स्पीड – ब्रेकर- (Speed-Breaker): God made me a girl with beauty and that is not my fault. But in our society people are ready to take advantage of beautiful girl, read Hindi story of a girl
‘ईश्वर ने मुझे खूबसूरत बनाया तो इसमें मेरी तो कोई गलती नहीं। मैं इतनी भी जाहिल नहीं कि लोग मुझे घूरते हैं बेवजह तो मैं उनकी मंशा को नहीं जान पाती। नापाक इरादे इन लोगों के नजरों में तैरते रहते हैं। अब कल की ही घटना को लीजिये। उस वक्त मैं बस स्टैण्ड में खड़ी बस का इन्तजार कर रही थी। देखा सुरेन्द्र बाईक में बैंक मोड़ की तरफ जा रहा है। अचानक उसकी नजर मेरे उपर पड़ी। बाईक को मोड़ा और मेरे पास आकर बड़ी ही शालीनता से बोला,’’
‘‘शालिनी जी, कहिये तो आप को बैंक कालिनी छोड़ दूँ। आज एक्का – दूक्का ही बस चल रही है। पता नहीं आये कि न आये। इस तरह खड़े-खड़े कबतक इन्तजार करती रहोगी ?’’
मैं किंककर्तव्यर्विमूढ़ थी. बात मानू कि ठुकरा दूँ। मन-मस्तिष्क में उथल-पुथल मच रही थी। सोचा चलो सुरेन्द्र पड़ोस ही में रहता है, साथ चलने में हर्ज ही क्या है ? मैंने ‘ हाँ‘ कर दी और बाईक पर बैठ गई। सुरेन्द्र ने एक हल्की मुस्कान के साथ मेरी ओर देखा और बाईक स्टार्ट करने लगा। किक पर किक मारने लगा, लेकिन बाईक स्टार्ट लेने का नाम ही नहीं ले रहा थी। मैं उतर कर शेड के नीचे चली गई और नजरें उधर से हटाकर सड़क की ओर कर ली। कुछ ही देर में सुरेन्द्र आया देखा – पसीना-पसीना हो गया था। उसने सफाई दी,
’’ देखिये न स्वीच देना ही भूल गया था – तो बाईक कैसे स्टार्ट होती ? चलिये अब कोई प्रोब्लेम नहीं होगी।”
मैं चल दी। यदि न भी चलती तो सुरेन्द्र के मन में मेरे प्रति ‘मिसअन्डस्टैन्डिंग पैदा होती। चढ़ते समय एक बात की हिदायत कर दी कि जरा ‘‘स्पीड ब्रेकर’ का ख्याल रखना। पी.के.राय कालेज के पास तीन-तीन स्पीड ब्रेकर हैं। मुझे तो बड़ा डर लगता है बाईक में पार करते हुये। पता नहीं स्वतः बाईक जम्प करती है कि तुमलोग जानबूझकर जम्प करवाते हो मजे के लिए. ईश्वर ही जाने !
सुरेन्द्र मेरी ओर घूरा तो लगा कि इसके मन का चोर चेहरे पर उतर आया है. मुझे कभी-कभार जान-पहचान के मुहल्ले के लड़के मिल जाते थे , जो लिफ्ट देने में नहीं चुकते थे।
लड़कियों की तरफ हमउम्र लड़कों का आकर्षण स्वाभाविक होता है, लेकिन बड़े-बुजूर्ग भी हममें रूचि लेना शुरू कर दे तो जीना कितना कठिन हो जाता है हम सबों का – यह बहस का विषय न होकर चिन्तन का विषय है।
सुरेन्द्र को मैंने आगाह कर दिया था कि ‘‘स्पीड ब्रेकर’’ का ख्याल रखना, विशेषकर पी.के.राय वाली। वह मेरे कहने का तात्पर्य समझ गया था। चूँकि मैं भुक्त भोगी थी, इसलिये आगाह कर देना आवश्यक था . भुक्त भोगी इसलिये कह रही हूँ कि पिछले सप्ताह मैं इसी तरह खड़ी थी और शर्मा अंकल ने बड़े ही स्नेह से मेरे पास बाईक खड़ी कर चलने की बात कही। मैंने देखा कि ये तो कोर्ट तरफ से मुड़कर मेरे पास आये। अंकल आप को कहीं ओर जाना है, क्यों तकलीफ करते हैं ? मैं चली जाऊँगी दस मिनट बाद ही सही। लेकिन वे नहीं माने अखिरकार मुझे पीछे बैठा ही लिये। अंकल पड़ोस ही में रहते थे। आई.