारकर बैंक के लोकर में रखने की बात उठी , लेकिन बात आई – गई हो गयी . शालिनी जेवर उतारने का नाम तक नहीं लेती थी. बहू ब्याहकर पहली बार ससुराल आयी थी , इसलिए जोर जबरदस्ती करना भी मुनासीब नहीं था.
शालिनी को दहेज़ लोभियों से नफरत थी. उसे न तो घर पसंद था न ही वर . पिता जी मधुमेह एवं उच्च रक्तचाप के रोगी थे . हृदयाघात होने की सम्भावना बनी रहती थी . पिता जी ने जब शादी पक्की कर ली तो उसने विरोध करना उचित नहीं समझी . सोची पसंद न होने पर पुराने वस्त्र की तरह उतार कर फेंक देगी इस रिश्ते को .
माता – पिता ने ऐसे घर – परिवार से रिश्ते करके जो बेवकूफी की थी , उसे वह दोहराना नहीं चाहती थी. इसलिए वक़्त रहते उसे कोई उपयुक्त निदान ढूँढ लेना था . साथ ही साथ हरगौरी जी को ऐसी सबक सीखानी थी कि उसे नानी याद आ जाय .
उसने निश्चय कर लिया कि आभूषण के साथ शीघ्रातिशीघ्र निकल जाना है इस दलदल से कि किसी को कानो कान खबर तक न लगे और उस पर किसी प्रकार का शक भी न हो.
तीसरे दिन ही शालिनी को अपने कार्यालय से फोन आया . उसे अविलंब मुंबई बुलाया गया था . उसे जल्द ही किसी आवश्यक कार्य से बोस्टन ( यू. एस. ए. ) जाना था . उसने सास – श्वसुर एवं अपने पति महेश को इस बात की जानकारी दे दी. महेश ने टूर स्थगित करने की गुजारिश की , लेकिन व्यर्थ .
रात को ही शालिनी मुंबई मेल से निकल गयी.
जाने से पहले अपनी वेनिटी बैग से तीस हज़ार रूपये निकालकर अपने श्वसुर के हाथ में थमा दी . और बोली , ‘ पिता जी यह मेरी पहली क़िस्त है , पगार मिलते ही हर माह नियमित भेजती रहूंगी.’’
दो महीने तक तो कोर बैंकिंग सिस्टम से साव जी के खाते में तीस – तीस हज़ार रुपये जमा हुए. तीसरे महीने मुंबई से एक लिफाफे के साथ तीस हज़ार का डीडी भी साव जी को प्राप्त हुआ . एक छोटा सा पत्र भी संलग्न था . लिखा था – ‘ आख़िरी क़िस्त ’– शालिनी .
चौथे महीने में साव जी को एक लिफाफा मिला . सोचा हो सकता है बहू का मिजाज बदल गया होगा और डीडी भेज दी होगी. बड़ी ही उत्सुकता से लिफाफे को खोला तो डीडी की जगह एक नोटिसनुमा ख़त मिला .ख़त अंगरेजी में थी. साव जी को तो अंगरेजी आती नहीं थी. उनके लिए काला अक्षर भैंस बराबर जैसा था. आस – पड़ोस में भी कोई वाचनेवाला न था . इसलिए वे सिन्हा जी से पत्र पढवाने निकल पड़े . सिन्हा जी का घर गाँव के दूसरे छोर पर था . कचहरी में सिन्हा जी पेशकार थे. उन्हें अंगरेजी अच्छी आती थी.
साव जी के मन में शंकाएं उथल – पुथल मचा रही थीं . मजमून जानने की बेचैनी सता रही थी सो अलग.
उबड़ – खाबड़ पगडंडी थी . बैसाख का महीना . सूरज सर के ऊपर आग का गोला बनकर कहर ढा रहा था. साव जी पसीने से तर – बतर हो रहे थे , लेकिन उनकी चाल में कोई सुस्ती नहीं थी. घंटे भर में वे सिन्हा जी के दरवाजे तक पहुँच गये . सिन्हा जी कार्यालय जाने के लिए स्कूटर स्टार्ट ही कर रहे थे कि उनकी नज़र साव जी पर पडी . देखते ही पूछ बैठे , ‘ क्या बात है , काकू ? इधर आना कैसे हुआ ? सब कुशल मंगल तो है न ? ’
साव जी तो नर्वस थे , क्या बोलते . चीठ्ठी निकालकर सिन्हा जी के हाथ में थमा दी और पढ़कर समझाने की बात रखी.
सिन्हा जी ख़त खोलते ही समझ गये कि यह डिवोर्स की नोटिस है. उन्होंने सारी बातें संछेप में समझा दी और विशेष जानकारी के लिए किसी वकील से परामर्श करने की सलाह दे डाली . इससे ज्यादा वे कर भी क्या सकते थे !
मुँह – हाथ धोने के लिए सिन्हा जी ने शीतल जल मंगवाया. चाय पीने के बाद सिन्हा जी कचहरी के लिए निकल पड़े.
साव जी जिस सोफे में बैठे थे – बैठे रह गये . ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वे पल दर पल उसमें धंसते जा रहे हैं . अब उनके निष्प्राण शरीर में उठकर खड़े होने की शक्ति नहीं बची थी.
डिवोर्स की नोटिस जमीन पर गिरी पडी थी और निष्ठुर हवाएं उसके साथ खेलवाड़ कर रही थी.
लेखक : दुर्गा प्रसाद , बीच बाज़ार , गोबिंदपुर , धनबाद . दिनांक : ०२.०५.२०१३ , वृस्पतिवार |
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