एस.एम मद्रास कैफ तो ठीक-ठाक पार हुआ , लेकिन पी.के.राय के पास इतनी जोर से बाईक उछाल दी कि मैं गिरते-गिरते बची। जान प्यारी होती है। मैं उन्हीं के उपर लद गई। प्रत्येक क्रिया की विपरीत प्रतिक्रिया होती है, शायद अंकल को न्यूटन की थ्योरी मालूम थी। मरता क्या न करता ? मैं खड़ी होकर अपने परिधान ठीक करने लगी। शर्मा अंकल बाईक खड़ी कर बोले,’’ चोट-वोट तो नहीं लगी ? देखो स्पीड-ब्रेकर का ख्याल ही नहीं रहा आज , ऐसे रोज दो चार बार फेरे लगाता हूँ।“
अंकल जो बोलिये चलाते वक्त आप का ध्यान कहीं ओर था , नहीं तो ऐसी हादसा नहीं होती। कुछ हो जाता तो मैं घरवालों को क्या जवाब देती।
कुछ? अंकल ने पूछ दिया।
‘‘जैसे हाथ-पैर टूट जाते तो क्या करती ? आगामी महीने में एम.ए.फाईनल का एक्जाम है।’’ मैंने जवाब दिया।
‘‘अब मैं आप के साथ नहीं जाऊँगी। जिधर जाना चाहते हैं , जाईये और मेरी चिन्ता छोडि़ये। आप बुजूर्ग हैं और इतना भी ख्याल नहीं रखतें कि आप के पीछे एक पड़ोस की लड़की बैठी है , जरा सावधानी से बाईक चलाते। मैं तो कहूँगी कि आप के मन में खोट था। आप तो बेफजूल जब – तब ब्रेक दबा देते थे और ……. आप को मजा आता था न ? यह आप के चेहरे से साफ़-साफ़ झलकता है. “
‘‘खोट कैसा ? तुम मेरी बेटी जैसी हो ’
“यह सब महज कहने के लिए होता है. मौका मिलना चाहिए , फिर आप जैसे लोग कुछ भी कर सकते हैं. यह गफलत में मत रहिएगा कि हम आप जैसों की बदनीयत भांप नहीं पाती ?”
मैंने असलियत को खुलकर रख दी। शर्मा अंकल का चेहरा मेरी बात सुनकर सन्न रह गया। उनके पास सफाई देने के लिये कोई भी दलील नहीं बची थी। उनका मन का चोर रंगे हाथों पकड़ा गया था।
वे पश्चाताप की अग्नि में इतने झुलस चुके थे कि बाईक का वजन उनके लिये आज भारी पड़ रहा था। कोर्ट मोड़ की तरफ से एक ओटो आई तो मैं उन्हें उन्हीं के हाल पर छोड़कर ओटो से चल दी- इसके सिवाय मेरे पास निर्णय लेने के लिये बचा ही क्या था ? बड़े – बुजुर्ग थे ,इसलिए माफ़ कर दी , नहीं तो दो -चार झापड़ रशीद करती तब पता चलता कि लड़कियों को छेड़ना कितना महंगा पड़ता है. फिर हफ्ते भर बाद एक दिन सुरेन्द्र मिल गया . वह बाईक पर था – अकेले था. मैं कुछ बोलती कि सुरेन्द्र फूट पड़ा,
’’ दीदी, सभी शर्मा अंकल की तरह नहीं होते। ऐसे भी आप तो मेरी दीदी की सहेली है। सभी बातों में, सच पूछिये तो मेरे से बड़ी हैं। उम्र में . मैं आप की बहुत ईज्जत करता हूँ। और वेसे भी पड़ोस की कोई लड़की बस-स्टैण्ड में प्रतीक्षा करे और मैं उन्हें देखकर अनदेखा करते हुये , बाईक फड़फड़ाता हुआ निकल जाऊँ, यह मुझसे नहीं हो पाता। दीदी, थोड़ी देर के लिये आपके मन भी मेरे प्रति……….।’’
“देखो सुरेन्द्र , ऐसा भाव होना स्वाभाविक है। मैं कैसे अछूती रह सकती। मैं भी तो एक इंसान हूँ। तू तो जानता ही है कि आजकल लड़कियाँ कितनी असुरक्षित जीवन जीने के लिये मजबूर हैं। सरकार भी इस दिशा में कुछ ठोस कदम नहीं उठाती . सब के घर में बहु – बेटियां होती हैं . लेकिन बिरले ही होतें जो इस बात को समझते हैं. कुछ तो ऐसे घूर-घूर के देखते हैं जैसे कभी …. !
इंसान के भेष में चारो तरफ भेडिये घूमते रहते हैं , शिकार में। इसलिये भाई , हम सबों को बड़ा ही फूँक-फूँक कर एक-एक कदम सावधानी से उठाना पड़ता है। चेहरे से किसी के मन की बात पता लगाना बड़ा ही दुरूह कार्य है। बेवजह जान – पहचान भी कभी-कभी जानलेवा साबित होता है। इसलिये मेरे बारे में कोई अन्यथा मत सोचो – दिमाग से निकाल दो इसे और मैं तो सलाह दूँगी कि अनचाहे कामों से अपने को दूर ही रखो – इसी में भला है ,वरना लेने के देने पड़ सकते हैं। आज से हम लड़कियों का पीछे – पीछे घूमना बंद करो और पढाई – लिखाई में ध्यान केन्द्रित करो . इससे ही भविष्य उज्जवल होगा . तुम अच्छे लड़के हो . जीवन को यूँ ही बर्बाद मत होने दो. क्षणिक सुख के पीछे भागने से क्या हासिल होगा ? परेशानी ही बढ़ेगी . अच्छे लोगों की संगत करो , अच्छी – अच्छी पुस्तकें पढों . बड़ों के आदर्शों को अपने जीवन में उतारो. जीवन अमूल्य निधि है , इसे व्यर्थ मत जाने दो, भाई .”
सुरेन्द्र के चेहरे से पता चल रहा था कि मेरी बातों का असर उसके दिलोदिमाग पर कर गया है. मुझे इस बात से निहायत खुशी हो रही थी कि एक बिगडैल लड़का अब सही मार्ग पर आ जायेगा. इतनी देर में अब घर पहुँच गये थे.
घर घूसते ही माँ मिल गई और उसने पूछ ही दिया, ’’जूम्मा-जूम्मा आठ दिन भी नहीं हुआ कि शर्मा अंकल की मोटरसाईकिल से गिर पड़ी थी, फिर पुनः किसी से लिफ्ट लेकर आज बाईक में आई। मैं पूछती हूँ क्या जरूरत थी? ढ़ेर सारे ओटो तो चलते हैं, थोड़ी देर इन्तजार कर लेती। बाईक से आना तुम्हें मजा लगता है ? कभी न कभी कुछ हो ही जाता है। अब देखो तुम्हारे गाल पर पड़े ये खरोंच। लगता है किसी गिद्ध ने झपट्टा मार कर तुम्हारे चेहरे को लहू-लुहान कर दिया . कौन था वह आदमी जिसने तुम्हारी यह हालत बना डाली ? उस दिन भी पूछा तो तुम टाल गई और आज भी टाल रही हो। जरा उनका नाम तो जानूँ , उस बेहूदे का ? ओर आज वह छोकड़ा कौन था जिसके बाईक पर दनदनाकर चली आई।
“सुरेद्र था, मेरी सहेली- राखी का छोटा भाई।”
‘‘ऊ सुरेन्द्रा ! दिनभर मोटरसाईकिल में टण्डेली करते फिरता है। बाप का कोयले की कमाई है , उड़ाते फिरता है. उसके साथ आई तुम ? वह तो दिनभर मोहल्ले की लड़कियों को ढ़ोते फिरता है। इस उम्र में पढ़ना-लिखना चाहिये , अपना भविष्य बनाना चाहिये उसे . माँ – बाप का तो इस और कोई ध्यान ही नहीं है. सब अपने में ही मस्त रहते हैं , लड़का क्या करता है मालूम ही नहीं. ऐसे अभिभावक को अंत में पछताना पड़ता है. वो किसी ने बड़ी अच्छी बात कही है ,” का कपूत , का धन संचय , का सपूत का धन संचय .” कपूत होने से कितना भी धन कमायें, वह तो सारा का सारा उड़ा देगा , सपूत होने से धन संचय करने की क्या जरूरत , वह तो धन तो सुरक्षित बचाकर रखेगा , उसे दुगुना – तिगुना भी कर देगा ” सुरेंदा तो एकदम ‘लफुआ’ बन गया है. भगवान ही बचायें उसको. मैं तो उसे कई बार खरी-खोटी सुना चुकी हूँ। मेरे को देखते ही दूम दबाकर भाग खड़ा होता है। अभी तुमसे चिकनी-चुपड़ी बातें करके उलझाये हुये था। देखते ही नौ – दो ग्यारह हो गया। तुम बीस साल पार चुकी हो , लेकिन अभी भी तुम दुनियादारी में जीरो बट्टा जीरो हो। इसीलिये बार-बार कहती हूँ कि भले ही आने में देर हो जाये, लेकिन भूल के भी किसी से लिफ्ट मत लेना। पता नहीं आज के इस जमाने में किसके मन में क्या है ?
माँ ने एक ही सांस में ढ़ेर सारी नसीहत दे डाली। मुझे समझ में ही नहीं आया कि कौन सी बात मानूँ या कौन सी नहीं। परन्तु एक बात मेरे मन-मस्तिष्क में घर कर गई कि जरूर कोई न कोई वजह होती है ऐसी घटनाओं के पीछे , जो लोग अपना नुकसान सह के भी अंजाम देने में नहीं चूकते। एक बात दिगर है कि माँ की बात मैंने मान ली और दूसरे दिन से ही लिफ्ट लेना बंद कर दी , ओटो से ही आने – जाने लगी.
लेखक : दुर्गा प्रसाद
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